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कितनी विचित्र है यह बात कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की स्वतंत्रता भयंकर अशांति के बीच आई। एक ओर सरकारें शपथ ले रही थीं, दूसरी ओर पश्चिमी और पूर्वी भागों में रोंगटे खड़े कर देने वाला खून-खराबा हो रहा था, असंख्य लाशें बिखरी थीं, नग्न स्त्रियों के जुलूस निकाले जा रहे थे, उनके साथ दुष्कर्म हो रहे थे और लाखों लोगों के काफिले अपना सब कुछ लुटवा कर, घर से बेघर होकर, अपनी मातृभूमि छोड़कर अन्यत्र बसने के लिए भाग रहे थे। यह भी कम विचित्र नहीं है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के दो महीनों के अंदर ही दोनों देशों की सेनाएं बंदूकें ताने एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं। फिर कुछ ही वषरें में उन्होंने कितने ही युद्ध लड़ लिए थे।
यह स्थिति थी दो देशों की, दो सरकारों की, दो सेनाओं की। किंतु देश न सरकारों से बनते हैं, न सेनाओं से बनते हैं। देश तो उन करोड़ों लोगों से बनते हैं जो वहां बसते हैं। एक ही भौगोलिक इकाई में जीने वाले लोगों के बीच एक लकीर खिंच गई थी। सरकारों ने लड़ाइयां लड़ीं और लोग पेशावर से मुंबई तक की यात्रा के लिए तड़पने लगे। मैंने यह तड़प देखी है। कुछ वर्ष पूर्व मैंने कुछ साथी लेखकों के साथ पंजाब की धड़कनों में बसे कवि सैयद वारिस शाह के उर्स में भाग लेने के लिए पाकिस्तान की यात्रा की थी। जंडियाला शेर खां में सारी रात वारिस शाह की ‘हीर’ का गायन होता रहा। विभाजन पूर्व के दिनों की याद करके, उस काव्यात्मक वातावरण में दोनों ओर के लेखकों की आंखें नम थीं और कुछ-कुछ लाल भी। तभी हमें वहां के एक लेखक ने पाकिस्तान के चर्चित कवि उस्ताद दामन की एक कविता की दो पंक्तियां सुनाई थीं:
लाली अखियां की पई दसदी ए,
रोये तुसीं वी हो, रोये असीं वी हा।
उसके बाद मेरा कई बार पाकिस्तान जाना हुआ। कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं किसी शत्रु देश में आया हूं। मुझे सदैव लगा कि सड़कों, बाजारों पर चलने वाले असंख्य लोग मुझे अपने आगोश में लेने के लिए अपनी बाहें पसारे हुए हैं। फिर भी हम इस मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाते कि हमारे पड़ोस में एक शत्रु देश है। भारत में आतंक फैलाने के लिए वहां जिहादी और फिदाईन तैयार किए जाते हैं।
हम स्वतंत्रता दिवस मनाएं, गणतंत्र दिवस मनाएं, दीवाली मनाएं या ईद मनाएं, हमें किसी फिदाईन हमले का डर सताता रहता है। दोनों ही देशों में ऐसे प्रबुद्ध और जागरूक लोगों की बड़ी संख्या है जो यह मानते हैं कि दोनों में वैर भाव सरकारों के स्तर पर है, जनता के स्तर पर नहीं। व्यापक रूप से दोनों देशों की जनता में, कुछ कट्टरपंथी तत्वों को छोड़कर बहुत सद्भाव है। दोनों ओर के लोग एक-दूसरे से मिलना चाहते हैं, संस्कृति और कला के क्षेत्र में आपस में आदान-प्रदान करना चाहते है और मिलजुल कर रहना चाहते हैं। इस प्रकार के सद्भावी प्रयास दोनों देशों के बुद्धिजीवी पिछले छह दशकों से निरंतर करते रहे हैं। 14-15 अगस्त की रात को दोनों देशों के अनेक जागरूक लोग वाघा सीमा पर पहुंच कर मोमबत्तियां जलाते हैं, इस भावना के साथ कि दोनों ओर जलाई जा रही ये मोमबत्तियां दोनों देशों की जनता के मध्य सद्भाव और प्रेम का प्रदर्शन हैं। इस समय फिर दोनों देशों के मध्य अमन की आशा की व्यापक चर्चा हो रही है। कुछ वर्ष पूर्व पाकिस्तान के प्रमुख पत्रकार इलियाज अहमद ने एक पहल की थी। उन्होंने साउथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन नाम से एक संस्था बनाई। यह संस्था भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बाग्लादेश, श्रीलंका जैसे दक्षिणी एशियाई देशों के पत्रकारों को एक मंच प्रदान कर रही है। संस्था का पहला सम्मेलन इस्लामाबाद में हुआ। फिर काठमाडु और ढाका में। इन सम्मेलनों की परिधि दक्षिण एशिया थी, किंतु विशेष रूप से भारत और पाकिस्तान के पत्रकार ही इनमें सम्मिलित होते थे।
मैंने ‘साफमा’ द्वारा आयोजित इन तीन सम्मेलनों में भाग लिया था और कई दिनों तक पाकिस्तानी पत्रकारों के निकट संपर्क में रहा था। वहां मैंने महसूस किया था कि वे सभी पत्रकार आपस में तनाव घटाने और दोनों देशों में सास्कृतिक, व्यापारिक आदान-प्रदान स्थापित करने के बहुत इच्छुक थे। पाकिस्तानी पत्रकार इस बात के प्रति भी बहुत आग्रहशील थे कि भारत और पाकिस्तान की सरकारों के मध्य कभी संवाद नहीं रुकना चाहिए। आज की स्थिति यह है कि तालिबानी आतंकवादियों से भारत की अपेक्षा पाकिस्तान कहीं अधिक त्रस्त है। अफगानिस्तान से लगते वजीरिस्तान और स्वात घाटी में उनकी समानांतर सत्ता स्थापित है। पाकिस्तान की सशस्त्र सेनाओं को उनसे युद्ध करना पड़ रहा है। आज पाकिस्तानी जनता का बहुमत यह स्वीकार करने लगा है कि पाकिस्तान को भारत से इतना डर नहीं है, जितना तालिबानी तत्वों से है। यह भी सच है कि दोनों ही देशों में ऐसे कुछ लोग है जो यह समझते है कि दूसरे देश का अस्तित्व ही उनके संकट का सबसे बड़ा कारण है। पाकिस्तान में कुछ जिहादी तत्व भारत के प्रति निरंतर आक्रामक दृष्टि रखना और उसका विनाश करना जिहाद मानते हैं। भारत में भी कुछ लोग ऐसी ही मानसिकता से ग्रस्त हैं। हाल में ही एक मासिक पत्रिका ने अपना एक विशेषाक निकाला है-पाकिस्तान मिटाओ। ऐसी ही मानसिकता के कारण वातावरण विषाक्त हो रहा है। इस स्थिति में अमन की आशा के रूप में जो अभियान शुरू हुआ है, वह स्वागत योग्य है। पाकिस्तान की सरकार और जनता को एक करके नहीं देखना चाहिए। सरकारों में मतभेद होंगे, दोषारोपण होंगे, अपने-अपने तर्क होंगे और बड़ी तनावपूर्ण स्थितियां भी उत्पन्न होने की संभावना बनी रहेगी। किंतु दोनों देशों की जनता के बीच सौभाग्यवश कोई कटुता नहीं है और यही अमन की सबसे बड़ी आशा है।
[डा. महीप सिंह: लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं]
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