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हौसले की उड़ान

संपादकीय ब्लॉग
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nkant1-1_1263234048_mहरियाणा देश के संपन्न राज्यों में गिना जाता है और उसमें भी गुड़गांव की गिनती उसके सबसे संपन्न जिलों में होती है। गुड़गांव की संपन्नता सिर्फ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का हिस्सा होने के नाते ही नहीं, बल्कि अपनी औद्योगिक-व्यावसायिक गतिविधियों के नाते भी है। उद्यमिता यहां के लोगों के स्वभाव में है और इसे हाल ही में साबित कर दिखाया है यहीं के एक गांव के लोगों ने। देश की राजधानी दिल्ली के बिलकुल निकट होने और रेल लाइन से जुड़े होने के बावजूद आजादी के साठ साल बाद तक भी यह गांव सन् 2009 के अंत तक एक अदद रेलवे स्टेशन से वंचित था। जी हां, हम बात कर रहे हैं ताजनगर गांव की, जिसने बीते हफ्ते पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था। अगर रेलवे प्रशासन या सरकार के भरोसे होते तो आगे भी न जाने कब तक गांव वालों को ट्रेन की सवारी नसीब नहीं होती। उन्हें यह सुविधा मिली तो अपने ही दम पर। ताजनगर के ग्रामीणों ने सरकार से रेलवे स्टेशन बनवाने का खर्च उठाने की उम्मीद नहीं की, उन्होंने खुद पैसा जुटाया और स्टेशन बनवा लिया। जाहिर है, अब तो सरकार को ट्रेन रुकने की अनुमति देनी ही थी और वह उसने दे भी दी।
ताजनगर के लोगों का यह काम सिर्फ हौसले और हिम्मत का ही नहीं, आपसदारी की भी एक बड़ी मिसाल है। एक ऐसे समय में जबकि सरकार की ओर से चलाए गए सहकारिता के तमाम प्रयास न केवल सिरे चढ़ने से रह गए, बल्कि समितियों में विभिन्न पदों पर काबिज लोगों की आपसी खींचतान के चलते बुरी तरह विफल हुए और इसके चलते आम जनता की बड़ी धनराशि का नुकसान भी हुआ, तब अगर लोग खुद अपने स्तर से ऐसे प्रयास करके और उसे सफलता के अंतिम सोपान तक पहुंचा कर दिखाएं तो यह अपने आपमें एक बड़ी बात है। लोगों ने यह धन कहीं इधर-उधर से नहीं, बल्कि आपस में जुटाकर ही इकट्ठा किया है। बमुश्किल तीन हजार की आबादी वाले इस गांव के अधिकतर लोगों का व्यवसाय कृषि ही है। रेलवे स्टेशन के निर्माण पर कुल 25 लाख रुपये खर्च हुए हैं। इस पूंजी से यहां एक टिकटघर बना है, कुछ बेंचें लगी हैं और पीने के पानी की भी व्यवस्था हो गई है। अगर गणितीय हिसाब से औसत निकाला जाए तो प्रति व्यक्ति 900 रुपये से भी कम का खर्च है यह, अगर केवल इसी एक गांव से सारा पैसा जुटाया गया हो तो। वैसे प्रति परिवार यह खर्च तीन हजार रुपये या अधिक का आया है। इससे लाभान्वित होने वाले गांवों में आसपास के जमालपुर, जोड़ी, सांपका, फाजिलपुर, जोनियवास आदि भी शामिल हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत जैसे देश में जहां अधिकतर आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीने वाली है और गरीबी रेखा का मानक भी ऐसा अव्यावहारिक है कि उसका होना न होना कोई मायने ही नहीं रखता, वहां कई परिवारों के लिए तीन हजार रुपये की रकम जुटा पाना बहुत मुश्किल है। क्या पता कुछ परिवारों ने रुपये न भी दिए हों और उनके हिस्से का खर्च दूसरे संपन्न परिवारों को उठाना पड़ा हो, तो भी उन्होंने यह कार्य किया और यह साबित भी किया कि इस नितांत व्यक्तिवादी युग में जब एक परिवार के ही भीतर आपसी समझ बनाना बहुत बड़ी चुनौती होता जा रहा है, तो भी अगर तय कर लिया जाए तो पूरे गांव के बीच भी आपसी समझ बनाई जा सकती है। यह सिर्फ इच्छाशक्ति की दृढ़ता ही नहीं, प्रयास की निरंतरता का भी एक बहुत बड़ा प्रमाण है। सबसे बड़ी बात यह कि यह भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम जनता की बुनियादी आदत ‘हर बात के लिए सरकार पर दोष मढ़ने’ से अलग हटकर खुद कुछ करके दिखा देने की सकारात्मक सोच का जीवंत प्रमाण है। वस्तुत: आज यही सोच पूरे देश की सबसे बड़ी जरूरत है, जिसे हम अपना नहीं पा रहे हैं।
