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HAPPY DAUGHTER’S DAY: घर से बाहर वो ‘बेटी’ नहीं बस ‘लड़की’ रह जाती है

Jagran Junction Blog
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भारतीय समाज में बेटियां लक्ष्मी मानी गई हैं। लक्ष्मी जिसके कदम हमेशा सुख और समृद्धि लेकर आते हैं। आज की छोटी सी नन्हीं गुड़िया ही जो हमारे घर बेटी बनकर आती है, लक्ष्मी कहलाती है, हर अच्छे काम की शुरुआत हम जिसके हाथों से करना चाहते हैं कल यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही वह हमारे कंधों पर भारी बोझ की तरह लगने लगती है। बेटी की हर इच्छा हम पूरी करना चाहते हैं लेकिन उसकी हर इच्छा के लिए एक दायरा भी तय कर आते हैं।


कितनी अजीब बात है आज जब हमारा समाज आधुनिक बन रहा है, रोज आधुनिकता के नए मानकों का पालन कर रहा है, हर नए दिन हमारी सोच का दायरा बढ़ रहा है। हम आज जो अपनाने को तैयार नहीं होते आने वाले कल में उसे आसानी से अपना लेते हैं। लेकिन ऐसा लगता है बेटियों के लिए यह समाज अपनी सोच में कदम आगे की ओर नहीं बल्कि पीछे की ओर बढ़ा रहा है। बेटियां अपने परिवार के बाहर लड़की बन जाती हैं और हमेशा समाज में अपनी स्थिति तय करने के लिए विवादित रही हैं। यह बहस सिर्फ भारतीय समाज का अंश नहीं लेकिन विश्व के हर कोने में, हर समाज, हर धर्म और जाति का हिस्सा रही है। हां, भारतीय हिंदू समाज इस मामले में इस रूप में अलग जरूर है कि यह बेटियों/स्त्रियों को ‘देवी का रूप’ मानता है, ‘जगजननी’ मानता है। हमारे धर्मग्रंथ भी इस बात की पुष्टि करते हैं और हम तमाम त्यौहारों में स्त्रियों के देवी रूप की पूजा करते हैं।


इस पर आज विशेष ध्यान देने की जरूरत है “बेटियां जगजननी मां अम्बे का रूप हैं”। ‘मां अम्बे का रूप’ क्योंकि बेटियां ही प्रक़ृति की वह रचना हैं जिसने ‘मां’ के रूप में आज भी सृष्टि के विकास क्रम को जारी रखा है। मां-बाप की छोटी बिटिया ही एक औरत के रूप में ‘मां’ बनकर अपने खून से सींचकर एक नए जीवन को सृष्टि में लाती है। यह क्रम जारी रहता है। कहते हैं ‘मां अम्बे’ ने ही दुनिया की रचना की है, शायद इसीलिए उन्हें देवी से इतर ‘मां’ का नाम दिया गया और इसी जगह देवी से बड़ा और महान ‘मां’ शब्द बन जाता है। अजीब विडंबना है हमारे समाज की कि इतनी मान्यताओं को समेटने के बावजूद आज भारत विश्व के उन देशों में शामिल है जहां बेटियां सबसे ज्यादा शोषित हैं।


मुद्दे पर आते हैं, आज का विश्लेषण करते हैं। विश्व के तीन बड़े धर्म समुदायों ईसाई, मुस्लिम और हिंदू में मुस्लिम समुदाय महिलाओं के लिए हमेशा ज्यादा रूढ़िवादी माना जाता रहा है। हिंदू और ईसाई समाज महिलाओं के खुलेपन के पक्षधर रहे हैं लेकिन हिंदू समाज की महिलाओं को दी गई दैवी मान्यता इसे इन सबमें सबसे ऊपर रखती है। वस्तुत: आज की स्थिति जो बयां कर रही है वह धर्म से अलग होकर सामाजिक हो गई है। इसका आशय यह कहना कतई नहीं है कि समाज धर्म से अलग है लेकिन केवल यह है कि एक तरह के सामाजिक वातावरण में रहने वाले लोगों की मानसिकता धार्मिक मान्यताओं से अलग सामाजिक क्रियाकलापों से प्रभावित हो रही हैं। पश्चिमी देशों में जहां ईसाई धर्म की बहुलता है, हमेशा ही महिलाओं के आचार-व्यवहार में खुलापन रहा है और आज भी है। ऐसा भी नहीं है कि वहां महिलाओं के खिलाफ हिंसा नहीं होती लेकिन वहां की स्थिति भिन्न है। कुछ मुस्लिम बहुल देशों के महिला-आचार पर नजर डालते हैं। अरब, सीरिया जैसे देश जहां कट्टर मुस्लिमपंथी हैं और महिलाओं को घर-बाहर हर जगह कड़े धार्मिक मानकों का पालन करना पड़ता है वहां भी आज स्थिति बदल रही है। अरब में महिलाओं को बुरका के संबंध में सख्त हिदायतों का पालन करना पड़ता है, यहां महिलाएं नौकरी करने के लिए भी आजाद नहीं हैं, इनकी पढ़ाई के लिए तमाम तरह की पाबंदियां हैं लेकिन बदलते वक्त के साथ स्थिति यहां भी बदलने लगी है और महिलाएं धीरे-धीरे इन पाबंदियों से बाहर निकल रही हैं। लेकिन भारतीय समाज जहां हर धर्म के लोग हैं इस मामले में कुछ अलग ही नजर आता है।


