Menu
blogid : 133 postid : 46

बढ़ती कीमतों का बोझ

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

पिछले लगभग छह माह से खाद्य पदार्थो की कीमतें जिस तेजी से बढ़ी हैं उससे आम आदमी ही नहीं, बल्कि मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग की भी कमर टूटने लगी है। यह आश्चर्यजनक है कि केंद्र सरकार में अनेक अर्थशास्त्रियों की मौजूदगी के बावजूद खाद्य पदार्थाे की कीमतें आसमान छू रही हैं। यदि लगभग एक वर्ष में ही अनेक खाद्य पदार्थो की कीमतें दो गुनी हो गई हैं तो केंद्र सरकार की नीतियों पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। चीनी, दालें और सब्जियां जिस तरह आम आदमी की पहुंच से दूर होती जा रही हैं उससे तो लगता है कि केंद्र सरकार का खाद्य पदार्थो की कीमतों पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। यह विचित्र है कि केंद्रीय सत्ता की ओर से कुछ ऐसा संदेश देने की कोशिश की जा रही है जैसे महंगाई के लिए राज्य सरकारें उत्तरदायी हैं। इस पर आश्चर्य नहीं कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों ने महंगाई के संदर्भ में केंद्र के दावों को खारिज करने और उसकी नीतियों पर सवाल खड़े करने में देर नहीं लगाई।

जरूरी वस्तुओं की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि के बाद केंद्र सरकार ने कुछ सक्रियता प्रदर्शित करने की कोशिश की, लेकिन फिलहाल उसके पास महंगाई पर नियंत्रण का कोई कारगर हथियार नजर नहीं आता। स्थिति इसलिए और अधिक चिंताजनक नजर आ रही है, क्योंकि पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में वृद्धि की चर्चाएं शुरू हो गई है। वैसे तो बढ़ती महंगाई के लिए पूरी केंद्र सरकार आलोचनाओं के घेरे में है, लेकिन सबसे अधिक आलोचना कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार की हो रही है। पिछले दिनों जब खाद्य पदार्थो की मूल्यों में वृद्धि के बारे में उनसे पूछा गया तो पहले तो उन्होंने यह समझाने की कोशिश की कि उत्पादकता घटने और आपूर्ति में कठिनाइयां उत्पन्न होने के कारण कीमतें बढ़ रही हैं, लेकिन जब उनसे चीनी के मूल्यों में वृद्धि की संभावनाओं के बारे में सीधा सवाल किया गया तो उनका उत्तर था-मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं जो चीनी की कीमतों पर भविष्यवाणी कर सकूं। उनके इस प्रकार के रवैये पर विपक्ष का आक्रामक रुख अपनाना स्वाभाविक ही है। सच तो यह है कि यदि पवार के इस बयान पर विपक्ष ने हायतौबा नहीं मचायी होती तो केंद्र सरकार संभवत: यह जरूरत ही नहीं महसूस करती कि बढ़ती कीमतों पर कैबिनेट की बैठक बुलाई जाए। कैबिनेट की बैठक में शरद पवार अपने ही सहयोगियों के निशाने पर रहे। इससे अधिक निराशाजनक और क्या होगा कि केंद्र सरकार ने महंगाई पर सर्वदलीय बैठक बुलाने अथवा मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय तब लिया जब खाद्य पदार्थाें के मूल्य आसमान पर पहुंच गए। इस सवाल का उत्तर केंद्र सरकार के नीति नियंता ही दे सकते हैं कि महंगाई पर हल्की-फुल्की सक्रियता दिखाने में भी छह-आठ माह क्यों लग गए?

यह सही है कि बढ़ते हुए मूल्यों के लिए किसी एक कारण को रेखांकित नहीं किया जा सकता, लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि केंद्र सरकार महंगाई के संदर्भ में किसी भी मोर्चे पर सजगता नहीं दिखा सकी। विशेषकर कृषि के क्षेत्र में वर्षो की गलत नीतियों ने उत्पादकता पर बहुत प्रतिकूल असर डाला है। एक ओर उत्पादकता या तो घट रही है या फिर स्थिर है और दूसरी ओर मंडियों तक अनाज और अन्य खाद्य पदार्र्थो के पहुंचने की जटिल प्रणाली मुनाफाखोरी को बढ़ावा देने वाली है। इसका ही परिणाम है कि खाद्य पदार्थ उपभोक्ताओं को ऊंची कीमतों पर मिल रहे हैं, जबकि किसानों से उनकी खरीद औने-पौने दामों पर की जाती है। महंगाई का एक अन्य प्रमुख कारण कुछ आढ़तियों द्वारा की जानेवाली जमाखोरी भी है। जब तक इन कारणों का समाधान नहीं किया जाता और उत्पादन, आपूर्ति तथा वितरण से संबंधित मजबूत व्यवस्था नए सिरे से नहीं की जाती तब तक न तो मुनाफाखोरी और जमाखोरी पर अंकुश लगेगा और न ही महंगाई से त्रस्त उपभोक्ताओं को राहत मिलेगी। इसके लिए केंद्र सरकार, विशेषकर कृषि मंत्रालय को नीतिगत सुधार के लिए आगे आना होगा। जहां तक चीनी के बढ़ते हुए मूल्यों का प्रश्न है तो स्पष्ट था कि इस बार गन्ने की खेती का क्षेत्रफल घटा है और इसीलिए केंद्र सरकार ने कच्ची चीनी के आयात का भी निर्णय लिया, लेकिन इसका लाभ इसलिए नहीं मिल पाया, क्योंकि आयातित चीनी समय पर मिलों तक नहीं पहुंच सकी। इसी बीच किसानों की गन्ने की फसल भी तैयार हो गई और एक बहुत बड़े हिस्से में गन्ने के समर्थन मूल्य के विरोध में किसान आंदोलनरत हो गए। निश्चित रूप से आयातित चीनी के मामले में केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल का जो अभाव रहा उसके चलते चीनी के दाम कम होने के बजाय बढ़ गए। आयातित चीनी अभी भी बंदरगाहों पर पड़ी हुई है और यदि समय रहते इसका इस्तेमाल नहीं हुआ तो यह बर्बाद हो सकती है।

