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बड़े बदलाव की बारी

संपादकीय ब्लॉग
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वित्त मंत्रालय का जिम्मा प्रधानमंत्री के संभालने के बाद आर्थिक मोर्चे में बड़े बदलाव की अपेक्षा कर रहे हैं संजय गुप्त

जैसी अपेक्षा की जा रही थी, राष्ट्रपति पद के लिए संप्रग की ओर से प्रत्याशी बनाए गए प्रणब मुखर्जी के वित्तमंत्री पद से त्यागपत्र देने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्रालय की कमान संभाल ली। उन्होंने तत्काल ही देश के आर्थिक हालात सुधारने के लिए सक्रियता भी आरंभ कर दी। वर्तमान में देश जिस कठिन आर्थिक दौर से गुजर रहा है उसके कई कारण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण आर्थिक मोर्चे पर संप्रग सरकार की निष्कि्रयता और निर्णयहीनता है। हालांकि प्रणब मुखर्जी की पार्टी और सरकार से विदाई के समय प्रधानमंत्री ने यह कहा भी कि उनकी कमी बहुत खलेगी, लेकिन वित्त मंत्रालय अपने अधीन आते ही मनमोहन सिंह ने जैसी सक्रियता दिखानी शुरू की है उससे तो यही प्रतीत होता है कि प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक कद के आगे शायद उनकी भी नहीं चलती थी। मनमोहन सिंह एक गैर-राजनीतिक परिवेश से आए हुए व्यक्ति हैं और उनकी ख्याति एक जाने-माने अर्थशास्त्री के रूप में रही है। 2004 के आम चुनाव के बाद सोनिया गांधी जब प्रधानमंत्री नहीं बनींतो उन्होंने विश्वसनीय और साफ-सुथरी छवि वाले मनमोहन सिंह को इस पद के लिए चुना। संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में ज्यादातर समय पी. चिदंबरम वित्तमंत्री थे, जिनके साथ मनमोहन सिंह का तालमेल सही था। मुंबई हमले के बाद जब चिदंबरम को गृह मंत्रालय भेजा गया तो थोड़े समय के लिए मनमोहन सिंह ने ही वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली थी।


संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी प्रणब मुखर्जी को मिली। उनके अनुभव और राजनीतिक कद को देखते हुए उन्हें न केवल चार दर्जन से अधिक मंत्रिसमूहों का अध्यक्ष बनाया गया, बल्कि हर तरह के राजनीतिक संकट से निपटने की जिम्मेदारी भी उनकी ही रहती थी। स्पष्ट है कि जो तमाम काम प्रधानमंत्री को करने चाहिए थे वे प्रणब मुखर्जी कर रहे थे। इसके चलते कहीं न कहीं प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक ओहदा प्रधानमंत्री से बड़ा समझा जाने लगा। वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने के बाद प्रधानमंत्री ने जिस तरह प्रणब मुखर्जी के अनेक फैसलों को बदलने के संकेत दिए हैं उससे अनेक सवाल खड़े होते हैं। सबसे पहला सवाल तो यही है कि यदि वित्तमंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी उचित फैसले नहीं ले रहे थे तो उस समय कैबिनेट और विशेष रूप से प्रधानमंत्री उन पर कोई दबाव क्यों नहीं डाल पाए? क्या प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक कद इतना बड़ा हो गया था कि प्रधानमंत्री के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की भी उनके समक्ष नहीं चलती थी? प्रत्येक मामले में हर किसी का नजरिया अलग होता है और वित्तमंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी ने भी अर्थव्यवस्था के संदर्भ में अपना एक अलग दृष्टिकोण अपनाया होगा, लेकिन ऐसी क्या मजबूरी थी कि कोई उन्हें यह नहीं समझा सका कि वह जो फैसले ले रहे हैं या नहीं ले रहे हैं वे आर्थिक मोर्चे पर देश की लुटिया डुबोने का काम करेंगे? अब प्रधानमंत्री न केवल उनके फैसलों की समीक्षा कर रहे हैं, बल्कि वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को यह निर्देश भी दे रहे हैं कि वे ऐसे उपाय करें जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर देश-दुनिया में जो नकारात्मक माहौल बन गया है उसे बदला जा सके। क्या ऐसी कोई नसीहत प्रणब मुखर्जी को नहीं दी जा सकती थी? इससे अधिक आश्चर्यजनक और क्या होगा कि एक कुशल अर्थशास्त्री होने के बावजूद मनमोहन सिंह न तो प्रणब मुखर्जी को सही सुझाव दे सके और न ही प्रणब मुखर्जी ने उनसे सुझाव लेने की जरूरत समझी।


