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पर्यावरण पर गफलत

संपादकीय ब्लॉग
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लगभग दो साल पहले एक साक्षात्कार में आईपीसीसी के अध्यक्ष डा. आरके पचौरी से जब मैंने यह पूछा था कि जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद देश और दुनिया पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है तो उन्होंने कहा था कि यह रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद देश और दुनिया जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों के बारे में सोचने लगी है, लेकिन सवाल यह है कि अभी हाल ही में आईपीसीसी की रिपोर्ट झूठी साबित होने के बाद इसका क्या प्रभाव पडे़गा? पूरी दुनिया आईपीसीसी के इस झूठ से चकित है। संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था जब कोई बात कहती है तो उसके कुछ मायने होते हैं। यही कारण है कि पर्यावरणविद अपने शोधों एवं लेखों में शुरू से ही आईपीसीसी की रिपोर्ट का हवाला देते रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस झूठ से आईपीसीसी के साथ-साथ पर्यावरण पर काम करने वाले अन्य लोगों को भी शर्मसार होना पड़ा है। जलवायु परिवर्तन पर कार्य करने के लिए आईपीसीसी को नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है। आईपीसीसी की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट में यह दावा किया गया था कि हिमालय के विभिन्न ग्लेशियर वर्ष 2035 तक पिघल जाएंगे, लेकिन अभी हाल ही में खुलासा हुआ है कि यह दावा गंभीर वैज्ञानिक शोध पर आधारित न होकर न्यू साइंटिस्ट पत्रिका में छपे एक इंटरव्यू पर आधारित था। ग्लेशियर वैज्ञानिक सैयद इकबाल हसनैन का यह इंटरव्यू पत्रकार फ्रेड पीयर्स ने लिया था बाद में ये दोनों ही लोग अपनी बात से मुकर गए। अब सैयद हसनैन कह रहे हैं कि उनका दावा अनुमान भर था। इसी प्रकार पत्रकार फ्रेड पीयर्स का कहना है कि जब उन्होंने वैज्ञानिक हसनैन के दावे की पूरी रिपोर्ट देखी तो उसमें 2035 में ग्लेशियर खत्म होने जैसी कोई बात नहीं थी। यानी शुरू से ही हवा में तीर मारे जा रहे थे। हैरानी यह है कि आईपीसीसी ने भी इस मुद्दे पर स्वयं कोई शोध करना उचित नहीं समझा, बल्कि इस इंटरव्यू के दावों को ही अपने शोध के रूप में प्रस्तुत कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली।

आईपीसीसी की इस गंभीर भूल का खुलासा ओंटारियो स्थित टेंट यूनिवर्सिटी के भूगोल विज्ञानी ग्राहम कोगले के नेतत्व में कार्य कर रहे वैज्ञानिकों के एक दल ने किया और बताया कि आईपीसीसी का दावा न्यू साइंटिस्ट में छपी सामग्री पर आधारित है। हालाकि अब आईपीसीसी के अध्यक्ष आरके पचौरी आईपीसीसी की 2007 की रिपोर्ट में शामिल तथ्यों को मानवीय भूल करार दे रहे हैं। उनका कहना है कि आईपीसीसी सैकड़ों प्रख्यात वैज्ञानिकों का संगठन है जिन्हें विभिन्न देशों की सरकारों ने चयनित और नामित किया है। जलवायु परिवर्तन पर कई बड़ी समस्याएं हैं, उसे सिर्फ हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने तक सीमित नहीं किया जा सकता है। पैनल की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट ठोस रिपोर्ट थी, लेकिन हिमालय के ग्लेशियरों के बारे में दिया गया निष्कर्ष दुर्भाग्यपूर्ण है। आरके पचौरी का कहना है कि हम आईपीसीसी की रिपोर्ट के किसी भी लेखक के खिलाफ कार्रवाही नहीं करेंगे। उनके अनुसार आईपीसीसी पाचवींमूल्याकन रिपोर्ट पूरी करने जा रही है। भविष्य में इस बात का पूरा ध्यान रखा जाएगा कि इस प्रकार की गलती दोहराई न जाए। पचौरी को आशा है कि तार्किक लोगों का आईपीसीसी पर भरोसा बना रहेगा।

बहरहाल इस समय तो हकीकत यही है कि आईपीसीसी के साथ-साथ पर्यावरण पर काम करने वाली अन्य संस्थाओं पर भी जनता को बहुत अधिक भरोसा नहीं रह गया है। यही कारण है कि अब आईपीसीसी ने यह कहा है कि वह अपने इस दावे की फिर से समीक्षा करेगी जिसमें उसने कहा था कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से प्राकतिक आपदाएं तेजी से बढ़ती जा रही हैं। देश के एकमात्र ग्लेशियरलाजी सेंटर और वाडिया इंस्टीटयूट आफ हिमालयन स्टडीज ने हिमालय के तीन ग्लेशियरों पर हुए शोध के आधार पर कहा है कि कुछ ग्लेशियरों के पिघलने की प्रक्रिया जारी है, लेकिन ऐसा ग्लोबल वार्रि्मग के कारण नहीं, बल्कि स्थानीय मौसम में परिवर्तन के कारण हो रहा है। शोध के आधार पर पता चला है कि काराकोरम और सियाचिन जैसे ग्लेशियर बढ़ भी रहे हैं। इस संस्थान के अनुसार हिमालय के ग्लेशियरों का तापमान शून्य से 20-30 डिग्री सेल्सियस कम है, जबकि ग्लोबल वार्रि्मग के अंतरगत पिछले साठ वर्र्षो में तापमान में दशमलव आठ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। दरअसल आज हमने पर्यावरण और प्रदूषण पर बात करना एक फैशन बना लिया है। कुछ लोगों के लिए पर्यावरण जेबें भरने का साधन भी हैं। अब समय आ गया है कि हम सब खोखले आदर्शवाद से बाहर निकलकर पर्यावरण को बचाने के लिए गंभीर पहल करें।

[रोहित कौशिक: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

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