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राष्ट्रहित के विरुद्ध जाति गणना की कोशिश

संपादकीय ब्लॉग
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भारत में जातिप्रथा की परंपरा हमेशा से विद्यमान रही है लेकिन स्वतंत्र भारत का भविष्य तय करते वक्त संविधानविदों ने समरसतापूर्ण समाज के निर्माण के लिए इसे एक कुप्रथा के रूप में मानकर खारिज करने की कोशिश की. राजनीतिक दलों ने अपने विशिष्ट हितों की खातिर टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव क्षेत्रों में प्रचार करने तक जाति को ही आधार बना लिया. वरन कुछ प्रदेशों में जाति आधारित राजनीति ही दलों का मुख्य एजेंडा हो गया. बात और व्यवहार में दोगलेपन की मिसाल फिर देखने को मिल रही है जबकि जनगणना में भी जाति को आधार बनाया जा रहा है. वरिष्ठ स्तंभकार स्वप्न दासगुप्ता ने भारत राष्ट्र को बांटने की राजनीति दलों की साजिश और उनके दोमुंहे चरित्र को उजागर करने की कोशिश की है.

 

गत सप्ताह ब्रिटिश राजनीति में छाई रही अनिश्चितता पर नजर रखने वाले पर्यवेक्षक प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन और उनके साथियों की किसी भी सूरत में सत्ता में बने रहने की लालसा को देखकर हैरान हैं. साफ तौर पर घबराहट पैदा करने वाले जनादेश द्वारा नकार दिए गए ब्राउन ने खुद को आनुपातिक प्रतिनिधित्व के चैंपियन के रूप में रूपांतरित कर लिया है. यह मुद्दा इंग्लैंड की लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को उतना ही प्रिय है, जितना कि भारत में भाजपा को धारा 370 का उन्मूलन. इस तथाकथित उचित व्यवस्था की पुष्टि के कारण बिल्कुल स्पष्ट हैं. किंतु जो स्पष्ट नहीं है वह है लेबर पार्टी की जनादेश के संदर्भ के बिना ही राजनीतिक व्यवहार में मूल बदलाव के लिए राजी होने की दलील.

 

यह दलील दी जा सकती है क्योंकि लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को समर्थन देने वाले 22.9 प्रतिशत मतदाताओं ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व का समर्थन किया है. इसमें कुछ छोटी पार्टियों और विदेश में रह रहे लोगों के वोटों को भी जोड़ दें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि एक-चौथाई मतदाता मानते हैं कि ब्रिटेन के सामने सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा चुनाव प्रणाली में बदलाव लाना है. एक-चौथाई जनादेश असंतोषजनक संख्या नहीं है. किंतु यह आंकड़ा उतना चौंकाने वाला भी नहीं है कि 75 प्रतिशत मतदाताओं ने ब्रिटेन की विद्यमान फ‌र्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट व्यवस्था पर मुहर लगाते हुए यह जनादेश दिया है कि वहां की सरकार को अपना समय और ऊर्जा आर्थिक संकट हल करने पर लगानी चाहिए.

 

समय की कसौटी पर खरा उतरने वाली चुनाव प्रणाली का लक्ष्य स्थिर सरकार का गठन है. फिर भी, यह विचारणीय है कि गार्डन ब्राउन किस ढिठाई से छोटी पार्टियों के साथ समायोजन बिठाने के मतदाताओं के जनादेश को झटक सकते हैं. यह उन लोगों द्वारा लोकतंत्र के कपटी क्षय का प्रतीक है, जो नैतिकवादी होने का दावा करते हैं. ब्राउन किसी भी कीमत पर सत्ता पाने पर आमादा हैं. यह तुच्छता है किंतु इससे भी घिनौना यह होगा अगर वे बहुमत की राय को उलट दें और आनुपातिक प्रतिनिधित्व के औजार के तौर पर राजनीतिक ब्लैकमेल पर उतर आएं.

