Menu
blogid : 133 postid : 2010

राजनीति का विचित्र रूप

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

रिटेल बाजार में एफडीआइ, डीजल के मूल्यों में वृद्धि एवं सब्सिडी वाले घरेलू रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्या सीमित करने के केंद्र सरकार के फैसलों के कारण तृणमूल कांग्रेस के संप्रग से अलग होने के बाद सपा ने जिस तरह उसकी नैया पार लगाई उससे हो सकता है कि देश में उठा राजनीतिक तूफान तात्कालिक रूप से थम जाए, लेकिन इससे देश में गठबंधन राजनीति के नाम पर मोल-भाव की प्रवृत्ति थमने के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आते। केंद्र सरकार में शामिल रही तृणमूल कांग्रेस ने सरकार के हाल के आर्थिक फैसलों को जनविरोधी बताते हुए न केवल अपने मंत्रियों के त्यागपत्र दिला दिए, बल्कि सरकार से अपना समर्थन भी वापस ले लिया। ममता बनर्जी के आर्थिक चिंतन से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उन्होंने यह साबित किया कि वह जो कहती हैं वही करती भी हैं। इसके विपरीत अन्य दलों को देखें तो ज्यादातर हाथी दांत की तरह से राजनीति कर रहे हैं-दिखाने के और, खाने के और। केंद्र सरकार के आर्थिक फैसलों के विरोध में करीब-करीब सभी विपक्षी दलों के साथ-साथ सरकार के सहयोगी दल भी सड़कों पर उतरे। इनमें सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सपा भी थी और संप्रग में शामिल द्रमुक भी। इन दलों के पास इस सवाल का जवाब नहीं कि आखिर वे जिस सरकार को जनविरोधी और भ्रष्ट मान रहे हैं उसे सत्ता में क्यों बनाए हुए हैं? सपा ने सरकार को यह कह कर बचा लिया कि वह इस समय किसी सांप्रदायिक दल यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकना चाहती है। इस दलील से सहमत होना कठिन है।


आज जो भी दल भाजपा को सांप्रदायिक कहकर उसे राजनीतिक रूप से अछूत बना रहे हैं उनका चरित्र भी काफी कुछ सांप्रदायिक है। ये सभी दल न केवल अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करते हैं, बल्कि उनके समक्ष भय का भूत भी खड़ा करते हैं। वे उन राज्यों के मतदाताओं का अपमान भी करते हैं जहां भाजपा सत्ता में है। सपा ने विपक्षी दलों द्वारा बुलाए गए बंद में अपना सक्रिय सहयोग भी दिया और कुछ ही घंटों बाद सरकार को समर्थन देना जारी रखने की घोषणा कर खुद को सवालों से भी घेर लिया। इस समय संप्रग सरकार सपा की बैसाखी पर टिकी है, लेकिन यदि सपा सरकार के साथ नहीं होगी तो उसका स्थान बसपा ले सकती है, क्योंकि एक तो गठबंधन राजनीति का कोई धर्म-ईमान नहीं और दूसरे कांग्रेस मोल भाव करने में कहीं अधिक सक्षम है। इसके अलावा ऐसे दलों की भी कमी नहीं जो सौदेबाजी की राजनीति में माहिर हैं। यह लाजिमी है कि निकट भविष्य में सपा संप्रग को बाहर से समर्थन देने की कीमत वसूले। वह उत्तर प्रदेश के लिए तमाम पैकेज लेने में सफल हो सकती है, लेकिन बात तब बनेगी जब वह उत्तर प्रदेश में अपनी लोकप्रियता भी बढ़ा पाएगी। सपा इस समय तीसरे मोर्चे के गठन के लिए भी सक्रिय है, लेकिन वह यह भी स्पष्ट कर रही है कि ऐसा मोर्चा सदैव चुनाव के बाद आकार लेता है। इसका मतलब है कि तीसरे मोर्चे का कोई वैचारिक-सैद्धांतिक आधार नहीं। यदि वास्तव में ऐसा है तो यह तो गठबंधन राजनीति का और भी विचित्र रूप है। इसमें संदेह है कि तीसरा मोर्चा कोई ठोस आकार ले सकेगा, क्योंकि जनता यह समझ रही है कि ऐसा कोई मोर्चा कांग्रेस पर ही निर्भर रहेगा। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सरकार के आर्थिक फैसलों के विरोध में भारत बंद का जो आयोजन किया गया वह विरोधी दलों का दिखावा ही अधिक था।


