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पद्म पुरस्कारों की असलियत

संपादकीय ब्लॉग
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जबसे भारतीय मूल के होटल व्यवसायी संत सिंह चटवाल को पद्मभूषण देने की घोषणा हुई है तभी से इस पुरस्कार को लेकर विवाद शुरू हो गया। इन दिनों आप जहां भी जाएं, लोग कहते हैं कि यदि आप गांठ के पूरे हों तो आसानी से पद्म पुरस्कार खरीद सकते हैं! इस संदर्भ में ज्यादातर लोगों का यही मानना है कि यदि आपको राजनीतिक वरदहस्त प्राप्त है तो इन पुरस्कारों से पुरस्कृत होना आसान है, मगर मैं जानना चाहता हूं कि क्या सरकार को लोगों का स्टेटस तय करने का काम करना चाहिए? वह भी तब जब हमारा समाज पहले से ही कई तरह की असमानताओं में विभाजित है?

तथ्य यह है कि हमारी सरकारें सबको एक समान अवसर उपलब्ध कराने के मामले में आज तक नाकाम हैं। ऐसे में करदाताओं के पैसे से चंद लोगों को पद्म पुरस्कार देकर सांस्कृतिक रूप से अभिजात्य लोगों का एक और वर्ग पैदा करने का सरकारी प्रयास कहां तक उचित है? असल में ये पुरस्कार सामंती युग के प्रतीक हैं, जो अंग्रेजों से हमें विरासत में मिले। आज देश के सामने कई गंभीर चुनौतियां हैं जिनसे निबटने की जगह सरकार पुरस्कार देने के काम में लगी हुई है। किसी भी स्थिति में जब एक सम्मान किसी और को नजरअंदाज कर आप किसी को देते हैं तो इसका सीधा सा मतलब है कि जिसे आपने नजरअंदाज किया है उसे आप मान्यता देने के काबिल नहीं समझते। जिसके कारण आपकी मान्यता को वह व्यक्ति एक अपमान के रूप में देखता है जिसे आपने नजरअंदाज किया या कहें कि मान्यता के लायक नहीं समझा। इसके कारण इन पुरस्कारों के दायरे से बाहर रह गए अपने-अपने क्षेत्र के काबिल लोगों को लगता है कि सरकार की नजर में उनके काम की कोई अहमियत ही नहीं है।

दुनिया भर में मशहूर स्नूकर चैंपियन यासिन मर्चेट ने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को पत्र लिखकर पूछा है कि आखिरकार किन मानदंडों के आधार पर सैफ अली खान जैसे लोगों को पद्मश्री लायक समझा गया और उनके जैसे खिलाड़ी को नजरअंदाज किया गया? अधिकांश लोगों का मानना है कि कांग्रेस पार्टी से सैफ के परिवार के करीबी रिश्ते की वजह से उन्हें यह पुरस्कार दिया गया। नजरअंदाज किए जाने से आहत यासिन ने एक साक्षात्कार में सवाल पूछा है कि जिस आदमी ने पत्नी को छोड़ दिया और दूसरी लड़की के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रहा है वह हमारे आधुनिक भारत के लिए किस तरह का रोल माडल पेश करता है? सैफ के मुद्दे पर शिवसेना ने भी सरकार को आड़े हाथों लिया है। शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने सैफ को टपोरी कहते हुए उसे इस पुरस्कार के लायक नहीं माना। सरकार पर बरसते हुए उद्धव ने कहा कि बहुतेरे वरिष्ठ कलाकार थे जिन्हें यह पुरस्कार देना चाहिए था। सैफ को पुरस्कार देने के सरकारी फैसले का जबरदस्त विरोध राजस्थान के बिश्नोई समुदाय के लोगों ने भी किया है। जोधपुर में सैफ का पुतला जलाते हुए इस समुदाय के लोगों ने मांग की है कि सैफ से सरकार को यह पुरस्कार वापस लेना चाहिए। गौरतलब है कि अक्टूबर, 1998 में सूरज बड़जात्या की फिल्म ‘हम साथ-साथ हैं’ की शूटिंग के दौरान सैफ ने दो काले हिरण का शिकार किया था, जिसके कारण आज भी वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत उनपर दर्ज मुकदमा अदालत में लंबित है। सैफ को पद्मश्री देने की घोषणा से आम लोगों के बीच गलत संदेश गया है। मेरा ख्याल है कि सैफ के दिल में भी यह बात होगी कि अभी उन्हें यह पुरस्कार सरकार नहीं दे तो अच्छा।

अभी हाल में मैंने टीवी पर देखा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से सवाल पूछा गया कि किसे इस साल का इंडियन आफ द ईयर चुना जाना चाहिए तो उन्होंने तत्काल अपने दिल की बात कही-आम आदमी को, मगर यह एक ज्वलंत सच्चाई है कि आज भी हमारे देश में सबसे उपेक्षित आम आदमी है। हर कोई उसे अपनी मंजिल पाने का जरिया मानता है, उसका इस्तेमाल करता है और फिर हाशिये पर डाल देता है। यदि सही मायने में हमारी सरकार आम आदमी को पुरस्कृत करने की इच्छा रखती तो आज उसकी इतनी दयनीय हालत नहीं होती। संविधान लागू होने के 60 साल बीतने के बावजूद क्या सरकार ने आम आदमी को वे तमाम अधिकार और सम्मान दिए जो उसे देना चाहिए? मैं बहुत जोरदार तरीके से कहना चाहता हूं-नहीं। मसला यह है कि जब हम समाज के एक बड़े तबके की उपेक्षा कर चंद लोगों को पुरस्कृत करते हैं तो समाज में सम्मान का एक प्रकार का अभाव पैदा करते हैं, जिसका अभाव पहले से ही हमारे समाज में मौजूद है। असल में यह मानवीय स्तर पर पैदा की गई समस्याओं, मसलन खाद्य सामग्री के अभाव के सामने कुछ भी नहीं है। मगर यह सवाल तो है ही कि इतनी कम सप्लाई क्यों? मैं यह शिद्दत से महसूस करता हूं कि पद्म पुरस्कारों के मामले में सरकार और राजनेताओं को दूर रहना चाहिए या कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए। सरकार के लिए ये पुरस्कार उन लोगों को अपने पाले में करने का एक बड़ा औजार हैं जिनका अपने क्षेत्र में एक कद है। इस वजह से पूरे सत्ता तंत्र में ताकत का जो खेल चलता है उसमें हमारे राजनेता हर कीमत पर कुर्सी पर बने रहना चाहते हैं। तब यह और भी जरूरी हो जाता है कि वे हर साल होने वाले इस सालाना सर्कस से थोड़ा दूर रहें।

यह जानना वाकई दुखद है कि किसी को यह सम्मान देने और बहुत बड़ी जमात को न देने से यह बात उभर कर आती है कि जिन्हें यह पुरस्कार नहीं दिया जाता वे शायद ही एक राजा को अपने राजा के रूप में देखते हों। हम कहते हैं कि भारत दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत है, मगर सरकारी स्तर पर दिए जाने वाले ये पद्म पुरस्कार आज भी सामंती तरीके से दिए जा रहे हैं, जो सरासर समानता की भावना के विरुद्ध हैं। इस सामंती सोच को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए।

[महेश भट्ट: लेखक फिल्म निर्माता-निर्देशक हैं]

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