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बयानों की राजनीति

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakurजनसंघर्ष के बजाय सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की प्रवृत्ति आम जनता, देश और स्वयं राजनीति के लिए कितनी खतरनाक हो सकती है, इसका ताजा उदाहरण है महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) नेता राज ठाकरे का बयान। बिहार सरकार के मुख्य सचिव नवीन कुमार की जिस बात से राज ठाकरे आगबबूले हुए और जिस पर उन्होंने मुंबई में बिहार के लोगों को घुसपैठिया घोषित करने और हिंदी चैनलों को बंद करने जैसी बात कह डाली, वह कोई संविधान या कानून के दायरे से बाहर की बात नहीं थी। लेकिन राज ने जो बात कही है वह उन्हें मुंबई में थोड़े दिनों के लिए सस्ती लोकप्रियता भले दिला दे, पर वास्तव में भारत के संविधान की मूल भावना का अपमान है। इस बात से भारत के संविधान और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति उनकी अज्ञानता ही नहीं पता नहीं चलती, यह भी जाहिर होता है कि देश के संविधान और उसके द्वारा दी गई व्यवस्था में न तो उनका कोई विश्वास है और न ही इसके प्रति उनके मन में कोई सम्मान है। ऐसे लोगों को देश में राजनीति करने और विधायिका में पहुंचने की छूट मिलती है तो निश्चित रूप से यह राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए खतरनाक है। यह सोचने की बात है कि अगर ऐसे लोगों को विधि निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर मिला तो क्या होगा? इस पूरे विवाद की जड़ में केवल एक युवक की गिरफ्तारी है। उस पर आरोप है कि उसने मुंबई में आजाद मैदान में हुए विरोध प्रदर्शन के दौरान राष्ट्रीय स्मारक का अपमान किया था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जिस व्यक्ति पर इस प्रकार का आरोप है, उसे गिरफ्तार किया जाना कोई गलत बात नहीं है। यह आरोप सही है या गलत, यह बात बाद में तय होगी। यह तय करना किसी राजनीतिक पार्टी, सरकार या पुलिस का काम भी नहीं है। इस मसले पर निर्णय करना न्यायपालिका के हाथ में है।


न्यायपालिका अपना कार्य देश के संविधान और कानूनों के अंतर्गत उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ही करती है, लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उसकी गिरफ्तारी तो होनी ही चाहिए। इस बात से न तो बिहार की पुलिस इन्कार कर सकती है और न शासन-प्रशासन। वस्तुत: बिहार के मुख्य सचिव आरोपी युवक को गिरफ्तार किए जाने का विरोध भी नहीं कर रहे हैं। वे केवल इस मामले में सही प्रक्रिया न अपनाए जाने के खिलाफ हैं। कायदे से होना यही चाहिए कि अगर एक राज्य की पुलिस किसी दूसरे राज्य में जाकर किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है तो वह अपनी कार्रवाई को अंजाम देने से पहले संबंधित राज्य की पुलिस को इस बारे में सूचना दे। हमारे संविधान निर्माताओं ने अगर यह व्यवस्था दी है तो बिना सोचे-समझे तो दी नहीं होगी। इसके पीछे उनकी व्यापक सोच रही होगी। जिस तरह महाराष्ट्र पुलिस ने बिहार पुलिस को सूचना दिए बगैर वहां से आरोपी युवक को गिरफ्तार किया, क्या ऐसा ही वह किसी दूसरे देश में कर सकती थी? किसी दूसरे देश में मौजूद व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए भारत के किसी भी प्राधिकारी को इंटरपोल की मदद लेनी होती है। क्या यह व्यवस्था बिना सोचे-समझे बनाई गई है? एक से दूसरे राज्य के बीच यह व्यवस्था देने के पीछे भी कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि हमारी व्यवस्था अपने मूल रूप में संघीय है।


