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आखिर जिसका अंदेशा था वह सामने आ गया। इस बरस ने जाते जाते पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। तमाम उम्मीदों और डाक्टरों की कोशिश के बावजूद दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म का शिकार बहादुर युवती को बचाया नहीं जा सका। पूरे देश को विचलित करने वाली इस खबर के बाद हमारे नेताओं को यह सूझ नहीं रहा कि वे उस जनता के रोष-आक्रोश का सामना कैसे करें जो बिना किसी नेतृत्व के सड़क पर उतर आई है। नेतागण यह जानते हैं कि उनकी उन घोषणाओं से जनता में ढांढस नहीं बंध रहा जो महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने और दुष्कर्म संबंधी कानून कड़े करने के संदर्भ में उनकी ओर से की जा रही हैं। इस पर गौर करें कि नेताओं ने आम जनता को शांत और नियंत्रित करने के लिए पुलिस को ही आगे किया है। आखिर पुलिस यह काम कैसे कर सकती है? दुष्कर्मियों ने जो हाल इस युवती का किया उसकी कल्पना मात्र दहलाने वाली है। यह युवती जैसे वहशीपन का शिकार बनी उसके चलते उन सबका गुस्सा फूट पड़ा जो इस निकृष्टतम अपराध पर मौन रहते थे या कुछ कहने का साहस नहीं कर पाते थे।
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अब यह कहा जा रहा है कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए पुलिस और कानून में सुधार के लिए जो कुछ आवश्यक है वह सब किया जाएगा, लेकिन सत्ता में बैठे लोगों की कथनी-करनी में बहुत अंतर होता है और शायद यही कारण है कि जनता को उनके वायदों पर भरोसा नहीं हो रहा। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि दुष्कर्म की जितनी घटनाएं सामने आ जाती हैं उससे कई गुना घटनाओं पर सिर्फ इसलिए पर्दा पड़ा रहता है, क्योंकि लोकलाज के भय से उनका खुलासा नहीं किया जाता। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि दुष्कर्म संबंधी कानून इतने कमजोर हैं कि महिलाओं को यह विश्वास ही नहीं रहा कि अगर वे अपने साथ हुई ज्यादती की शिकायत लेकर पुलिस के पास जाएंगी तो उन्हें वास्तव में न्याय मिल सकेगा। ऐसे मामलों की जांच के लिए पुलिस की ओर से जो तरीका अपनाया जाता है वह पीडि़त महिला को उत्पीडि़त करने वाला ही होता है। पहले वे पुलिस के रवैये से शर्मसार होती हैं और फिर थका देने वाली कानूनी प्रक्रिया से। दिल्ली की घटना पर देशव्यापी आक्रोश के बाद सरकार ने दुष्कर्म से संबंधित कानून में संशोधन के लिए एक समिति गठित कर दी है, जो एक माह में अपनी सिफारिशें देगी।
उसने इस घटना की जांच के लिए एक आयोग भी गठित किया है। आखिर इसके पहले इस तरह के आयोग-समिति के गठन के बारे में क्यों नहीं सोचा गया? यह वर्षो से सुलग रहे आक्रोश का ही नतीजा था कि दिल्ली की घटना के खिलाफ एक तरह से पूरा देश सड़कों पर उतर आया। हमारे नीति-नियंता दुष्कर्म के मामलों में पुलिस और कानून की ढिलाई से अच्छी तरह अवगत थे, लेकिन हमेशा की तरह उन्होंने तब सक्रियता प्रदर्शित की जब उन्हें अपनी कुर्सी हिलती नजर आने लगी। लोगों को शांत करने के लिए केंद्र सरकार की ओर से अब तक जो भी आश्वासन दिए गए हैं वे कोरी बयानबाजी ही अधिक नजर आते हैं। पहले राष्ट्र के नाम संदेश और फिर राष्ट्रीय विकास परिषद में प्रधानमंत्री ने महिलाओं की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात की, लेकिन यदि दिल्ली में दिल दहला देने वाली घटना नहीं हुई होती तो क्या सरकार का ध्यान इस ओर जाता कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है? सवाल यह भी है कि आम लोगों और विशेष रूप से महिलाओं की सुरक्षा के लिए सत्ता प्रतिष्ठान अब तक क्यों नहीं चेता? आखिर केंद्र और राज्य