चीनी के बढ़ते मूल्यों के संदर्भ में शरद पवार का कठघरे में होना आश्चर्यजनक नहीं। पवार चीनी उद्योग से भलीभांति परिचित हैं, लेकिन वह चीनी की कीमतों को नियंत्रण में लाने के न्यूनतम उपाय भी करते नजर नहीं आते। न तो आयात-निर्यात की नीतियों के स्तर पर कोई प्रभावशाली पहल की गई और न ही उत्पादकता और खपत की संभावनाओं का सही तरह आकलन किया जा सका। चीनी के दाम असाधारण रूप से बढ़ने के पीछे किसी घोटाले की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

खाद्य पदार्थो की बढ़ती कीमतों के मामले में जितनी आश्चर्यजनक केंद्र सरकार की निष्क्रियता है उतना ही चौंकाने वाला यह भी है कि विपक्षी दलों की महंगाई के मुद्दे पर नींद नहीं टूट रही है। यह सही है कि मुख्य विपक्षी दल भाजपा इस समय बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह महंगाई सरीखे आम जनता को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले मुद्दे पर मुंह मोड़ ले। भाजपा यदि चाहती तो बढ़ती कीमतों के मामले में खुद को आम जनता की कठिनाइयों से जोड़ सकती थी, लेकिन उसने न तो संसद में सरकार की असफलता को रेखांकित करने की कोशिश की और न ही सड़कों पर आम जनता के साथ खड़ी हो सकी। महंगाई के मामले में भाजपा सरीखा हाल अन्य विपक्षी दलों का भी है। एक समय था जब आम आदमी पर कीमतों का कुछ अधिक बोझ पड़ते ही विपक्षी दल सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं उठा रखते थे, लेकिन वर्तमान समय वे कोरी बयानबाजी से अधिक कुछ नहीं कर पा रहे हैं।

महंगाई के संदर्भ में मौजूदा समय यह भी नहींकहा जा सकता कि इसका असर केवल बड़े शहरों में अधिक है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में भी जरूरी वस्तुओं की कीमतें बढ़ती ही जा रही हैं। इसका अर्थ है कि वह तंत्र शहरों से लेकर गांवों तक सक्रिय है जो मुनाफाखोरी में लिप्त है और उसकी निगरानी नहीं हो पा रही है। अपने देश में लगभग सभी आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतें इसलिए और अधिक चौंकाने वाली हैं, क्योंकि अब पूरे विश्व में आर्थिक मंदी का असर काफी कुछ समाप्त हो चुका है। चूंकि अन्य देशों में खाद्य पदार्थो की कीमतों में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में मूल्य वृद्धि का कारण अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कीमतों का बढ़ना है। अब यह स्पष्ट है कि कृषि एवं खाद्य मंत्रालय के कामकाज में बुनियादी खामी है और इसका फायदा मुनाफाखोरी में लिप्त चंद लोग उठा रहे हैं। मंदी के समय उद्योगों की सहायता के लिए केंद्र सरकार ने जो रियायतें दी थीं उन्हें अब वापस लेने का समय आ रहा है। इसका सीधा असर ब्याज और करों की दरों पर पड़ेगा। इसके चलते महंगाई की दर और अधिक तेज हो सकती है। निराशाजनक यह है कि गठबंधन राजनीति के दबाव के चलते शरद पवार पर प्रधानमंत्री का जोर नहीं चल पा रहा है। संप्रग सरकार इस पर संतोष नहीं कर सकती कि उद्योग जगत मंदी से उबरकर पटरी पर वापस आ रहा है, क्योंकि खाद्य पदार्थो के मूल्य जिस तेजी से बढ़ रहे हैं उससे अर्थव्यवस्था को धक्का लग सकता है।

[महंगाई को कृषि के क्षेत्र में वर्र्षो की गलत नीतियों का परिणाम मान रहे हैं संजय गुप्त]

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh