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यमुना को साफ-स्वच्छ करने के लिए सामाजिक स्तर पर नए सिरे से छेड़े गए अभियान ने नदियों के प्रदूषण की समस्या को एक बार फिर सतह पर लाने के साथ ही यह भी साबित कर दिया कि हमारे नीति-नियंता अपने मूल दायित्वों को नहीं समझ रहे हैं। इस मामले में वे इस हद तक उदासीन हैं कि देश की आस्था और संस्कृति की प्रतीक नदियां नष्ट होने की कगार पर पहुंच गई हैं। यमुना रक्षक दल नामक संगठन को यमुना बचाओ अभियान के रूप में मथुरा से दिल्ली मार्च की शुरुआत इसीलिए करनी पड़ी, क्योंकि यह नदी एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है और उसे उसके मूल स्वरूप में वापस लाने की सारी घोषणाएं, दावे और संकल्प खोखले साबित हुए। यहां तक कि न्यायपालिका की डांट-फटकार और हिदायतें भी न तो केंद्र सरकार पर कोई प्रभाव डाल सकीं और न ही राज्य सरकारों पर। इस सबसे नौकरशाही भी अछूती रही। जीवनदायिनी के रूप में देखी जाने वाली नदियों का महत्व महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने भी रेखांकित किया था। गांधीजी नदियों को भारत की जीवनरेखा मानते थे तो नेहरू के शब्दों में गंगा भारत की सदियों पुरानी संस्कृति-सभ्यता की सबसे बड़ी प्रतीक है। तमाम ऋषियों-मुनियों ने भी गंगा और यमुना को सनातन संस्कृति से संबद्ध करते हुए उन्हें देश के अस्तित्व के लिए आवश्यक बताया। यही कारण है कि गंगा-यमुना ही नहीं, बल्कि समस्त नदियों के प्रति देश में आस्था और सम्मान का भाव सदियों से चला आ रहा है। आबादी के दबाव और बढ़ते उद्योगीकरण के कारण नदियों के प्रदूषण का जो सिलसिला आरंभ हुआ वह समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है। नदियों के प्रदूषण को लेकर एक के बाद एक सरकारों ने चेतने से इन्कार किया और जब वे चेतीं भी तो सुधार के सार्थक प्रयास नहीं किए जा सके।
गंगा के प्रदूषण की चिंताजनक स्थिति को राजीव गांधी ने शासन में आते ही महसूस कर लिया था। उन्होंने इस नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए गंगा एक्शन प्लान के रूप में एक महत्वाकांक्षी परियोजना की शुरुआत भी की, लेकिन समय बीतने के साथ यह सामने आया कि जिस योजना को गंगा को पुनर्जीवन देने के लिहाज से इतना महत्वपूर्ण समझा जा रहा था वह धन की बर्बादी का कारण बनी। गंगा एक्शन प्लान के नाम पर अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा का प्रदूषण इस हद तक बढ़ चुका है कि उसका जल न तो पीने योग्य रहा और न ही स्नान के काबिल। गंगा एक्शन प्लान की असफलता इसका जीता-जागता प्रमाण है कि किसी योजना के प्रति शासन का दृष्टिकोण कितना ही सकारात्मक क्यों न हो, लेकिन यदि नौकरशाही का रवैया ठीक नहीं तो वह योजना कुल मिलाकर पैसे की बर्बादी ही साबित होती है। गंगा जैसा हाल ही यमुना का भी है। यमुना के प्रदूषण पर भी उच्चतम न्यायालय ने एक नहीं अनेक बार चिंता जताई और केंद्र-राज्य सरकारों को विशेष कदम उठाने के निर्देश दिए, लेकिन राजनीतिक-प्रशासनिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण इस नदी का प्रदूषण भी बेलगाम होता जा रहा है। हमारे नीति-नियंता यह देखने-समझने से इन्कार कर रहे हैं कि किस तरह विश्व के अन्य देशों में नदियों के प्रदूषण को सही योजनाओं और उन पर अमल की दृढ़ इच्छाशक्ति के सहारे समाप्त कर लिया गया। लंदन की टेम्स नदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। पचास वर्ष पहले यह नदी इस कदर प्रदूषित थी कि उसे जैविक रूप से मृत घोषित कर दिया गया था, लेकिन एक बार ब्रिटेन के शासकों ने उसे प्रदूषण मुक्त बनाने की ठान ली तो इसे विश्व की सबसे साफ-स्वच्छ नदियों में शामिल कराकर ही दम लिया। सबसे पहले इस नदी में सीधे उड़ेले जा रहे दूषित जल को रोका गया। फिर नए सीवेज शोधन संयंत्रों