सरकारों को पुलिस सुधारों से किसने रोक रखा है? सब जानते हैं कि पुलिस सुधारों पर इसीलिए अमल नहीं हो रहा, क्योंकि कोई भी राज्य पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल का मोह छोड़ने के लिए तैयार नहीं। इससे अधिक निराशाजनक और क्या होगा कि एक ओर आम लोगों के लिए सुरक्षा का माहौल दिन-प्रतिदिन खराब होता जा रहा है और दूसरी ओर पुलिसकर्मियों का एक अच्छा-खासा भाग वीआइपी सुरक्षा में लगा हुआ है। अगर राजनीतिक वर्ग अभी भी पुलिस के तौर-तरीकों, विशेषकर उसकी कार्यप्रणाली में सुधार के लिए आगे नहीं आता तो सुरक्षा के ढांचे में सुधार के जो आश्वासन दिए जा रहे हैं वे खोखले ही सिद्ध होंगे। करीब-करीब सभी राज्यों में पुलिस आवश्यक संख्या बल के अभाव का सामना कर रही है, लेकिन यह कहीं से भी नजर नहीं आ रहा कि हमारे नीति-नियंता इस अभाव को दूर करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने जा रहे हैं।
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केंद्रीय सत्ता और राज्य सरकारें इससे अनजान नहीं हो सकतीं कि अगर सुरक्षा के मोर्चे पर लापरवाही का परिचय दिया जाएगा तो इसका असर विकास की प्रक्रिया पर पड़ना तय है। विकास के लिए यह आवश्यक है कि कानून एवं व्यवस्था चाक-चौबंद हो और आम जनता वास्तव में सुरक्षा का अहसास करे। हर कोई इससे परिचित है कि जोर-जबरदस्ती का शिकार होने वाली महिलाएं किस त्रासदी से गुजरती हैं। पीडि़त महिला का जीवन तो नरक बन ही जाता है, उसके परिजनों को भी असहनीय पीड़ा झेलनी पड़ती है। समस्या इसलिए और अधिक गंभीर होती जा रही है, क्योंकि आधुनिकता के नाम पर समाज में नैतिक मूल्यों का पतन होता जा रहा है। संस्कारों और नैतिक मूल्यों में आ रही गिरावट को रोकने के लिए समाज के स्तर पर भी कोई पहल होती नजर नहीं आती। निश्चित रूप से देश को दिशा देने का दायित्व राजनीतिक वर्ग पर है, लेकिन इस मामले में समाज भी अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकता। दुर्भाग्य से हमारा शैक्षिक ढांचा भी इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है। महिलाएं सदियों से पुरुषों के उत्पीड़न का शिकार होती रही हैं। ऐसे मनचलों की कमी नहीं जो महिलाओं को मनोरंजन का साधन मानते हैं। चिंताजनक यह है कि यह प्रवृत्ति निरंतर बढ़ रही है। इसके पीछे महिलाओं को मनोरंजन की वस्तु मानने की सोच जिम्मेदार है। इस सोच के कारण ही विश्व भर में महिलाएं अपने को असुरक्षित महसूस करने लगी हैं।
भारत में वे पुलिस और कानून की नाकामी के कारण अति असुरक्षित होती जा रही हैं। साफ है कि पुलिस और कानून के साथ-साथ हमारे सामाजिक ताने-बाने में भी किसी बड़ी खामी ने घर कर लिया है। महिलाओं के साथ-साथ बच्चों के सामने आज असुरक्षा की जो स्थिति उत्पन्न हो गई है वह केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या नहीं है। पुलिस एवं कानूनी उपाय उन तत्वों के मन में भय तो उत्पन्न कर सकते हैं जो महिलाओं के मान-सम्मान के लिए खतरा बनते हैं, लेकिन समाज की सोच बदलने का काम नहीं कर सकते। पिछले कुछ समय से देखने में आ रहा है कि जब भी महिलाओं के उत्पीड़न की कोई बड़ी घटना घटती है तो कुछ राजनेताओं की ओर से महिलाओं को ही नसीहत देने वाले बयान दिए जाने लगते हैं, विशेषकर उनके परिधान, रहन-सहन और जीवन शैली को लेकर। किसी भी सभ्य समाज में इस तरह के विचारों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। महिलाओं को यह अधिकार है कि वे जैसे जीना चाहें वैसे जिएं। ज्यादा जरूरी यह है कि पुरुष अपनी उस मानसिकता से मुक्त हों जिसके चलते महिलाओं का उत्पीड़न थम नहीं रहा है।
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