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आखिरकार केंद्र सरकार ने संसद के दोनों सदनों में रिटेल कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने के अपने फैसले के पक्ष में मुहर लगवा ली। दोनों सदनों में केंद्र सरकार को यह सफलता सपा-बसपा के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन के सहारे मिली। रिटेल एफडीआइ का प्रबल विरोध करने के बावजूद जहां सपा-बसपा ने लोकसभा से बहिर्गमन कर सरकार की राह आसान की वहीं राज्यसभा में बसपा ने सरकार के पक्ष में मतदान कर विपक्ष के उस प्रस्ताव को गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की जिसमें सरकार से अपना फैसला वापस लेने के लिए कहा गया था। सपा और बसपा के इस रुख ने देश की संसदीय प्रणाली को लेकर कुछ नए सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या इससे अधिक विचित्र और कुछ हो सकता है कि कोई दल सदन के बहिष्कार अथवा अपने मत का इस्तेमाल करके या फिर न करके ऐसे किसी प्रस्ताव को जानबूझकर पारित होने दे जिसका वह खुलकर विरोध कर रहा हो? सपा और बसपा अपने फैसले का चाहे जो आधार बताएं, उनकी कथनी-करनी का भेद खुलकर सामने आ गया है।
लोकसभा में बसपा ने भाजपा के साथ न खड़े होने के बहाने बहिष्कार किया तो राज्यसभा में उसके आरोपों से कथित तौर पर नाराज होकर सरकार का साथ दिया। बसपा की इस दलील से शायद ही कोई सहमत हो कि अगर वह विपक्ष के प्रस्ताव का समर्थन करती तो उसे भाजपा के साथ खड़ा मान लिया जाता। बसपा की तरह सपा के लिए भी जनता को यह समझाना कठिन होगा कि जिस रिटेल एफडीआइ को वह किसानों-व्यापारियों के लिए खतरनाक बता रही थी उसके खिलाफ वोट देने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा सकी? सपा और बसपा कुछ भी सफाई दें, जनता को यही संदेश गया कि वे संप्रग के दबाव में हैं। ध्यान रहे कि ये दोनों दल समय-समय पर केंद्र सरकार को हर मोर्चे पर असफल भी बताते रहते हैं। कांग्रेस को भला-बुरा कहने वाले ये दल सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा न देने के नाम पर केंद्र सरकार को अपना समर्थन जारी रखे हुए हैं। अब तो ऐसा लगता है कि अगर उन्हें मौका मिले तो वे संप्रग सरकार में शामिल होने में भी संकोच नहीं करेंगे। रिटेल में एफडीआइ के सवाल पर केंद्र सरकार ने भले ही संसद की परीक्षा पास कर ली हो, लेकिन उसकी जीत सवालों भरी है। यह गौर करने लायक है कि इतने महत्वपूर्ण फैसले पर भी केंद्र सरकार सामान्य बहुमत नहीं जुटा सकी।
राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने यह रेखांकित किया कि इस फैसले का फिलहाल कोई असर नहीं पड़ने वाला। हां, इतना अवश्य है कि यदि केंद्र में सत्ता परिवर्तन होता है तब रिटेल में विदेशी निवेश को अनुमति देने के फैसले पर नए सिरे से बहस शुरू हो सकती है। संप्रग सरकार ने रिटेल में एफडीआइ को अनुमति देते हुए यह राज्यों पर छोड़ दिया है कि वे चाहें तो इसे लागू करें। विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्य तो इस फैसले के विरोध में हैं ही, महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार चलाने वाली और संप्रग की प्रमुख घटक रांकापा भी इसे लागू करने के पक्ष में नहीं दिख रही है। केरल सरकार भी अनिच्छुक है। रिटेल कारोबार में विदेशी कंपनियों को केवल उन्हीं शहरों में आने दिया जाएगा जिनकी आबादी दस लाख से अधिक है। राजनीतिक विरोध और दस लाख की आबादी वाली शर्त के कारण स्थिति यह है कि फिलहाल मुश्किल से एक दर्जन शहरों में ही विदेशी कंपनियां आ सकेंगी। स्पष्ट है कि सरकार का यह दावा खोखला नजर आता है कि रिटेल में एफडीआइ आने से अर्थव्यवस्था की स्थिति सुधारने में मदद मिलेगी। एफडीआइ पर अब तक जो भी बहस हुई है उसमें सबसे मजबूत तर्क अरुण जेटली के नजर आए, जबकि सत्तापक्ष की ओर से प्रस्तुत विचार कुल मिलाकर खोखले ही दिखे। अरुण जेटली की इस दलील में दम है कि जिस कोल्ड चेन की दुहाई देकर रिटेल एफडीआइ को जरूरी बताया जा रहा है उसके लिए खुदरा कारोबार को विदेशी कंपनियों के हवाले करने की कोई आवश्यकता नहीं। अच्छा होता कि कोल्ड चेन के निर्माण के लिए ही विदेशी निवेश की मदद ली जाती। इस तर्क को भी आधारहीन नहीं कहा जा सकता कि किसानों को इस फैसले से कोई लाभ नहीं मिलने वाला। इसका कारण यह है कि बड़ी कंपनियां सस्ते में माल खरीद कर ही मुनाफा कमाती हैं।
