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महत्वपूर्ण मोड़ पर मोदी

संपादकीय ब्लॉग
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sanjayराजनीतिक रूप से तमाम घेरेबंदी के बावजूद गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लगातार तीसरी जीत का श्रेय उनके करिश्माई व्यक्तित्व के साथ-साथ विकास और सुशासन के उनके प्रयासों को जाता है। विषम आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद यदि गुजरात विकास का पर्याय बना हुआ है तो नरेंद्र मोदी को उस श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता जिसके वह हकदार हैं। अब गुजरात के बाहर की जनता भी इस सच्चाई को समझ रही है कि मोदी वास्तव में विकास के मोर्चे पर डटे हुए हैं और गुजरात की आर्थिक स्थिति लगातार बेहतर होती जा रही है। मोदी ने 2001 में जब पहली बार मुख्यमंत्री का पद संभाला था तो उसके अगले ही साल गोधरा कांड और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उभरे सांप्रदायिक दंगों की आग ने उनके समक्ष कड़े इम्तिहान का अवसर ला दिया था। उन्हें इन दंगों के लिए बुरी तरह घेरा गया और सच्चाई यह है कि एक दशक बाद भी उन पर राजनीतिक दलों और मीडिया के एक वर्ग का ऐसा दबाव कायम है कि उन्हें राजनीतिक रूप से अस्पृश्य माना जाता है। भाजपा, शिवसेना, अकाली दल आदि को छोड़कर कोई भी दल उनके साथ जुड़ने के लिए तैयार नहीं। 2007 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मोदी को मौत के सौदागर की उपाधि तक दे डाली थी। यह बात अलग है कि मोदी को इस आक्षेप का भी राजनीतिक लाभ मिला।


यह उल्लेखनीय है कि भारी विरोध के बावजूद मोदी का करिश्मा लगातार बढ़ा है। आम भारतीयों के मन में मोदी के संदर्भ में यह सवाल उभरना स्वाभाविक ही है कि जिस व्यक्ति के लिए इतनी नकारात्मकता फैलाई गई हो वह गुजरात में इतना लोकप्रिय कैसे है? इस चुनाव में अनेक अल्पसंख्यक बहुल सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों ने सफलता हासिल की। गुजरात के मुस्लिम दंगों की पीड़ा तो नहीं भूल सकते, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वे इस पीड़ा के साथ ही मोदी के विकास रूपी रथ पर सवार होकर अपना भविष्य भी संवारने के लिए तैयार हैं। गुजरात के मुस्लिमों की मन:स्थिति का विश्लेषण आसान कार्य नहीं है, लेकिन शेष देश के मुसलमानों की मोदी के संदर्भ में क्या प्रतिक्रिया है, यह तभी स्पष्ट होगा जब वह अपने राज्य से बाहर निकलकर राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखेंगे। पिछले कुछ समय से भाजपा के कई नेता मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में प्रस्तुत करने की वकालत कर रहे हैं, लेकिन बड़े नेता उनकी दावेदारी पर या तो मौन साध जाते हैं या फिर सवाल ही टाल जाते हैं। यह तब है जब मोदी ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे लोकप्रिय प्रत्याशी हैं। वैसे उनकी तमाम लोकप्रियता के बावजूद इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अभी तक उनकी परीक्षा केवल गुजरात में ही हुई है। एक प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में राजनीतिक और प्रशासनिक सफलता हासिल करना अलग बात है और प्रधानमंत्री के रूप में देश चलाना अलग बात।


