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‘नवरात्रि’ में हम ‘नव दुर्गा’ की उपासना करते हैं। नवरात्र यूं तो ‘पवित्र रात्रि’ का प्रतीक है, ऐसी रात्रि जो पाप रूपी अंधेरे का शमन कर जीवन में नई रौशनी का संचार करती है। प्रतीकात्मक तौर पर नवरात्रि पाप पर पुण्य की विजय का प्रतीक है। अपितु नौ दिनों तक नौ देवियों की पूजा कर जीवन के समस्त बवंडरों से मुक्ति पाने की कामना भी इसमें विशेष स्थान रखती है। देवी दुर्गा जो स्त्री का प्रतीक है, जो ‘शक्ति’ कहलाती है उसकी पूजा की जाती है, जीवन के समस्त दुखों-पापों, अंधेरों का नाश कर इसमें खुशी और सौंदर्य के रूप में नव ऊर्जा के संचार की कामना-प्रार्थना के साथ। कई संदर्भों में हिंदू धर्म का यह ‘धार्मिक आयोजन’ या धार्मिक परंपरा वास्तविक धरातल पर अपने ही आधार पर प्रश्नचिह्न लगा जाती है।
‘शक्ति’ अर्थात ‘शत्रुओं को जीतने वाली’, ‘दुर्गा’ का विस्तार संभवत: ‘दुर्ग’ शब्द से हुआ हो। ‘दुर्ग’ अर्थात् ‘किला’ जो सुरक्षा का प्रतीक है, सम्मान का हकदार है। स्त्री रूप का प्रतिनिधित्व करती ‘दुर्गा’ व ‘शक्ति’ दोनों ही सुरक्षा व सम्मान का प्रतीक हैं। संभवत: इसीलिए दुर्गा को देवी कहा गया। किंतु प्रतीकात्मक ये पूजा आध्यात्मिक धरातल पर भले ही मायने रखती हो, असलियत की जिंदगी में पाखंड और प्रपंच नजर आता है, नारी के दुख का कारण नजर आता है।
दुर्गा के रूप में पूजी जाने वाली शक्ति स्वरूपा स्त्री आज अधिकांश रूप में बेबस और लाचार नजर आती है। नारी का रूप बदला है किंतु नारी के प्रति संकीर्ण अवधारणाएं आज भी नहीं बदलीं बल्कि और संकीर्ण होती जा रही हैं। घर की लक्ष्मी बेटियां, गृहलक्ष्मी बेटियां, बहू लक्ष्मी आदि..और जब स्त्री क्लांत (गुस्सा) हो जाए तो वह दुर्गा का रूप ले लेती है जो ‘पाप का नाश’ के संदेश के रूप में नहीं बल्कि ‘नाशक’ के रूप में कही जाती है। इस संदर्भ में दो दृश्य हैं:
एक तरफ बेटी-बहू या पत्नी-बहन या किसी भी रिश्ते में स्त्री सबसे पहले लक्ष्मी बनाकर घर की इज्जत से बांध दी जाती है। जिस प्रकार जाती हुई लक्ष्मी को कोई बर्दाश्त नहीं कर सकता, ऐसा लगता है हर रूप में स्त्री पर आई आंच घर की तिजोरी पर सेंध मार गई। उस स्त्री, लड़की के सम्मान को आघात पहुंचा यह कोई नहीं पूछता लेकिन उससे जुड़े लोगों के सम्मान तार-तार कर देने का ‘क्लेश’ उस नारी के साथ जुड़ जाता है। घर की इज्जत होने के इसी ताने के साथ उसे पिता-पति-भाई द्वारा संभालकर रखे जाने की बात समझाई जाती है या संभलकर रहने की हिदायत (न कि अपनी सुरक्षा की सीख) दी जाती है।
दूसरी तरफ है एक परिवार के बाहर उसी स्त्री, बेटी-पत्नी का अस्तित्व। जैसे परिवार उसे लक्ष्मी कहकर संभालता है, समाज उसे शायद लक्ष्मी समझकर ही छीनना या पाना चाहता है या दूसरों की लक्ष्मी को नुकसान पहुंचाना चाहता है क्योंकि लक्ष्मी हमसे ज्यादा दूसरों की न हो और हमें जितनी मिले कम है। इसलिए जहां नजर पड़ी पा लो, नसीब से मिली ठीक, नहीं मिले तो छीनकर।
