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राजधानी में जुर्म का सिलसिला

संपादकीय ब्लॉग
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छोटी-छोटी बातों को लेकर हत्या जैसे बेहद खतरनाक कदम उठा लेने की घटनाएं जिस तेजी के साथ दिल्ली में बढ़ रही हैं, वह चिंताजनक है। पिछले एक सप्ताह में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ऐसी कई घटनाएं घटी हैं, जिनमें या तो एकतरफा प्रेम में किसी ने किसी की जान ले ली या ईष्र्या में या फिर बदले की आग में झुलसते हुए भरे-पूरे परिवार को तबाह कर दिया। इन सभी मामलों के बारे में जानकर ऐसा लगता है, जैसे मनुष्य का समाज से सार्थक संवाद ही बंद हो चुका है। शायद इसका ही नतीजा है कि इतने बड़े निर्णय तक पहुंचने से पहले न तो लोगों को अपने हमउम्र दोस्तों या भाई-बहनों से बात करने की जरूरत महसूस होती है और न ही बड़े-बुजुर्गो से। यही नहीं, इससे यह भी जाहिर होता है कि लोगों का समाज के संस्थानों से भी भरोसा उठ गया है। न तो लोगों को पुलिस पर भरोसा रह गया है, न प्रशासन और न ही न्यायिक व्यवस्था पर। यहां तक कि ऐसे निर्णय तक पहुंचने और फिर उसे अंजाम तक पहुंचा देने वाले को किसी का डर भी नहीं रह गया है। जब यह हाल राष्ट्रीय राजधानी का है तो देश के बाकी हिस्सों की स्थिति क्या होगी, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इन घटनाओं से यह भी आभास होता है कि भावना और संवेदना से मनुष्य का संपर्क टूटता-सा जा रहा है। लोगों का ध्यान केवल अपने भौतिक साधनों और उपलब्धियों तक ही केंद्रित होकर रह गया है। इसे ही लोगों ने अपना चरम लक्ष्य मान लिया है।


दैहिक-भौतिक उपलब्धियों के आगे भी कहीं कुछ है, यह सोचने की क्षमता ही लोग खो चुके हैं। यहां तक कि किसी भी छोटी-बड़ी घटना को अंजाम देने के पहले लोग यह भी नहीं सोचते कि इसका समाज पर क्या असर होगा। न केवल समाज, बल्कि परिवार और स्वयं अपने पर किसी काम का क्या असर होगा, यह भी सोचने की जरूरत नहीं समझते हैं। अगर यह कहें कि केवल पुलिस की सख्ती या कानूनी कार्रवाई से इन घटनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकता है तो यह बहुत बड़ी भूल होगी। इसके पहले कि इनके निदान के उपाय सोचे जाएं और उन पर अमल किया जाए, तेजी से बढ़ रही इस स्थिति के कारणों पर गौर करना बेहद जरूरी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पूरा समाज ऐसा नहीं हो गया है। समाज में केवल कुछ सिरफिरे लोग हैं, जो छोटी से छोटी बात को लेकर किसी भी समय कुछ भी कर गुजरने को उतारू हो जाते हैं। दुखद यह है कि ऐसे लोगों की तादाद समाज में बढ़ रही है। आखिर यह तादाद बढ़ने के पीछे कारण क्या है? इस पर ध्यान दिया जाए तो इसके मूल में कुछ वजहें दिखाई देती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारे पूरे समाज में हताशा और इसके चलते कुंठा बड़ी तेजी से बढ़ रही है। पिछले कुछ वर्षो में भौतिक संसाधनों का बहुत तेजी से प्रसार होने के कारण पूरे भारतीय जनजीवन के स्तर में व्यापक बढ़ोतरी आई है। ऐसी कई चीजें जिन तक पहले आम आदमी की पहुंच ही नहीं थी और उनके बारे में लोग आमतौर पर सोचते भी नहीं थे, अब सबकी जिंदगी का जरूरी हिस्सा बन चुकी हैं। यह कोई खराब बात नहीं है, बल्कि यह एक न एक दिन होना ही था। मुश्किल यह है कि इन जरूरतों को पूरा करने के साधन सभी लोगों के पास नहीं हैं।