विरोधी राजनीतिक दल जनता को यह बताना चाहते हैं कि उन्हें सरकार के महंगाई बढ़ाने वाले फैसले मंजूर नहीं, लेकिन वे यह नहीं बता पा रहे कि आखिर सरकार को क्या करना चाहिए था? जहां तक प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का प्रश्न है तो वह खुद को सत्ता का दावेदार बता रही है, लेकिन वह अपने खाते में एक के बाद एक विफलताएं भी दर्ज करती जा रही है। जब सरकार को गिराने का मौका आया तो वह अपने साथ किसी भी दल को खड़ा नहीं कर पाई। आखिरकार उसे यह कहना पड़ा कि वह फिलहाल सरकार गिराने के पक्ष में नहीं। यह इसलिए आश्चर्यजनक है, क्योंकि दो हफ्ते पूर्व ही वह प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांग रही थी। भाजपा की छवि सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने वाले राजनीतिक दल की बनती जा रही है। कोयला ब्लाक आवंटन मामले में उसने संसद में बहस करने से इन्कार किया और संसद को चलने नहीं दिया। डीजल के मूल्य में वृद्धि, रसोई गैस के सब्सिडी वाले सिलेंडर सीमित करने और रिटेल में एफडीआइ के मामले में भारत बंद का आयोजन कर भाजपा ने सरकार को नाकाम भी बताया और फिर यह भी कहा कि फिलहाल उसकी दिलचस्पी सरकार गिराने में नहीं। इसका अर्थ है कि उसकी नजर में यह सरकार चलती रहनी चाहिए। इस पर गौर करें कि यही सपा चाह रही है और अन्य अनेक राजनीतिक दल भी।


राजनीतिक उथल-पुथल के इस दौर में भाजपा को केंद्र में होना चाहिए, लेकिन फिलहाल फोकस सपा एवं अन्य दलों पर है। भाजपा को अपनी राजनीति का विश्लेषण करना होगा। उसे अपने अंदर झांकना होगा कि वह किस दिशा में जा रही है? अगर राजग के अन्य घटक कंधे से कंधा मिलाकर उसके साथ नहीं खडे़ हो रहे हैं तो फिर वह राजग को और मजबूत कैसे बना पाएगी? यदि भाजपा तमाम चुनौतियों, आर्थिक विसंगतियों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार को गिराने या उसके सामने कोई बड़ी चुनौती पेश करने में सक्षम नहीं तो इसका अर्थ है कि उसकी राजनीतिक ताकत नहीं बढ़ पा रही। इसमें दो राय नहीं कि केंद्र सरकार बेहद कमजोर नजर आ रही है, लेकिन ऐसी ही कमजोरी से मुख्य विपक्षी दल भाजपा भी ग्रस्त दिख रही है। वह अपने नेतृत्व में गठबंधन राजनीति को भी मजबूत नहीं बना पा रही है, जबकि आज यह आवश्यक हो गया है कि इस राजनीति के नियम-कानून बनाए जाएं। राजनीतिक दल जब तक गठबंधन राजनीति के नियम नहीं बनाते तब तक मोल भाव की राजनीति पर लगाम लगना संभव नहीं। मोल भाव की इस राजनीति के साथ भ्रष्टाचार भी बढ़ेगा। हालांकि राजनीतिक दल यह जानते हैं कि मोल भाव की राजनीति बंद होने पर ही भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी, लेकिन वे गठबंधन राजनीति में सुधार लाने के लिए तैयार नहीं। शायद यही कारण है कि आम जनता अन्ना से उम्मीद लगाए हुए है। जब अन्ना ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन छेड़ा तो हर राजनीतिक दल ने अपने को हाशिये पर महसूस किया। अन्ना हजारे या उनके जैसे अन्य लोगों की ओर से छेड़े जाने वाले आंदोलन भले ही कोई मजबूत राजनीतिक विकल्प न दे पाएं, लेकिन वे ऐसे हालात पैदा कर सकते हैं जिससे देश में शासन करना कठिन हो सकता है। अगर राजनीतिक दलों को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखनी है तो फिर उन्हें गठबंधन राजनीति के नियम-कानून बनाने में और देरी नहीं करनी चाहिए।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh