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पाकिस्तान के लिए सही राह

संपादकीय ब्लॉग
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पाकिस्तान के लिए पिछला वर्ष बहुत अधिक परेशानी वाला रहा। इस दौरान आतंकवादी हमलों में तीन हजार से अधिक लोग मारे गए। पाकिस्तान के समक्ष अब सवाल मौजूद है कि चीजों को दुरुस्त करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? निश्चित रूप से संकट की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाकिस्तान में आतंकवादी जो खतरा उत्पन्न कर रहे हैं उस पर अंकुश नहीं लगाया जा पा रहा है। पिछले वर्ष की समाप्ति पर इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट के एक सर्वेक्षण में यह सामने आया कि 86 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि मजहब की राजनीति में भूमिका होनी चाहिए। 1980 के दशक से ही पाकिस्तान में मजहब का मुद्दा लगातार जटिल होता रहा है। ऐसे लोगों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है जो इस मुद्दे पर खुलकर बोलने में समर्थ हैं या ऐसा करने की इच्छा रखते हैं। मजहबी विद्वान, जो तुलनात्मक रूप से उदारवादी नजरिया रखते हैं, भी खतरा महसूस कर रहे हैं। इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि कट्टरपंथी भावनाएं सरकारों की गलतियों का परिणाम हैं। सरकारें जिस तरह से लोगों की मूलभूत जरूरतों पर ध्यान देने में असफल रही हैं उसके चलते कट्टरता ने अपने पैर लोगों के बीच जमाए हैं। सरकारी क्षेत्र के स्कूलों के गिरते स्तर तथा शिक्षा पर अपेक्षित खर्च के अभाव के कारण मदरसों की संख्या अत्यधिक बढ़ी है और अब तो वे हर जगह नजर आने लगे हैं। लाहौर के कुछ इलाकों में भी ऐसी संस्थाएं स्थापित हो गई हैं। चूंकि मदरसे उनमें पढ़ने वाले छात्रों को खाना और छत भी उपलब्ध कराते हैं, इसलिए वे बड़े पैमाने पर लोगों को आकर्षित करने में समर्थ है। इन मदरसों से जो छात्र पढ़कर निकलते हैं उनके पास समाज के लिए जरूरी कौशल तो सीमित ही रहता है, लेकिन वे आतंकवादी संगठनों के लिए आदर्श सामग्री साबित होते हैं।

यदि कट्टरता का पाठ पढ़ा रहे मदरसों पर सही तरह लगाम लग सके तो आतंकवाद की जड़ों पर कारगर प्रहार किया जा सकता है। आज यह बड़ा असाधारण नजर आता है कि इन शैक्षिक संस्थानों से कभी वैज्ञानिक, लेखक, बुद्धिजीवी और अन्य क्षेत्रों में सफल सिद्ध होने वाले व्यक्ति निकलते थे। यह स्थिति कुछ दशकों पहले तक थी। हमें एक बार फिर सरकारी स्कूलों के ढांचे को पुनर्जीवित करना होगा और यह कार्य प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। वास्तव में हमें समानांतर शैक्षिक संस्थानों की स्थापना पर समय बर्बाद करने की जरूरत नहीं है। सरकारी स्कूलों के संदर्भ में यह सुझाव तभी संभव है जब एक प्रभावी शासन सत्ता की बागडोर संभाले हो। दुर्भाग्य से आज यह स्थिति नजर नहीं आती। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, सही शिक्षा का अभाव और निर्धनता का ही परिणाम है कि कट्टरपंथी विचार आसानी से लोगों के मन-मस्तिष्क में जगह बना रहे हैं। शासन को अपनी यह असफलता स्वीकार करनी होगी कि वह लोगों के लिए अवसरों की रचना नहीं कर पा रहा है। हमें अपने देश को बचाने के लिए उन स्थितियों का निराकरण करना होगा जो कट्टरता को खाद पानी उपलब्ध करा रही हैं। इस काम के लिए हमारे पास समय लगातार घटता जा रहा है। अवसर की खिड़की बंद होने के पहले हमें सुधार के उपाय करने ही होंगे। इससे असहमत नहीं हुआ जा सकता कि जनरल मुशर्रफ ने जिस उदारवाद को आगे बढ़ाया वह हमें कहीं नहीं ले गया। उनके शासनकाल ने यदि कुछ साबित किया है तो यही कि नीतियों को वास्तविकता के धरातल पर उतारना जरूरी है, तभी हम बदलाव का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। सरकारों पर लोगों ने जो गलत भरोसा किया उसने उग्रवाद को बढ़ावा ही दिया है। केवल व्यापक अर्थ और उद्देश्य वाली नीतियां ही स्थितियों में बुनियादी बदलाव ला सकती हैं। तात्पर्य यह है कि सरकार को शिक्षा और विकास जैसे उन क्षेत्रों की ओर धन का प्रवाह करना होगा जहां इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।

यह तब हो सकेगा जब सेना और संघीय शासन को मिलने वाले धन में कुछ कटौती की जाएगी। यह हैरत की बात है कि संघीय सरकार की ओर से प्रशासन और अपने सदस्यों के भत्तों पर भारी-भरकम धनराशि खर्च की जा रही है। यह जरूरी है कि पाकिस्तान के नीति-नियंता अपनी प्राथमिकताओं में आमूल-चूल परिवर्तन करें। इस पर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि कैबिनेट की एक बैठक में पचास लाख रुपये का खर्च आया। अपने संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल की जरूरत भारत के साथ संबंधों के मामले को भी सतह पर ला देती है। व्यवहारिक रूप से सत्य यह है कि सेना के बजट में कटौती तब संभव है जब भारत के साथ पाकिस्ता के रिश्ते सुधरें। भारत के साथ बेहतर संबंधों की दिशा में बढ़ने का एक अन्य कारण भी है। पूर्व के अपने पड़ोसियों के साथ संपर्क बढ़ाकर हम सांस्कृतिक मेल-मिलाप के नए अवसर भी उत्पन्न कर सकते हैं।

जिया उल हक के शासनकाल में यह धारणा उत्पन्न करने की कोशिश की गई कि पाकिस्तान का संबंध मध्य-पूर्व से है। खुद को अपनी सही जगह ले जाने की कोशिश हमें अपनी पहचान फिर से तलाशने का मौका भी देगी। भारत विश्व की महाशक्तियों के बीच स्थान बनाने के जिस तरह प्रयास कर रहा है उससे पाकिस्तान को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलनी चाहिए। यह जरूरी है कि नीतियों में परिवर्तन तेजी के साथ हो। आतंकवाद के उभार ने साधारण लोगों को जाने-अनजाने पाकिस्तानी सत्ता के विरोध में खड़ा कर दिया है। अब पाकिस्तान को नई दिशा की ओर बढ़ना ही होगा। पानी बहुत ऊपर आ गया है। लोगों की भलाई को अपना पहला उद्देश्य बनाकर ही पाकिस्तान की सत्ता अतीत की गलतियों को सुधारकर सुनहरे भविष्य की ओर कदम बढ़ा सकता है।

[कैमिला हयात: लेखिका द न्यूज, लाहौर की पूर्व संपादक हैं]

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