इस संघीय स्वरूप को तभी बनाए रखा जा सकता है जब सभी राज्य एक-दूसरे की व्यवस्था का सम्मान करते हों। इस सम्मान की बुनियादी शर्त यह है कि हम किसी से पूछे बगैर उसके राज्य में ऐसी किसी कार्रवाई को अंजाम न दें। अगर सही तरीके से बिहार पुलिस को इसकी सूचना दी गई होती तो निश्चित रूप से महाराष्ट्र पुलिस के लिए यह काम और आसान हो गया होता। संभव है कि आरोपी के साथ-साथ उससे जुड़े अन्य लोगों के बारे में भी कुछ जानकारी मिल गई होती और मामले की तह तक पहुंचने में महाराष्ट्र पुलिस को और आसानी हो जाती। बिहार पुलिस को सूचना न देकर वास्तव में महाराष्ट्र पुलिस ने न केवल बिहार की शासन व्यवस्था को अपमानित किया, बल्कि स्वयं अपना काम भी कठिन बनाया है। इसके बावजूद बिहार के मुख्य सचिव ने इसके लिए राज ठाकरे की तरह महाराष्ट्र की सरकार या पुलिस के खिलाफ कोई भड़काऊ बयान नहीं दिया। उन्होंने अपने पत्र में केवल इतना ही कहा है कि अगर मुंबई क्राइम ब्रांच बिहार पुलिस की जानकारी के बिना राज्य से किसी व्यक्ति को उठाती है तो उसे कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा। क्या किसी के गैर कानूनी कार्य करने पर उससे कानूनी कार्रवाई की बात करना कोई गुनाह है? यही नहीं, सवाल यह भी उठता है कि इसमें राज ठाकरे या उनकी पार्टी या फिर मुंबई अथवा महाराष्ट्र की आम जनता कहीं से कोई पक्ष नहीं है। बिहार के मुख्य सचिव ने यह बात कही है मुंबई क्राइम ब्रांच के लिए। क्या मुंबई क्राइम ब्रांच को राज ठाकरे ने अपनी पार्टी समझ रखा है? या राज ठाकरे मुंबई क्राइम ब्रांच के प्रमुख हैं? या फिर वह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री या मुख्य सचिव हैं? आखिर किस हैसियत से वे इस मामले में बोल रहे हैं? राज ठाकरे इसमें से कुछ भी हुए बगैर अगर इतना बोल पा रहे हैं तो वह भी संविधान द्वारा दी गई एक सुविधा के ही कारण।


संविधान ही हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन यह स्वतंत्रता वह हमें इसलिए नहीं देता कि हम संविधान का अपमान करें। राज ठाकरे के साथ दुर्भाग्य यह है कि उन्हें कुछ भी बोलने के पहले यह सोचने की जरूरत महसूस नहीं होती कि जो कुछ वह बोल रहे हैं, वह संविधान के दायरे में आता है या नहीं। सच तो यह है कि राज ठाकरे की पूरी राजनीति ही इसी बात पर टिकी हुई है। इसके पहले वह मुंबई से सभी उत्तर भारतीयों को बाहर करने की बात कर चुके हैं। यहां तक कि उन पर अपने गुंडों से हमले भी करवा चुके हैं। अब वे बिहार के लोगों को घुसपैठिया घोषित करने की बात कर रहे हैं। कल वे ऐसे ही कुछ और बिना सिर-पैर की बात करेंगे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज को सिरफिरा कहा है तो राजद के सांसद रामकृपाल यादव ने देशद्रोही घोषित करने की मांग की है। जदयू के शिवानंद तिवारी और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने भी इसका कड़ा विरोध किया है। इन सभी नेताओं द्वारा विरोध जताए जाने के पीछे ठोस आधार हैं। सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए उन्होंने लगातार देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुंचाने वाली बातें की हैं। अगर ऐसे लोगों पर रोक न लगाई गई तो वाकई ये देश की अखंडता के लिए खतरे साबित होंगे। अब जरूरत इस बात की है कि नेताओं के बयानों की सीमाएं तय करने के लिए कानून बनाया जाए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि कोई कुछ भी बोलता रहे और देश उसका परिणाम भुगतने के लिए मजबूर बना रहे।


निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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