भारतीय समाज हिंदू बहुल समाज माना जाता है। यहां की विचारधारा हमेशा लड़कियों को दैव रूप देने की रही है। भले ही बेटी को अपनी इच्छा बताने का हक नहीं लेकिन नई कार आने पर आज भी पूजा इस ‘घर की लक्ष्मी’ से ही कराई जाती है। कल भी स्थिति यही थी, गांवों तक में नई गाय-भैंसे, ट्रैक्टर आदि खरीदने पर लड़की ही इसका पूजन करती है। बहुत ही गंभीर सवाल खड़े करता है बेटियों का यह ‘सामाजिक दैव रूप’। सवाल इसलिए खड़े करता है क्योंकि वक्त बदलने के साथ बहुत सी मान्यताएं, विचारधाराएं बदली हैं। आधुनिकता के नए लबादे के साथ समाज ने खुद में बहुत बदलाव किए। रहन-सहन के तौर-तरीकों के साथ लड़कियों की स्थिति भी बदली। लंबे घूंघट वाली साड़ी छोड़ वे फैशनेबल सलवार-सूट में आईं और जींस-टॉप में अब वे दौड़ने-कूदने में भी बेहिचक आगे रहती हैं। बड़े शहरों की भाग-दौड़ हो या कहीं खेतों में काम करना हो, हर जगह स्थिति बदली है, महिलाएं विकास की धुरी बनती नजर आ रही हैं। लेकिन एक नया दर्दनाक चेहरा जो पहले से भी कहीं ज्यादा भयानक है वह है ‘लड़की के नाम पर शोषण’। लड़की के नाम पर कई पाबंदियां कम हो गई हैं। मां-बाप के लिए पहले बेटियां बस ‘शादी कर विदा’ करने की जिम्मेदारी होती थीं। आज उनकी ‘पढ़ाई और कॅरियर की जिम्मेदारी’ भी जुड़ गई है। लेकिन लड़कियों को देखने का अंदाज कहीं भी बदला नहीं बल्कि पहले से भयानक रूप में नजरें बदली हैं इनके लिए।


लड़कियों के साथ छेड़छाड़, बलात्कार जैसी घटनाएं आज आम हो गई हैं। दिन ब दिन ये घटनाएं घटने की बजाय बढ़ रही हैं जबकि आधुनिकता की स्वीकार्यता के साथ इन घटनाओं में कमी आने की आशा थी। यह और बात है कि आशाओं का दामन थामने वाले भी हम ही हैं और उसे तोड़ने वाले भी हम ही हैं।


आज यानि 22 सितंबर 2013 को ‘डॉटर्स डे’ है, बेटियों के लिए खुशी मनाने का एक दिन। आज मां-बाप के लिए भले ही बेटियां बोझ नहीं रह गई हैं। शादी कर बेटियां पराई भी नहीं हो रही हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बेटियां बेटों की तरह ताउम्र मां-बाप की जिम्मेदारी भी उठा रही हैं। पहले की तरह ‘बेटी के घर का पानी नहीं पीना है’, यह सोच भी बदल रही है और लोग बेटियों को भी बुढ़ापे का सहारा मान रहे हैं। यहां तक कि बेटियां श्राद्ध कर रही हैं। लेकिन ये मां-बाप, यहां तक कि बेटियां खुद भी हर दिन, हर पल इस डर के साए में जीती हैं कि कहीं कल को या अगले ही पल उनके साथ कुछ अनहोनी न हो जाए। मां-बाप बेटियों की हर इच्छा पूरी करना चाहते हैं लेकिन उन्हें डर सताता है कि कहीं उनकी बेटियों के साथ कुछ ऐसा न हो जाए कि उनकी बेटी की हर इच्छा ही मर जाए, वह कुछ चाहे ही ना। ऐसा इसलिए है क्योंकि घर से बाहर वे बेटियां ‘बेटियां’ न रहकर ‘लड़कियां’ बन जाती हैं। हर लड़की हर किसी की बेटी और बहन नहीं होती लेकिन ‘किसी की बेटी होती है’ यह तो सभी जानते हैं। तो यह क्यों भूल जाते हैं?


इस पूरे प्रसंग का एक जो निष्कर्ष यहां डालना है वह यह कि बेटियां ‘दैव’ नहीं हैं। इंसान को इंसान ही रहने दो क्योंकि भगवान बनकर हर कोई स्वार्थ से परे हो जाता है, हर किसी के लिए त्याग करने वाला बन जाता है। बेटियों को भी शायद यह समाज स्वार्थ से परे, ‘त्याग की मूर्ति’ बनाना चाहता है, ऐसी त्याग की मूर्ति जो किसी की नाजायज नजरों से बचने के लिए खुद को ही दायरे में बांध लें और अगर फिर भी नजर में पड़ जाएं तो दो-चार आंसू बहाकर, दया-सहानुभूति के दो शब्द सुनकर शांत हो जाएं। हम कभी यह क्यों नहीं कहते कि बेटियां अगर देवी दुर्गा का रूप हो सकती हैं, लक्ष्मी हो सकती हैं, तो बेटे भी तो ‘शिव’ का रूप हो सकते हैं, विष्णु का अवतार हो सकते हैं। अजीब बात है कि हर बेटी को लक्ष्मी बनाकर घर की देहली से बांध दिया जाता है और बेटों में कोई-कोई इतना महान बन जाता है कि वह आसाराम बन जाता है। मतलब एक को हर रूप में मंदिर की मूर्ति बनाकर सजा दो और एक को भगवान का इंसानी रूप बनाकर भी शोषण का मौका दो। हमें अपनी यह सोच बदलनी होगी। बेटियों को ‘देवी’ रूप से हटाकर ‘इंसान’ बनाना होगा।

जागरण जंक्शन की ओर से सभी सम्मानित पाठकों को “HAPPY DAUGHTER’S DAY” की शुभकामनाएं


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