प्रतीकात्मक तौर पर देखें शायद एक घर की चारदीवारी और उसके चौखट के बाहर का यह दृश्य ही इस लक्ष्मी को ग्रहण लगाकर कहीं अंधेरे ‘लॉकर’ में गुम हो जाने को बाध्य करती है। अगर हकीकत की खुरदरी जमीन की नमी का अंदाजा लें, ‘शक्ति’, ‘दुर्गा’ जिसे समाज स्त्री का प्रतीक मानता है, दुखों के निवारण हेतु पूजा करता है, अपने हर संबोधन में वह औरत को दुर्गा या शक्ति नहीं कहता। अमूमन ये औरतें लक्ष्मी ही कहलाती हैं जिसका नकारात्मक अर्थ निकलता है ‘कमजोरी’ या ‘जो कमजोर का प्रतिनिधित्व करती है’ (लक्ष्मी माया का रूप मानी जाती है)। माया जो चंचल है, जो स्थिर नहीं रहती, जो बुराइयों का वाहक, पाप को प्रेरित करती है। इस रूप में लक्ष्मी एक प्रकार से लड़कियों के लिए गाली बन जाती है। प्रतीकात्मक रूप में देखें तो शायद यही वो आधार है जो हर बात की दोषी ‘औरत’ को बना देती है। कुछ भी हो लेकिन कुलक्षिणी आखिर लड़की ही कहलाती है।
‘दुर्गा’ जो ‘नव (नई)’ ऊर्जा संचार का द्योतक है, कोई स्त्री तभी कही जाती है जब वह अपने लक्ष्मी के स्वरूप से विद्रोह कर बैठती है। और तब वह दुर्गा अपने दुखों से लड़कर नई रौशनी का संचार कर खुद को नवजीवन देती है या समाज की आंखों में खटकती है।
स्त्री के लिए समाज का यह दोहरा चरित्र प्रपंच कुछ ऐसा करता है कि वह स्त्रियों को देवी बनाकर मान देता है। किंतु स्थिति सर्वथा भिन्न है। स्त्री देवी के रूप में या तो छली जाती है या ‘व्यंग्य बाण’ झेलती है। शक्ति की पूजा और उपासना हम नौ दिन कर सकते हैं किंतु उसी के अस्तित्व रूप (स्त्री) को खुद के ऊपर मानना पुरुषत्व पर भारी पड़ जाता है। धर्म ‘देव’ या ‘देवी’ को ‘दासता से मुक्ति देने वाला या देनेवाली’ समझाता है लेकिन हकीकत इस संदर्भ को नकारात्मक स्वरूप दे देता है। देव के स्वरूप को पुरुष के साथ हमेशा नहीं जोड़ा जाता किंतु स्त्री हर घर में लक्ष्मी है, देवी है। लेकिन देवी दुर्गा यहां नाशक बन जाती है। लक्ष्मी रूप में वह देवी है क्योंकि वह बस देती है, त्याग कर परिवार को देती है, चुप रहकर परिवार को देती है, आंसू पीकर परिवार को देती है, खुद पर सितम सहकर परिवार को देती है, ‘मान’। शायद यही देवी आज सर्वमान्य है, सर्वग्राह्य है। इस तरह देवी का यह रूप औरत को शक्ति न देकर एक ‘प्रपंच’ बन जाता है, ‘वेदना’ बन जाता है श्रद्धेय होने की। समाज उसे देवी कहता है लेकिन हकीकत में यह देवी रूप औरत की वेदना कथा है।
पाठक वर्ग निम्नलिखित विषय पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। अपनी प्रतिक्रियाएं आप सीधे इस ब्लॉग पर या अपने विचार को अपने ब्लॉग पोस्ट में लिखकर 13 अक्टूबर, 2013 तक पोस्ट कर सकते हैं।
॥ नारी: वेदना श्रद्धेय होने की ॥
धन्यवाद
जागरण जंक्शन परिवार
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