प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक कौशल पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। उन्हें न केवल लंबा संसदीय अनुभव है, बल्कि अपनी बेदाग छवि के कारण वह विरोधी राजनीतिक दलों के बीच भी सराहे जाते हैं। चार दशक से अधिक लंबे अपने राजनीतिक कॅरियर में विभिन्न मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभालते हुए उन्होंने अनेक उल्लेखनीय कार्य भी किए हैं। 1983 में यूरो मनी मैगजीन ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ वित्तमंत्री के खिताब से भी नवाजा था। उनकी राजनीतिक दक्षता के बावजूद यह तो स्पष्ट हो ही रहा है कि संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में शीर्ष मंत्रियों के बीच समन्वय का अभाव है और तालमेल का यह अभाव समस्याएं बढ़ाने का काम कर रहा है। आर्थिक मोर्चे पर केंद्र सरकार जिस तरह नीतिगत अपंगता का शिकार हुई उससे इसकी भी नए सिरे से पुष्टि होती है कि मनमोहन सिंह की अपनी राजनीतिक सीमाएं हैं और स्वास्थ्य संबंधी कारणों से सोनिया गांधी की सक्रियता कम होने के कारण उन्हें वह शक्ति और सहयोग नहीं मिल पा रहा है जिससे वह अपनी कैबिनेट के शक्तिशाली मंत्रियों का प्रभावशाली ढंग से नेतृत्व कर सकें। अब यह देखने की आवश्यकता है कि क्या प्रणब मुखर्जी जैसे अन्य मंत्री भी हैं जो प्रधानमंत्री के मार्गनिर्देशन में चलने के स्थान पर अपनी मनमर्जी से काम कर रहे हैं? खुद प्रधानमंत्री के लिए यह एक अवसर है कि प्रणब मुखर्जी की मंत्रिमंडल से विदाई के बाद सरकार में अपना रुतबा कायम करें, क्योंकि उनके संदर्भ में अक्सर यह सवाल उठता रहा है कि गैर-राजनीतिक होने के कारण वह शक्तिहीन हैं।


संप्रग सरकार के गठन के बाद से ही देश में यह धारणा रही है कि उनकी असली शक्ति 10, जनपथ में निहित है। संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में यह शक्ति समीकरण सही तरह चलता रहा, लेकिन इस बार स्थितियां भिन्न हैं। इसका एक कारण सोनिया गांधी की सक्रियता कम होना तो है ही, राहुल गांधी का सरकार में अपनी भूमिका बढ़ाने के प्रति अनिच्छुक होना भी है। देश के समक्ष इस समय जो चुनौतियां हैं वे अत्यधिक गंभीर हैं। सच्चाई यह भी है कि प्रणब मुखर्जी के हटने के बाद सरकार में एक बड़ी राजनीतिक शून्यता आ जाएगी, लेकिन अगर उनके हटने से प्रधानमंत्री को अपनी नेतृत्वक्षमता और दूरदर्शिता प्रदर्शित करने का मौका मिलता है तो उन्हें राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार बनाने का फैसला बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण माना जाएगा। शायद प्रणब मुखर्जी को भी इसका अहसास हो चुका था कि अलग-अलग दृष्टिकोण के कारण सरकार का काम प्रभावित हो रहा है और इसीलिए उन्होंने राष्ट्रपति भवन जाने की राह चुन ली। अब उनकी विदाई के बाद प्रधानमंत्री के लिए अर्थव्यवस्था से संबंधित बड़े फैसले लेने की राह खुल गई है। वित्त मंत्रालय का भार संभालने के बाद जिस तरह बिना किसी देरी के मनमोहन सिंह ने बैठकों का दौर शुरू किया उससे फिलहाल तो यह उम्मीद जगी है कि वह आर्थिक हालात को पटरी पर लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन यह ध्यान रहे कि यह सक्रियता अभी केवल बैठकों तक सीमित है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या मनमोहन सिंह आर्थिक मामलों में अपनी राय कैबिनेट में मजबूती से रख सकेंगे या फिर उनकी राजनीतिक कमजोरी फिर उनके आड़े आ जाएगी?


संजय गुप्त हैं

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