अरुण जेटली का यह कहना भी सही है कि रिटेल कारोबार करने वाली विदेशी कंपनियां ही बड़े आढ़तियों का रूप ले लेंगी। रिटेल में एफडीआइ को अनुमति देने के पक्ष में सत्तापक्ष की सबसे बड़ी दलील किसानों के हित की है, जबकि सच्चाई यह है कि विदेशी कंपनियों के स्टोर में किसानों से खरीदे गए माल के रूप में केवल फल-सब्जी और दाल होंगे। ये वस्तुएं बड़ी रिटेल कंपनियों के कुल व्यापार का बहुत छोटा भाग हैं। अधिकांशत: उनके स्टोरों में बनी-बनाई खाद्य वस्तुएं, कपड़े और घरेलू जरूरत के अन्य सामान होते हैं, जिन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियां बहुत ही सस्ते दामों पर खरीदती हैं। वे सस्ते दामों पर इन वस्तुओं को आयात करेंगी, जिससे भारतीय घरेलू उद्योग की कमर टूटनी स्वाभाविक है। भारतीय उद्योगपतियों को इसे एक चुनौती के रूप में लेना चाहिए, क्योंकि कहीं न कहीं इस तरह की वस्तुओं के आयात पहले से खुले हुए हैं और कोई जरूरी नहीं कि जिन कंपनियों में एफडीआइ आया हो वही सस्ता आयात कर सकें। भारत में रिलायंस, टाटा, बियानी, भारती और बिड़ला जैसी तमाम कंपनियां व्यवस्थित खुदरा कारोबार कर रही हैं। इसलिए राजनीतिक दलों का यह तर्क सही नहीं कि रिटेल में विदेशी कंपनियों के आने का असर छोटे व्यापारियों पर पड़ेगा, क्योंकि घरेलू कंपनियां पहले से वह सब कर रही हैं जो विदेशी कंपनियां करेंगी। सच्चाई यह है कि छोटे व्यापारियों पर देसी और विदेशी रिटेल कंपनियों का असर एक समान होगा।
रिलायंस फ्रेश ने जब अपना कारोबार शुरू किया था तो उसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में खुदरा कारोबारियों और आढ़तियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। इन्हें राजनीतिक समर्थन भी मिला था, जिसके चलते रिलायंस फ्रेश को कुछ शहरों में अपना कारोबार बंद भी करना पड़ा था। संप्रग सरकार जिस तरह रिटेल में एफडीआइ को अनुमति देने के फैसले को महिमामंडित कर रही है उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। सच्चाई संप्रग के बड़े नेता जानते भी हैं, लेकिन आम जनता को मुगालते में रखने के लिए आर्थिक सुधार की कामयाबी का ढोल पीटा जा रहा है। रिटेल में एफडीआइ का फायदा तभी मिल सकता है जब विदेशी कंपनियों का कारोबार काफी हद तक भारत में निर्मित वस्तुओं पर आधारित हो। इसके लिए भारतीय उद्योगपतियों को भी आगे आना होगा और सरकार को भी ऐसी नीतियां बनानी होंगी जिससे उत्पादन की गुणवत्ता सुधरे। विदेशों में निर्मित सामान की गुणवत्ता और कीमत का मुकाबला फिलहाल भारत में हो रहे उत्पादन से नहीं किया जा सकता। भारतीय उद्योग इस समय बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं। चाहे महंगी ब्याज दर हो अथवा अधर में लटके हुए श्रम सुधार कानून, मौजूदा सरकार की नीतियां उद्योगों पर भारी पड़ रही हैं। संसद की परीक्षा पास करने के बाद केंद्र सरकार को विपक्ष द्वारा रखे गए उचित तर्को पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि विदेशी कंपनियों के असर को कम करने के लिए घरेलू क्षेत्र में उत्पादन का स्तर सुधारने और आधारभूत ढांचे के निर्माण के वायदे वास्तव में पूरे हों।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं
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