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बेबस बच्चों से बेरुखी

संपादकीय ब्लॉग
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हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बाल श्रम और वेश्यावृत्ति के मुद्दे पर सरकार और मीडिया को फटकार लगाई। अदालत ने कहा कि बच्चों के शोषण के मुद्दे को उठाने में कोताही बरती जाती है। यह टिप्पणी बच्चों के प्रति समाज की असंवेदनशीलता को उद्घाटित करती है। वे बच्चे जो देश का भविष्य है उनके अधिकारों के प्रति किसी भी प्रकार की अवहेलना अपराध है। ऐसा नहीं है कि बच्चों के समुचित विकास और शोषण को रोकने हेतु कानून नहीं है, लेकिन ये कानून सिर्फ कागजों पर ही सीमित है। बाल श्रम और बाल वेश्यावृत्ति ये दो ऐसे मुद्दे है जो अपनी विकरालता कायम रखते हुए बढ़ते जा रहे है। यह सही है कि पिछले कुछ वर्षो में सरकारी एजेंसियों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से बाल श्रमिकों को मुक्त कराया गया है पर इसका यह मतलब नहीं कि इतने मात्र से क‌र्त्तव्यों से इतिश्री कर ली जाए और कोई यह जानने की जरूरत न महसूस करे कि ऐसे बच्चे कहा जाएंगे और उनका जीविकोपार्जन कैसे होगा? कुछ समय पूर्व राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के सदस्य वीएस पटेल ने देश से बालश्रम प्रथा समाप्त करने के लिए इससे जुड़े अधिकारियों और स्वयं सेवी संस्थाओं से कारगर प्रयास करने का आह्वान किया था, किंतु यह आह्वान भविष्य में बाल श्रमिकों का जीवन किस दिशा की ओर ले जाएगा? यह प्रश्न जितना महत्वपूर्ण है उतनी ही असंवेदनशीलता बाल श्रमिकों के साथ जुड़ी हुई है।

भारत बाल अधिकारों से जुड़ी लगभग सभी अंतरराष्ट्रीय संधियों का हस्ताक्षरकर्ता होने के बावजूद बाल श्रमिकों का गढ़ बन चुका है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 14 वर्ष तक की आयु के सीमांत बाल श्रमिकों की संख्या 1991 में 2203208 थी, जो 2001 में 207.10 प्रतिशत की बढ़ोतरी के साथ 6987386 हो गई। बाल अधिकारों से जुड़ी संस्था चाइल्डं राईट्स एंड यू ने अपनी रिपोर्ट में भारत में दुनियाभर में सर्वाधिक बाल श्रमिकों का हवाला देते हुए सरकार से बाल श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून को कठोर बनाने की अपील की है। केंद्र सरकार ने 2006 में कानून पारित कर 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को ‘घरेलू बाल श्रमिकों’ के रूप में कार्य लेने पर रोक लगा दी, लेकिन क्या वाकई इस कानून से कोई भयभीत है? यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां कानून का मखौल उड़ाना मौलिक कर्तव्य समझा जाता है और जब बात बाल श्रमिकों की हो तो स्थिति और भी बदतर हो जाती है। बाल श्रमिकों की भावनात्मक एवं आर्थिक विवशताएं इतनी गहरी है कि उनके लिए अपनी आजीविका ठुकराना तब तक मुश्किल है जब तक उनके साथ-साथ उनके परिवार के सहयोग के लिए रास्ते न खोजे जाएं। आर्थिक विवशताएं जहा मासूमों को बाल श्रम की ओर धकेल रही है वहीं दूसरी ओर चाहे-अनचाहे वे देह-व्यापार की गिरफ्त में भी आ रहे है। एक संस्था-‘इस्पट’ का आकलन है कि प्रतिवर्ष करीब 10 लाख बच्चे यौन व्यापार में धकेल दिए जाते है। इनमें मुख्यत: कम उम्र की लड़किया होती है। भारत के संदर्भ में एक अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत व्यापारिक रूप से यौन शोषण तथा जबरन श्रम के उद्देश्य से बच्चों की तस्करी का स्रोत, पारगमन एवं गंतव्य तीनों है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग हर वर्ष एक्शन रिसर्च ऑन ट्रै्रफिकिंग इन वीमन एंड चिल्ड्रन रिपोर्ट जारी करता है जिसमें कहा जाता है कि जिन बच्चों का पता नहीं लगता, वास्तव में वे लापता नहीं होते बल्कि उनका अवैध व्यापार किया जाता है। इनमें से एक बड़ी संख्या को यौन पर्यटन के कारोबार में धकेल दिया जाता है। पिछले कुछ वर्षो में तमिलनाडु, नागालैंड तथा अरुणाचल में गायब होने वाले बच्चों का प्रतिशत 100 से बढ़कर 211 हो चुका है। विभिन्न शोधों से यह साफ है कि देश में बच्चों के प्रति इस असंवेदनशीलता का कारण सिर्फ गरीबी, अशिक्षा और रोजगार का अभाव ही नहीं, अपितु इसके साथ-साथ प्रशासन का लचर होना तथा कानून के पहरेदारों की सुप्त अवस्था भी जिम्मेदार है। बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए आवश्यकता है उनके सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास की। इसके साथ ही मीडिया की पूर्ण सहभागिता भी चाहिए। कलम के सिपाहियों की ताकत समाज की दशा और दिशा का निर्धारण कर सकती है। रुचिका गिरहोत्रा के परिजनों को न्याय दिलाने में मीडिया की अहमं् भूमिका को कोई नकार नहीं सकता। अगर मीडिया देश के कर्णधारों के भविष्य को सुरक्षित करने का दायित्व ले ले तो प्रशासन को जगना ही होगा।

[बाल शोषण की बढ़ती प्रवृत्ति पर डा. ऋतु सारस्वत के विचार]

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