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महंगाई का निरंतर बढ़ना गरीब और विकासशील देशों के लिए उस दुःस्वप्न की तरह होता है जिससे पीछा छुड़ाने के सारे प्रयास व्यर्थ साबित होते हैं. कभी मंदी की वजह से महंगाई तो फिर कभी तेजी की वजह से कीमतों में बढोत्तरी. भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्विक अर्थजगत से जुड़ने के पश्चात महंगाई को नियंत्रित करने के सारे उपाय असफल सिद्ध हो जाते हैं. अब महंगाई और कीमतों में वृद्धि का मसला अंतरराष्ट्रीय हालातों से डील होता है. ऐसी स्थिति में रिजर्व बैंक सहित सरकार को पल-पल की स्थिति पर नजर रखते हुए एक वाजिब कीमत को बनाए रखने की कोशिश करनी होगी ताकि कीमतों में भारी बढोत्तरी से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले अल्प आय वर्ग को राहत प्रदान किया जा सके.
हालीवुड फिल्म अनाकोंडा में एक विशालकाय सांप हर छोटे-बड़े जीव को निगल जाता था. वर्तमान परिदृश्य में महंगाई भी भारत के लिए अनाकोंडा की तरह हो गई है. महंगाई की बढ़ती हुई दर भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि को खासा परेशान कर रही है. तेजी से वापसी करती भारतीय अर्थव्यवस्था और जीडीपी वृद्धि महंगाई की वजह से बार-बार पटरी से उतर जाती है. आलम यह है कि थोक मूल्य सूचकांक दहाई के अंक में पहुंचने को बेताब नजर आ रहा है. इस समय यह इंडेक्स 9.9 फीसदी पर पहुंच चुका है. 20 फरवरी को समाप्त हफ्ते के दौरान प्राइमरी आर्टिकल इंडेक्स वर्ष-दर-वर्ष 15 फीसदी महंगाई दिखा रहा है. औद्योगिक मजदूरों और कर्मचारियों के लिए उपभोग मूल्य सूचकांक 16.22 फीसदी के स्तर पर पहुंच चुका है.
कीमतों में हुई इस तेजी के पीछे कई विशेष कारण भी हैं. इसमें वैश्विक पूंजी बाजार, वैश्विक स्तर पर जिंसों की कीमतों में बढ़ोतरी, सकल घरेलू उत्पाद में उच्च वृद्धि के कारण घरेलू मांग में उछाल और खराब मानसून के कारण फसलों में हुआ नुकसान मुख्य कारणों के तौर पर शामिल हैं. महंगाई की बढ़ती हुई दर को रोकने के लिए योजना बनाने वाले इन सभी कारणों की आड़ में सुकून से baiबैठे हैं. वास्तव में महंगाई का गैर-खाद्य थोक मूल्य सूचकांक पांच फीसदी के नीचे था. हालांकि मांग में वृद्धि का दबाव तेजी से बढ़ रहा है. हालिया आंकड़ों के मुताबिक महंगाई का गैर-खाद्य सूचकांक वर्ष-दर-वर्ष के आधार पर फरवरी 2010 में 6.2 फीसदी पर पहुंच गया है. जबकि यह जनवरी 2010 में 4.3 फीसदी पर था.
मांग में आई तेज उछाल का असर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में भी नजर आया. पिछले दौर में निजी संगठित क्षेत्र को मांग के मुताबिक कैपेक्स योजना के तहत क्षमता वृद्धि के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध था. इस दौरान सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 8.5 से 9 फीसदी की ओर बढ़ रही थी. इस समय अर्थव्यवस्था की तेजी से हो रही वापसी में मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है. इसके सापेक्ष मांग को पूरा करने के लिए कारोबार निवेश चक्र अभी भी पूरी तरह से आकार नहीं ले पाया है. ऐसे में मांग और आपूर्ति एक-दूसरे का पीछा करते हुई नजर आएंगी. इन दोनों के बीच बनने वाला अंतर आने वाले समय में महंगाई को भड़काने के लिए काफी होगा.
अगर महंगाई पर तत्काल प्रभाव से अवरोध नहीं लगाया गया तो अर्थव्यवस्था को गंभीर नतीजे भुगतने होंगे. इससे एक खराब चक्र को बल मिलेगा. मजदूरी और लागत में वृद्धि एक बार फिर कीमतों में बढ़ोतरी कर देगी. इससे जरूरी वस्तुओं की कीमतों में और वृद्धि होगी. इस कुचक्र से अर्थव्यवस्था से जुड़ी कई चीजों को धक्का लग सकता है. यहां तक कि राजनीतिक अस्थिरता का कारण भी बन सकती है महंगाई. आत्मसंतोष की प्रवृत्ति एक घने जाल की तरह है. यह विकास के रास्तों को वापस मोड़कर उलटी यात्रा शुरू करा सकती है. बिना जरूरी उपाय किए उम्मीदें पालते रहना अप्रत्याशित नतीजों का कारण बन सकता है.