की स्थापना की गई और प्रदूषण के खिलाफ कड़े कानून बनाए गए। आखिर जिन तौर-तरीकों से टेम्स के प्रदूषण को दूर किया जा सकता है उन्हीं के सहारे अपने देश में गंगा और यमुना सरीखी नदियों को साफ-स्वच्छ क्यों नहीं किया जा सकता? यह स्पष्ट है कि नदियों के महत्व को जिस तरह विकसित देशों ने महसूस किया उस तरह का चिंतन अपने देश के शासकों-प्रशासकों में उभर नहीं पा रहा है। पांच-छह दशक पहले तक विकसित माने जाने वाले कई और देशों में भी नदियों की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी, लेकिन उन्होंने यह समझने में देर नहीं लगाई कि नदियां जीवन के लिए कितनी आवश्यक हैं। इसके विपरीत अपने देश में पर्यावरण की चिंता प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे नजर आती है। चूंकि प्रशासन के साथ शासन भी पर्यावरण के प्रति एक प्रकार का उपेक्षा भाव रखता है इसलिए नतीजा यह है कि गंगा-यमुना समेत अन्य नदियों का प्रदूषण अरबों रुपये खर्च कर दिए जाने के बावजूद कई गुना बढ़ चुका है। नदियों के प्रदूषण की जड़ में उनके तट पर स्थापित उद्योग तो हैं ही, शहरों के सीवेज को सही तरह शोधित किए बिना नदियों में सीधे गिरा देना भी है। सीवेज को साफ करने के लिए एक तो पर्याप्त संख्या में शोधन संयंत्र काम नहीं कर रहे हैं और जो संयंत्र हैं भी वे अपनी आधी-अधूरी क्षमता से ही काम कर रहे हैं।
नदियों के किनारे बसे छोटे-बड़े शहरों के साथ-साथ गांव और कस्बों की आबादी भी प्रदूषण को बढ़ाने का काम कर रही है। इस मामले में समाज अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। यह विचित्र है कि एक ओर तो नदियों की पूजा की जाती है और दूसरी ओर उनके प्रदूषण को लेकर सामाजिक स्तर पर पर्याप्त जागरूकता नजर नहीं आती। यह हैरत की बात है कि ऋषिकेश में गंगा के आसपास स्थापित किए जा रहे शोधन संयंत्रों का यह कहकर विरोध किया जा रहा है कि यहां उनका क्या काम? इसमें संदेह नहीं कि अगर नदियों को प्रदूषण से मुक्त करना है तो इसके लिए शासन और प्रशासन, दोनों स्तर पर दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया जाना चाहिए। ऐसी कोई जांच भी होनी चाहिए कि नदियों में प्रदूषण की रोकथाम के नाम पर अब तक खर्च किए गए अरबों रुपये का क्या हुआ? भ्रष्टाचार के अनगिनत मामलों की जांच-पड़ताल के बीच उन लोगों की पहचान की जानी चाहिए जिन्होंने गंगा और यमुना को स्वच्छ करने के लिए आवंटित धनराशि से अपनी जेबें भर लीं और इन नदियों को एक तरह से मरने के लिए छोड़ दिया। नदियों का प्रदूषण एक ऐसा मुद्दा है जिस पर राजनीतिक मतभेदों की कहीं कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। राजनीतिक दलों को एक पाले में आकर उन प्रयासों पर आम सहमति कायम करनी होगी जिनकी मदद से नदियों को उनके पुराने स्वरूप में लौटाया जा सकता है। इस मामले में जितनी जिम्मेदारी पर्यावरण मंत्रालय की है उतनी ही राज्य सरकारों की भी। पर्यावरण मंत्रालय औद्योगिक परियोजनाओं पर तो सख्ती कर रहा है, लेकिन उसकी ओर से ऐसी ही चिंता नदियों के लिए नजर नहीं आती। यही हाल राज्य सरकारों का है। वे गंदे नालों और आधे-अधूरे ढंग से काम कर रहे सीवेज शोधन संयंत्रों के प्रति कुल मिलाकर लापरवाह हैं। बांधों से नदियों पर पड़ने वाले असर के पक्ष और विपक्ष में दलीलें दी जा सकती हैं, लेकिन जो दूषित जल सीधे नदियों में उड़ेला जा रहा है और जिसके कारण नदियां एक तरह से गंदे नाले में तब्दील हो गई हैं उसकी रोकथाम के लिए तत्काल ठोस उपाय तो किए ही जाने चाहिए।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त दैनिक जागरण के संपादक है
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Tags: नदियों का प्रदूषण , पर्यावरण मंत्रालय, राजनीतिक, प्रदूषण
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