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म्ादी के दबाव में हमारी अर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत से घटकर 2008 में 6 प्रतिशत रह गई थी। इस चालू वर्ष में विकास दर पुन: 8 प्रतिशत पर पहुंच गई है। 2008 में वैश्विक मंदी के मद्देनजर सरकार ने वित्तीय राहत पैकेज लागू किया था। वित्त मंत्रालय का मानना है कि राहत पैकेज का कार्य संपन्न हो चुका है अत: अब इसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए, परंतु वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने माग की है कि पैकेज को जारी रखना चाहिए। उनका कहना है कि पैकेज निरस्त करने से नुकसान होगा। वर्तमान में जो सुधार दिख रहा है वह नहीं टिकेगा और हम पुन: मंदी की चपेट में आ सकते हैं।
राहत पैकेज के विषय को समझने के लिए पहले वैश्विक आर्थिक संकट के मूल कारणों को समझना होगा, जिनके निवारण के लिए यह पैकेज लागू किया गया था। पिछले कुछ वर्षो के दौरान पश्चिमी देश नई तकनीक ईजाद करने में कामयाब नहीं रहे। इन्हीं हाइटेक माल को महंगा बेचकर अब तक उनकी अमीरियत को पोसा जा रहा था। दूसरी ओर वैश्वीकरण के कारण भारत और चीन का सस्ता माल अमीर देशों को मिलने लगा। उनकी कंपनिया हमारे सस्ते माल के आगे नहीं टिक पाईं। जैसे वर्तमान में अमेरिका में कोरिया, थाइलैंड और भारत में बनीं कारें ज्यादा बिक रही हैं। कंपनियों के बंद होने से अमेरिकी श्रमिक बेरोजगार होने लगे। प्रापर्टी खरीदने के लिए उन्होंने जो ऋण लिए थे उनकी आदायगी नहीं कर सके। इससे अमेरिकी बैंकों को भारी घाटा लगा। लेहमन ब्रदर्स जैसे बैंक दिवालिया हो गए और अपने साथ संपूर्ण पश्चिमी अर्थव्यवस्था को ले डूबे।
अमीर देशों के संकट का हमारे ऊपर पहला प्रभाव निर्यातों के माध्यम से पड़ा। अमेरिकी नागरिकों के पास बासमती चावल खरीदने की सामर्थ्य नहीं रही, क्योंकि भारत से हो रही सस्ते माल की सप्लाई ने उनकी नौकरी छीन ली। अर्थात हमारे उद्यमियों का लाभ एवं पश्चिमी नागरिकों की क्रय शक्ति का ह्रास वास्तव में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इससे हमारे निर्यातों पर दो प्रतिकूल प्रभाव पड़े। जहां एक ओर हमारे निर्यात बढ़े, क्योंकि हमारे माल सस्ते थे वहीं दूसरी ओर अमीर देशों के संकट से हमारे निर्यातों पर प्रभाव पड़ा। उदाहरण के लिए भारत से मोटर पार्ट्स का निर्यात बढ़ा, किंतु बासमती चावल का निर्यात घटा। मेरे आकलन में सम्मिलित प्रभाव अच्छा ही पड़ा है। आटो पार्ट्स के 100 डालर के निर्यात के कारण अमेरिकी उत्पादन में उतनी ही कटौती हुई। इस कटौती में भारत से भेजे जाने वाले बासमती चावल आदि का हिस्सा 20 डालर रहा होगा। अत: हमें इस लेन-देन से कुल 80 डालर का लाभ हुआ। हमें जितना लाभ निर्यातों से हुआ उसका एक छोटा अंश निर्यातों में कटौती के रूप में वापस आया, परंतु निर्यातों में हुआ यह छोटा नुकसान ज्यादा दिखता है, जैसे कड़वी दवा खाने का लाभ बाद में समझ आता है, लेकिन कड़वेपन का अहसास तत्काल हो जाता है। जिस प्रकार कड़वी दवा बाद में लाभप्रद होती है वैसे ही हमारे सस्ते निर्यातों से अमीर देशों में आया संकट हमारे लिए अंत में लाभप्रद होगा।
वैश्विक संकट का भारत पर दूसरा प्रभाव विदेशी निवेश के माध्यम से पड़ा है। अमेरिकी बैंकों को नुकसान हुआ। इस घाटे की भरपाई के लिए उन्होंने भारतीय शेयर बाजार में बिकवाली की और हमारा सेंसेक्स 21000 से टूटकर 8000 पर जा गिरा, परंतु यह भी अल्पकालीन प्रभाव रहा। यह बिकवाली शीघ्र ही समाप्त हो गई और सेंसेक्स पुन: 17,000 तक चढ़ चुका है। पूर्व में तेल निर्यातकों एवं निजी निवेशकों द्वारा जो रकम अमीर देशों को जाती थी और वहा से घूमकर भारत को आती थी उसकी दिशा अब सीधे भारत की ओर मुड़ रही है। स्पष्ट होता है कि वैश्विक संकट दीर्घकाल में हमारे लिए नुकसानदेह नहीं है। हमारे बढ़ते निर्यातों के कारण ही यह संकट उत्पन्न हुआ है। अल्पकाल में हमें अवश्य मुश्किल हुई है। बासमती चावल जैसे निर्यातों और विदेशी निवेश में गिरावट आई है।