भौतिक संसाधनों की बेतहाशा चाह के कारण खर्च तो बेहिसाब बढ़ गए, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए अधिकतर लोगों की आमदनी में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। पहले तो इसका नतीजा आमदनी बढ़ाने के लिए गलत साधनों के इस्तेमाल के रूप में सामने आया और जब उसमें भी कुछ लोग सफल नहीं हुए तो वे हताशा के शिकार होने लगे। बार-बार स्वयं हताश होने और बड़े पैमाने पर लोगों को हताशा का शिकार होते देखकर तरह-तरह की कुंठाएं लोगों के मन में जड़ें जमाने लगीं। इस तरह की कंुठा का सबसे ज्यादा शिकार शहरी युवा वर्ग हुआ है। कुंठा की इस बढ़ती प्रवृत्ति ने युवाओं को लक्ष्यहीनता की गहरी खाई में धकेल दिया। यह एक गंभीर रूप से विचारणीय बात है कि जब एक युवक के जीवन का कोई लक्ष्य नहीं होगा तो वह क्या करेगा। इसका ही नतीजा यह हुआ है कि बड़ी संख्या में युवा वर्ग भटकाव का शिकार हुआ और उनमें से कई अपराधों की ओर बढ़ गए। वे कभी भावनात्मक आवेग के शिकार होकर आपराधिक कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं तो कभी आक्रोश के कारण। जरूरी नहीं है कि ऐसे लोग हर बार अपनी कुंठा के मूल कारण पर ही हमला करें।


असल में तो ऐसा बहुत कम ही होता है। अक्सर होता यही है कि कहीं का गुस्सा कहीं निकलता है। इसके चलते ही कभी कोई मासूम बच्चा उनका शिकार हो जा रहा है, तो कभी कोई लड़की, कभी कोई बुजुर्ग और कभी कोई बेगुनाह आदमी। सामाजिक ताने-बाने के टूटने के इस दौर में सबसे मुश्किल बात यह है कि आज युवाओं के सामने ऐसा कोई आदर्श भी नहीं है, जिसे देखकर वे स्वयं को ऐसे कार्यो से रोक सकें। कानून के अनुपालन की मशीनरी भी तमाम तरह के दबावों में काम कर रही है। जिसके चलते अपराधों के लिए जिम्मेदार व्यक्ति अकसर छूट जा रहे हैं। व्यापक समाज में इसका संदेश बहुत ही खराब जा रहा है। आम लोगों की धारणा यह बनती जा रही है कि अगर आपके पास पैसा और रसूख है तो बड़े से बड़ा अपराध करके भी आप छूट सकते हैं। पहले समाज में बड़े-बुजुर्गो का जो नैतिक दबाव हुआ करता था, वह भी दिखाई नहीं देता है। क्योंकि उसका आधार कानून से मिला कोई अधिकार नहीं, बल्कि केवल सामाजिक-नैतिक मूल्य थे। जहां पहले इनका पालन करना हर व्यक्ति अपना अनिवार्य कर्तव्य मानता था, वहीं अब इन पर सोचना भी जरूरी नहीं समझा जाता है। सच तो यह है कि सामाजिक-नैतिक मूल्यों के क्षरण को ही अब इस पतन के सबसे बड़े कारण के रूप में देखा जा रहा है।


समाज और व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों को पुलिस-प्रशासन और न्यायिक प्रक्रिया को तेज बनाने के उपाय तो करने ही होंगे, साथ ही इस दिशा में भी गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि हम अपने परंपरागत सामाजिक ताने-बाने को कैसे पुनर्जीवित करें। हमें अपने समाज से कंुठा के उन कारणों को भी दूर करने की दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए जिनके कारण ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह बहुत आसानी से और कम समय में होने वाला कार्य नहीं है। इसके लिए कड़ी मेहनत करनी होगी और बहुत समय भी लगेगा, लेकिन वास्तविक समाधान इसी तरह से संभव है। कानून की सख्ती से हम अपराध हो जाने के बाद अपराधियों को सजा तो दे सकते हैं, पर अपराध को हमेशा के लिए रोकना संभव नहीं है। इसके लिए हमें उन कारणों पर ही प्रहार करना होगा, जिनके चलते लोग अपराधों के प्रति आकर्षित होते हैं।


निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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