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विवादों में घिरा महिला आरक्षण विधेयक

संपादकीय ब्लॉग
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महिला सशक्तिकरण के लिए महिला आरक्षण विधेयक का राज्यसभा में पारित होना अपने आपमें मील का एक पत्थर है, लेकिन यह जिस तरह पारित हुआ और फिर विवादों में घिर गया उससे इसकी महत्ता घटी है. यह सर्वविदित है कि देश में महिलाओं का स्तर पुरुषों से नीचे है. संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व आठ-नौ प्रतिशत के आसपास है. यह प्रतिशत कुछ पड़ोसी देशों से भी कम है. ज्यादातर दलों और विशेष रूप से कांग्रेस, भाजपा और वामदलों का यह मानना है कि यदि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी तो इससे सामाजिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन आएगा. इस मान्यता से असहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन यह तथ्य चकित करता है कि महिला आरक्षण विधेयक 14 वर्षो बाद संसद के उच्च सदन से पारित हो सका और वह भी तब जब सदन में मार्शल बुलाने पड़े.

 

सपा और राजद के सांसदों ने विधेयक को पारित होने से रोकने के लिए हर संभव प्रयास किए, लेकिन वे असफल रहे. यह बात और है कि अब इन्हीं दलों की आपत्ति के चलते यह विधेयक लोकसभा में नहीं लाया जा सका. यह इन दोनों दलों की एक बड़ी राजनीतिक सफलता है. स्थिति यह है कि जहां खुद कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक को ठंडे बस्ते में डालती दिख रही है वहीं भाजपा में इस विधेयक को लेकर असंतोष बढ़ता जा रहा है.
इसमें संदेह नहीं कि भाजपा और वामदलों के साथ-साथ कांग्रेस यह साबित करना चाहती थी कि वह महिलाओं को विधानमंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन उसे उस स्थिति का भान होना ही चाहिए था जो अब उसके समक्ष पैदा हो गई है. इस संकट के लिए कांग्रेस ही अधिक जिम्मेदार है, क्योंकि लालू यादव और मुलायम सिंह तो पहले दिन से महिला आरक्षण के अंदर आरक्षण देने की मांग कर रहे थे.

 

महिला आरक्षण के मौजूदा स्वरूप से यह स्पष्ट है कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें बारी-बारी से बदलती रहेंगी. इस प्रावधान के चलते एक खतरा यह है कि एक बड़ी संख्या में सांसदों को अपना निर्वाचन क्षेत्र छोड़ना होगा. जिन सांसदों को महिला आरक्षण के कारण अगली बार चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिलेगा वे या तो अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास को लेकर उदासीन हो जाएंगे या फिर वहां से अपने परिवार की महिलाओं को प्रत्याशी बनाने की कोशिश करेंगे. इस पर आश्चर्य नहीं कि महिला आरक्षण का लाभ नेताओं की पत्नियां, बहुएं और बेटियां ही अधिक उठाएं.

 

एक धारणा यह भी है कि महिला आरक्षण के चलते एक तिहाई महिलाएं तो लोकसभा और विधानसभाओं में पहुंचेंगी ही, आगे चलकर इनमें से कई महिलाएं गैर आरक्षित सीटों से भी चुनाव जीत सकती हैं. यदि ऐसा हुआ तो सदनों में महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या एक तिहाई से अधिक भी हो सकती है. ऐसा होने में कोई बुराई नहीं, क्योंकि महिलाओं की आबादी तो 50 प्रतिशत के आसपास है, लेकिन इस संभावना से पुरुष नेताओं का चिंतित होना स्वाभाविक है. ऐसा लगता है कि महिला आरक्षण के विरोध के पीछे एक कारण यह भी है. जो भी हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यदि महिला आरक्षण के समर्थक दल व्हिप जारी न करते तो राज्यसभा में दूसरी ही तस्वीर बनती.

 

यह आवश्यक है कि महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा में पेश करने के पहले लालू यादव, मुलायम सिंह की आपत्तियों को सुनने के साथ-साथ उन सवालों पर भी गौर किया जाए जो महिला आरक्षण विधेयक के मौजूदा स्वरूप को लेकर उठ रहे हैं. समाज का हित इसी में है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के कदम आम सहमति से उठाए जाएं. कुछ अन्य विकल्पों पर भी विचार किया जाना चाहिए जैसे चुनाव आयोग द्वारा यह निर्देशित किया जा सकता है कि राजनीतिक दल एक निश्चित प्रतिशत में महिलाओं को राज्यवार टिकट दें.
यह भी समय की मांग है कि महिलाओं के सामाजिक उत्थान के प्रत्यक्ष प्रयास किए जाएं, क्योंकि भारतीय समाज अभी भी पुरुष प्रधान है. यहां न केवल बेटों की लालसा पहले जैसी है, बल्कि महिलाओं को अक्सर बराबरी का दर्जा देने से इनकार किया जाता है. ऐसे समाज में केवल राजनीति में महिलाओं की संख्या बढ़ाने से अभीष्ट की प्राप्ति होने वाली नहीं.

 

सामाजिक स्तर पर महिलाएं सशक्त हों, इसके लिए उनकी शिक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए और सुरक्षा पर भी. अभी तो वे कोख तक में सुरक्षित नहीं हैं. बेहतर होगा कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए सभी का सहयोग लिया जाए और कम से कम इस मामले राजनीतिक हानि-लाभ हासिल करने की भावना से ऊपर उठा जाए.

Source: Jagran Yahoo

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