इस पृष्ठभूमि में भारत सरकार द्वारा लागू किए गए राहत पैकेज का मूल्याकन करना होगा। राहत पैकेज के अंतर्गत ब्याज दरों में कटौती की गई। बैंकों के पास ऋण देने की रकम में वृद्धि की गई। आशा थी कि इससे घरेलू उद्यमियों के लिए ऋण लेकर निवेश करना आसान हो जाएगा, परंतु ऐसा प्रभाव नहीं पड़ा। बैंकों ने अतिरिक्त रकम को उद्यमों को मुहैया कराने के स्थान पर वापस रिजर्व बैंक के पास जमा करा दिया। बैंकों द्वारा रिजर्व बैंक के पास सामान्य समय में 40,000 करोड़ रुपए जमा कराया जाता है। यह रकम वर्तमान में बढ़कर 1,00,000 करोड़ हो गई है। अत: इस कदम का जमीनी अर्थव्यवस्था पर प्रभाव मात्र यह पड़ा कि उद्यमों पर ब्याज का बोझ कुछ कम हो गया है। यह सुखद प्रभाव है, परंतु मूल उद्देश्य को हासिल नहीं करता है।
राहत पैकेज के अंतर्गत एक्साइज ड्यूटी में कटौती की गई है। इससे भी हमारे उद्यमों को राहत मिली है, परंतु यह कटौती दीर्घकाल तक जारी नहीं रह सकती, क्योंकि बढ़े हुए सरकारी खचरें के लिए उत्तरोत्तर अधिक रकम की जरूरत है। राहत पैकेज के अंतर्गत तीसरा कदम सरकारी खचरें में वृद्धि का था। नरेगा, शिक्षा, सरकारी कर्मियों के वेतन एवं बुनियादी संरचना में सरकारी खचरें में वृद्धि की गई है। इससे जनता की क्रयशक्ति में वृद्धि हुई है। निर्यातों में कटौती से घरेलू अर्थव्यवस्था में जो सुस्ती आई थी वह आशिक रूप से समाप्त हो गई। मसलन भारत से कार का निर्यात कम हुआ। इन्हीं कारों को सरकारी कर्मियों ने खरीद लिया। अत: यह कहा जा सकता है कि मूल रूप से राहत पैकेज सफल रहा है।
यह नीति लंबे समय में घातक हो जाएगी, जैसे कुछ समय के लिए पाचक लेना लाभप्रद रहता है, परंतु दीर्घकाल में यही नुकसानदायक हो जाता है। कारण यह कि टैक्स दरों में कटौती करने से सरकार का राजस्व कम होता है। साथ-साथ सरकारी खचरें में वृद्धि में भी अधिक रकम की जरूरत है। खर्च और आय के इस अंतर को सरकार द्वारा नोट छापकर अथवा ऋण लेकर पूरा किया गया है, जो टिकाऊ नहीं है। नोट छापने से महंगाई बढ़ती है। ऋण लेने से सरकार पर भविष्य में आर्थिक भार बढ़ता है। अत: राहत पैकेज को दीर्घकाल तक जारी रखना हानिप्रद होगा।
अंतिम आकलन इस प्रकार है। दीर्घकाल में वैश्विक मंदी हमारे लिए नुकसानदेह नहीं है। मुक्त व्यापार के कारण हमारे निर्यातों में वृद्धि हो रही है। यही संकट का मूल कारण है। अमीर देशों से मिलने वाले विदेशी निवेश में जो कटौती हुई है उसकी पूर्ति आने वाले समय में दूसरे स्त्रोतों से हो जाएगी। अत: दीर्घकाल में हमारे ऊपर न तो संकट था और न ही हमें राहत पैकेज की जरूरत थी। अल्पकाल में वैश्विक संकट के हमारे ऊपर दुष्प्रभाव अवश्य पड़े हैं। हमारे निर्यात गिरे हैं और हमारा शेयर बाजार टूटा है। इससे निपटने के लिए सरकार द्वारा लागू किए गए राहत पैकेज से इन दुष्प्रभावों पर हमने न्यूनाधिक विजय प्राप्त कर ली है। अब हम स्वस्थ हो गए हैं। हमें दवा बंद कर देनी चाहिए। राहत पैकेज तत्काल समाप्त कर दिया जाना चाहिए। ब्याज एवं टैक्स की दरों को बढ़ाकर अपने पूर्व सामान्य स्तर पर ले जाना चाहिए। सरकारी खर्र्चो की मात्रा में कटौती करके उनकी गुणवत्ता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
[डा. भरत झुनझुनवाला : लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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