उम्मीद की जा रही है कि रबी की फसल और अंतरराष्ट्रीय कीमतों में कमी भारत में भी जिंसों के मूल्य कम करने में मदद करेगी. जिंसों की कीमतों में कमी आने पर महंगाई खुद-ब-खुद कम हो जाएगी. यह देश का सौभाग्य होगा कि जैसी उम्मीदें बांधी जा रही हैं वे पूरी हों. अगर और मगर के बीच दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा. मान लीजिए अगर मानसून ने एक बार फिर साथ नहीं दिया तो क्या होगा. तेल की कीमत 81 डालर प्रति बैरल के ऊपर पहुंचने पर कारोबारी घाटे का स्तर बहुत ऊपर निकल जाएगा. वर्तमान में यह घाटा जीडीपी के 2.5 फीसदी के करीब है.
तेल की कीमतें ऊपर जाने पर कारोबारी घाटे में होने वाली वृद्धि का कोई भी आसानी से अनुमान लगा सकता है. जीडीपी के 3.5-4.5 फीसदी के स्तर पर वर्तमान लेखा-जोखा अंतर के मुताबिक मुद्रा के और कमजोर होने की आशंका भी बढ़ती जाएगी. तेल की कीमतों में तेज वृद्धि भी रुपये का अवमूल्यन करेगी. रुपये का अवमूल्यन महंगाई बढ़ाने वाला एक और कारण बन सकता है. अर्थव्यवस्था के प्रबंधकों के सामने निर्णायक और नियामक कदम उठाने और महंगाई से निपटने का कौशल दिखाने की चुनौती है. यहां यह बताना किसी भी तरह से फायदेमंद नहीं है कि खाद्य वस्तुओं की कीमतों में तेजी मांग व आपूर्ति के अंतर और वितरण में कुप्रबंधन के कारण आई है.
सरकार को तत्काल गेहूं और चावल की आपूर्ति बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए. देश में गेहूं का पर्याप्त भंडार मौजूद है. सरकार को इसे जनता के लिए खोल देना चाहिए. हालांकि चावल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना तो दूर सोचनीय स्थिति में पहुंच चुका है. इसलिए चावल की आपूर्ति को बढ़ाया नहीं जा सकता. इसके लिए सरकार को तत्काल चावल का आयात कर पर्याप्त भंडारण करना चाहिए. प्रशासन को वितरण प्रणाली को सही ढंग से काम में लाने के लिए नींद से बाहर आना चाहिए. आपूर्ति में वृद्धि और चावल के आयात से कारोबारियों को सही चेतावनी मिलेगी और वे इसके अनुचित भंडारण से तौबा कर लेंगे. ठीक इसी तरह स्टील और सीमेंट के उत्पादनकर्ताओं पर कीमतें न बढ़ाने के लिए दबाव बनाया जाना चाहिए. हालांकि अगर यह दबाव विस्फोटक स्थिति में पहुंच जाए तो उन्हें कीमतें बढ़ाने में कुछ ढील दी जा सकती है. कच्चे तेल की कीमतों में धीमी लेकिन सतत बढ़ोतरी हो रही है. इस कारण अप्रैल से स्टील की कीमतों में भी वृद्धि हो सकती है. दूसरी चीजों के उत्पादनकर्ता भी कीमतों में बढ़ोतरी करने का इंतजार कर रहे हैं.
सोचने भर से धक्का लगता है कि गरीब फिर महरूम रह जाएंगे बेहतर खाने से. वर्तमान में खाद्य महंगाई दर 17 फीसदी के स्तर पर पहुंच चुकी है. भारतीय लोकतंत्र के लिए महंगाई की ऊंची दर असहनीय हो रही है. अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे जब जनता ने प्याज और आलू की कीमतों में हुई वृद्धि की असहनीय पीड़ा को सरकार बदल कर जाहिर किया. महंगाई की ऊंची दर के खिलाफ धरना-प्रदर्शन, राजनीतिक बहस और मीडिया रिपोर्ट का धीरे-धीरे बंद होना चौंकाता है. लोगों की पीड़ा को सही तरीके से नहीं समझा जा रहा है. सरकार का इस मामले में खास तव्वजो न देना जता रहा है कि महंगाई के दर्द से कराह रहे राष्ट्र का दर्द पूरी शिद्दत से महसूस नहीं किया जा रहा है. यहां तक कि एक खास तबका बढ़ती महंगाई को जायज ठहरा रहा है. आम आदमी के अहम मुद्दे को दरकिनार किया जा रहा है. हालांकि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि से जीडीपी की 7.5 फीसदी की वृद्धि दर दिल को थोड़ा सुकून जरूर देती है लेकिन यह आदमी के बढ़ते हुए दर्द और परेशानी को ज्यादा देर तक नहीं संभाल पाएगी.
अर्थव्यवस्था प्रबंधकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है पूरी कुशलता के साथ महंगाई की दर को कम करना. भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से वापसी की ओर रुख कर रही है. महंगाई को रोकने में थोड़ी-सी ढील भी कांटों की शय्या में बदल सकती है. थोड़ी और देर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आत्महत्या के बराबर होगी. अर्थव्यवस्था में आया कोई भी नकारात्मक परिणाम लंबे समय तक पूरे देश को पीड़ा का अनुभव कराने के लिए काफी होगा.
Source: Jagran Yahoo
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