वैसे भी गठबंधन राजनीति के इस दौर में क्या भाजपा के सहयोगी दल मोदी को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में स्वीकार करेंगे? जब तक इस सवाल का जवाब सामने नहीं आता तब तक उनकी दावेदारी के संदर्भ में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। अगले आम चुनाव में अभी लगभग डेढ़ साल का वक्त बाकी है और फिलहाल भाजपा इस स्थिति में नजर नहीं आ रही है कि वह अकेले अपने दम पर केंद्र में सरकार बनाने की बात सोच भी सके। प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का नाम बार-बार उछलने के पीछे भाजपा की कोई रणनीति भी हो सकती है। चूंकि मोदी की छवि एक हिंदूवादी नेता की है इसलिए भाजपा कहीं न कहीं उनके नाम को आगे कर हिंदू मतदाताओं को उसी तरह आकर्षित करना चाहती है जिस तरह उसने अतीत में रामजन्मभूमि मामले में किया था। भाजपा के एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने के पीछे अयोध्या मामले की सबसे बड़ी भूमिका थी। हिंदुओं का एक अच्छा-खासा वर्ग राममंदिर के भावनात्मक मुद्दे के कारण भाजपा के साथ जुड़ गया था, लेकिन बाद में यह मामला ठंडे बस्ते में चले जाने के कारण उसने भाजपा से खिन्न होकर उसका साथ छोड़ दिया। अब जब भाजपा के पास हिंदू मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए राममंदिर का मुद्दा नहीं रह गया है तब यह देखना होगा कि क्या वह नरेंद्र मोदी को आगे कर अपना आधार मजबूत कर सकेगी? मोदी के काम करने की अपनी शैली है और गुजरात के विकास को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उन्हें आगे कर लोकसभा चुनाव में उतरने की भाजपा की रणनीति सफल सिद्ध हो सकती है। यदि ऐसा होता है तो मोदी प्रधानमंत्री पद तक पहुंच भी सकते हैं।


भाजपा इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि लोकसभा चुनाव अकेले हिंदू मतदाताओं का ध्रुवीकरण करके नहीं जीता जा सकता। आम चुनाव जीतने के लिए न केवल भाजपा को खुद एकजुट होना होगा, बल्कि नए-पुराने सहयोगी दलों को भी अपने साथ लाना होगा। भाजपा में इस समय जैसा बिखराव नजर आ रहा है उससे तो ऐसा लगता है कि यह पार्टी एक नेता के पीछे खड़े होने का गुण ही भूल चुकी है। फिलहाल कोई नहीं जानता कि भाजपा के तमाम कद्दावर नेता नेतृत्व के मसले पर एक राय कायम कर सकेंगे? यह भी स्पष्ट नहीं कि यदि मोदी भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनते हैं तो क्या पार्टी उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर वह छूट देगी जो गुजरात में उन्होंने अपने आप हासिल कर ली है? खुद मोदी के लिए यह किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा कि वह शेष देश की जमीनी राजनीति को समझते हुए भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर सफलता दिलाएं। अगर भाजपा मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना चाहती है तो उसे उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय करना होगा। यह भी आवश्यक है कि आरएसएस के साथ-साथ पूरी भाजपा उनके पीछे डटकर खड़ी हो। अभी तो नितिन गडकरी और मोदी के बीच तालमेल ही नहीं है।


मोदी को भी गडकरी के अतिरिक्त पार्टी के अन्य बड़े नेताओं के साथ समन्वय कायम करना होगा। यही नहीं उन्हें भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी अपने साथ लेना होगा और साथ ही गैर कांग्रेसी दलों के बीच भी अपनी स्वीकार्यता बढ़ानी होगी। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो उसने भले ही हिमाचल प्रदेश में जीत हासिल कर ली हो, लेकिन गुजरात में मिली नाकामी यह बताती है कि केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रहे इस दल के लिए राजनीतिक हालात सही नहीं हैं। कांग्रेस अगला लोकसभा चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ने की तैयारी कर रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश के बाद गुजरात में मिली हार से कांग्रेस की रणनीति पर सवाल खड़े होते हैं। गुजरात का चुनाव एक तरह से लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था, लेकिन कांग्रेस यहां कोई उलटफेर नहीं कर सकी। लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं, लेकिन आने वाले कुछ महीने राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से काफी उथलपुथल भरे हो सकते हैं। राजनीति की दिशा के बारे में कुछ कहना कठिन है, लेकिन अगले आम चुनाव में मोदी बनाम राहुल का परिदृश्य उभरता दिख रहा है।


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