वैसे निजी स्तर पर इसका एक बड़ा उदाहरण बिहार के दशरथ मांझी पेश कर चुके हैं। गया जिले के बेहद पिछड़े गांव गहलौर के रहने वाले दशरथ ने पहाड़ का सीना चीर कर तीन किलोमीटर लंबी सड़क अकेले अपने दम पर बनाई। हाथ में छेनी-हथौड़ी लिए पूरे 22 साल तक वह इस काम में जुटे रहे। न तो उन्हें कोई पुरस्कार मिलने की उम्मीद थी और न ही सम्मान। गांव के सीधे-सादे आदमी दशरथ ने तो यह भी कभी सोचा नहीं होगा कि लोग उन्हें इस काम के लिए याद भी करेंगे। फिर भी वह अकेले 22 साल तक लगातार काम करते रहे और आखिरकार सड़क बनाने में सफल रहे। दशरथ ने जब इस काम को अंजाम दिया था तभी यानी अबसे करीब तीन साल पहले ही इस काम की कीमत सरकारी हिसाब से करीब 22 लाख रुपये के आसपास थी। इसके लिए उन्होंने किसी से न तो कोई मजदूरी ली और न ही सहयोग। दशरथ चाहते थे कि यह सड़क पक्की हो जाए। इसके लिए वह कई नेताओं-मंत्रियों से मिले भी। आश्वासन भी सबने दिए, पर कुछ काम भी हो सका या नहीं, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।
सरकारी तंत्र हमारे यहां कैसे काम करता है, इस बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि अब अगर छह दशक तक लोकतंत्र के अनुभवों के बाद भी अगर कोई यह उम्मीद करता है कि सरकार के स्तर से कुछ हो सकता है तो इसे कोरी कल्पनाशीलता ही कहेंगे। खासकर तब जबकि खुद एक प्रधानमंत्री ही यह कह चुके हैं कि सरकारी खजाने से जो एक रुपया भेजा जाता है, उसमें से केवल 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं। बाकी 85 पैसे कहां जाते हैं, इस बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
यह स्थिति किसी एक विभाग की ही नहीं, हमारी पूरी व्यवस्था की है और इस बात पर हमारी व्यवस्था को कोई शर्म नहीं है। ऐसी स्थिति में बेहतर यही है कि जनता जिस काम को जरूरी समझे उसके लिए आपस में ही सहमति बनाए और जुट जाए। ऐसा सिर्फ सार्वजनिक सुविधाओं ही नहीं, दूसरी बुनियादी समस्याओं के समाधान के मामले में भी होना चाहिए।
आम जनता अगर यही तरीका बुनियादी मामलों में भी अपना ले तो अशिक्षा, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं का समाधान भी हो सकता है। अगर जनता अपनी मेहनत से 25 लाख की राशि जुटा सकती है और अकेले एक व्यक्ति 22 लाख रुपये मूल्य की सड़क बना सकता है तो थोड़ी पूंजी जुटाकर उसे पक्की क्यों नहीं कर सकता? यही बात छोटे से लेकर मझोले और बड़े उद्योगों तक के मामले में हो सकती है। जो जनता चंदे से पैसा जुटाकर रेलवे स्टेशन बना सकती है, वह ऐसे ही पूंजी जुटाकर कोई उद्योग शुरू क्यों नहीं कर सकती है? वह ऐसे ही पूंजी जुटाकर स्कूल-कॉलेज भी शुरू कर सकती है। जनता अगर ठान ले तो ये सारी समस्याएं हल हो सकती हैं। यह अलग बात है कि इससे सरकार के कल्याणकारी होने की धारणा पर प्रश्नचिन्ह जरूर लगने लगेगा और राजनेताओं को इस विषय पर अब सोचना शुरू कर देना चाहिए। दुनिया के साथ-साथ अब भारत की जनता भी सिर्फ विकास की दिशा में सोचने लगी है। ऐसी स्थिति में उनका क्या होगा, जो सिर्फ जाति-धर्म की ही राजनीति करने के अभ्यस्त हैं?
[निशिकान्त ठाकुर : लेखक दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक है]

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