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लोकतंत्र में आरक्षण का झुनझुना

संपादकीय ब्लॉग
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आरक्षण और सशक्तिकरण को जिस भांति आज एक-दूसरे का पूरक मान लिया गया है वह एक खतरनाक संकेत दर्शाता है. दलितों और पिछड़ों के भले के नाम पर राजनीतिक दलों ने बहुत रोटियां सेंक ली हैं और अभी भी उनके कदम इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. हर मर्ज की एक दवा बन चुका है आरक्षण.

 

महिला आरक्षण विधेयक के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि पिछले छह दशकों में महिलाओं की संसदीय राजनीति में भागीदारी अपनी स्वाभाविक प्रक्रिया में नहीं बढ़ पाई. इसलिए संविधान में संशोधन कर एक-तिहाई सीटें आरक्षित करना अनिवार्यता है. समर्थन करने वाले दलों के नेता यह नहीं बता पा रहे हैं कि यदि सीटें आरक्षित होने के बाद 33 फीसदी महिलाओं को वे टिकट देंगे तो अभी तक ऐसा करने से उन्हें किसने रोका?

 

महिलाएं समाज के हर क्षेत्र में आगे बढ़ें और उनका सशक्तिकरण हो, इससे भला किसे ऐतराज होगा. किंतु आरक्षण को हर मर्ज की दवा मान लेना भी कितना उचित है?

 

आज अधिकतर वे ही महिलाएं चुनावी अखाड़े मे उतर रही हैं, जिनके पति कानूनी अड़चनों के कारण चुनाव लड़ने के अयोग्य हो चुके हैं या जो राजनीतिक परिवार से हैं. इसलिए असल मुकाबला तो पुरुषों के बीच ही होता है. अचानक एक-तिहाई सीटें आरक्षित हो जाने के बाद राजनेताओं की ही पत्नियां, बेटियां और बहुएं प्रत्याशी इस आधार पर बनाई जाएंगी कि योग्य उम्मीदवार नहीं मिल पाईं. इसके अलावा यह भी विचारणीय है कि आरक्षण से कितना क्रातिकारी परिर्वतन आएगा.

 

सरकारी नौकरियों में दिए गए आरक्षण के कारण निस्संदेह एक क्रांतिकारी परिर्वतन आया जो बिना आरक्षण शायद नहीं हो पाता. समाज के सबसे निचले तबके का व्यक्ति बड़े ओहदों पर आसीन हो पाया. परंतु यह भी उतना ही सही है कि आज दलितों में भी एक आभिजात्य वर्ग पैदा हो गया. आरक्षण का लाभ उठाकर उसी वर्ग को इसका लाभ लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता जा रहा है, दूसरे लोग विकास के निचले पायदान पर पड़े हैं. महिला आरक्षण का भी यही हश्र न हो. विधेयक का विरोध करने वाले कोटे के अंदर कोटे की मांग कर रहे हैं, किंतु यह नहीं बता पा रहे हैं कि जिन वर्गों की वे हिमायत कर रहे हैं, उन्हें टिकट देने से उन्हें रोकता कौन है. इसके अलावा, लोकतात्रिक शासन व्यवस्था में अल्पमत बलप्रयोग के जरिये बहुमत के निर्णय को रोकने की कोशिश करेगा तो यह अलोकतांत्रिक तो होगा ही, इससे अराजकता भी फैलेगी.

 

अंत में, इसे पारित करने में अपनाई गई प्रक्रिया पर विचार करना आवश्यक है. विधेयक का समर्थन करने वाले दलों ने व्हिप जारी कर दिया था. व्हिप जारी करने के बाद सदस्यों को अपने विवेक का इस्तेमाल करने की स्वतंत्रता नहीं रहती और वे एक रोबोट की तरह मतदान में हिस्सा लेते हैं. भारतीय संविधान में राजनीतिक दल का कहीं जिक्र नहीं है जबकि पूरी संसदीय शासन पद्धति दलगत राजनीति पर आधारित है. 1985 में पहली बार संविधान में राजनीतिक दलों को मान्यता मिली जब 52वां संविधान संशोधन कर दल-बदल निरोधक कानून बनाया गया. इस कानून ने सांसदों/विधायकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार छीन लिया. पार्टियां महत्वपूर्ण मसलों पर व्हिप जारी करती हैं और सदन में बहस बेमानी हो जाती है. बहस का अभिप्राय यह होता है कि सदस्य दूसरों के विचार सुनकर अपना मत बनाएं.

 

व्हिप जारी करने से लोकतंत्र की आत्मा खत्म हो जाती है. इस कानून की सांवैधानिकता को उच्चतम न्यायालय में किहोटो होलोहन मामले में चुनौती दी गई, परंतु अदालत ने उसे खारिज कर दिया. कई बार जब सदस्य पार्टी की राय से बिलकुल सहमत नहीं होता तो पार्टी की अनुमति लेकर विवेक मतदान करता है. सिद्धार्थ शकर राय ने तीन बीघा मसले पर ऐसा ही किया था. ऐसा माना जा रहा है कि यदि महिला आरक्षण विधेयक पर विवेक मत की अनुमति होती तो इसे पारित कराना लगभग असंभव होता. परंतु ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर व्हिप जारी कर पारित करना पूर्णत: अलोकतात्रिक है.

Source: Jagran Yahoo

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