 

हितकारी राजनीति केवल पारदर्शिता के ऊपर निर्भर नहीं रहती. निर्णय लेने और सलाह-मशविरा की प्रक्रिया भी इतनी ही महत्वपूर्ण होती है. अगर इंग्लैंड इसलिए मतदान और प्रतिनिधित्व की प्रणाली में बदलाव करता है कि लेबर पार्टी को अल्पमत को बहुमत में बदलने के लिए कुछ सांसदों की जरूरत है, तो इसमें समझदारी नहीं होगी. जो परिवर्तन राजनीतिक मूलाधार को प्रभावित करते हैं, उन पर बड़े धैर्य और समझबूझ के साथ विचार किया जाना चाहिए.

 

यह एक सबक है जो भारत के प्रधानमंत्री और अन्य तमाम जिम्मेदार लोगों को सीखना चाहिए, जिन्होंने जातीय आधार पर जनगणना-2011 का भयावह फैसला लिया है. साठ साल पुरानी नीति को गंभीर बहस के बिना ही अचानक बदलने में षड्यंत्र की बू आ रही है. यह अपराध इसलिए और भी संगीन हो जाता है क्योंकि इतना महत्वपूर्ण फैसला बिना कोई भी तर्क दिए ले लिया गया है. 1990 में वीपी सिंह ने परेशानी पैदा कर रहे उप प्रधानमंत्री देवीलाल की प्रस्तावित रैली की हवा निकालने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया था. पिछले सप्ताह, कांग्रेस अध्यक्ष ने बड़ी उदारता से जाति आधारित जनगणना को स्वीकार कर लिया क्योंकि इससे जाति-आधारित पार्टियों से कांग्रेस के बिगड़ते जा रहे रिश्तों में सुधार की आस बंधती है.

 

अंतिम निर्णय एक ऐसे व्यक्ति को सौंप दिया गया जो शायद भारत में पहले जनगणना के जातीय विभाजन के कारण मची उथलपुथल से अनभिज्ञ है. नागरिक समाज से न तो विचार-विमर्श किया गया और न ही सरकार या विपक्ष ने नहीं सुझाया कि ऐसा फैसला तुच्छ निहितार्थ के कारण जल्दबाजी में नहीं लिया जा सकता. राजनीतिक वर्ग ने एक ऐसा कदम उठा लिया है जो जाति को राजनीतिक और आर्थिक निर्णय लेने में वैधानिक दर्जा प्रदान कर देगा, किंतु वे यह नहीं जानते कि इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा. सामाजिक प्रतिगमन का रास्ता खोल दिया गया क्योंकि भारतीय राजनेता बौद्धिक रूप से इतने आलसी हैं कि वे जो कर रहे हैं उसके परिणाम का अनुमान नहीं लगा पाते. अधिकारिक रूप से मान्यताप्राप्त जातिगत आधार पर हिंदू समाज की पुनर्परिभाषा भारत के परिदृश्य को बदल डालेगी. राजनीतिक मोलभाव के लिए जातीय संख्या का इस्तेमाल पहले डींग मारने के लिए किया जा चुका है, जबकि इस बार यह वास्तविक संख्या पर आधारित होगा और इसके आधार पर अधिक हिस्सेदारी की मांग की जाएगी.

 

पिछले साठ सालों से भी अधिक समय से भारतीय आधुनिकतावादियों का एक समूह या तो जातीय आग्रहों से ऊपर उठने का प्रयास करता रहा है या फिर इस सामाजिक संस्था को विवाह और विलाप के रीतिरिवाजों तक सीमित रखा है. अब एक झटके में मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने जाति को केंद्रीय बिंदु बना दिया है. अब भारत में फिर से भारतीयों को उनकी जाति से परिभाषित किया जाएगा और राजनीति भी जाति की गतिशीलता के साथ-साथ चलेगी. जैसे ही भारत बड़े लक्ष्य की दिशा में कदम बढ़ाता है, कुछ छिपे हुए हाथ इसे पीछे खींचने लगते हैं. कांग्रेस की गठबंधन प्रबंधन कुशलता की देश को भारी कीमत चुकानी पडे़गी. यह इतनी भारी होगी कि भारत में बहुत कुछ बाकी नहीं रह जाएगा.

Source: Jagran Yahoo

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