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अन्नदाता ने अर्थव्यवस्था को दी संजीवनी
–देविंदर शर्मा
(कृषि और खाद्य मसलों के जानकार)
साल के दौरान तमाम क्षेत्रों के निराशाजनक प्रदर्शन के दौरान कृषि ने ही अर्थव्यवस्था को सहारा दिया लेकिन अन्नदाता को बिसारने वाली कृषि नीतियां एक बार फिर उसके दबे-कुचले होने की पैरवी करती दिखी।
म्मीद से बेहतर मानसून और जबरदस्त खाद्यान्न उत्पादन करके कृषि इस साल अर्थव्यवस्था की तारणहार रही। एक तरफ जहां औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र समय के साथ नहीं चल पा रहा है, बेरोजगारी बढ़ रही है, वित्तीय घाटा आसमान छूने को उतावला है, चालू खाता घाटा की स्थिति चिंताजनक है, ऐसे में कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र रहा जहां पर उम्मीद की कुछ किरणें दिखाई दीं। गेहूं और चावल का 823 लाख टन का खाद्यान्न भंडार अब तक सर्वाधिक रहा है। अनाज निर्यात में 200 टन की वृद्धि दिखी है। चावल के सबसे बड़े निर्यातक के रूप में देश को पहचान मिली। कृषि निर्यात में गुणात्मक बढ़ोतरी दिखी। मुख्य रूप से मांस के निर्यात के चलते देश का कृषि निर्यात 2010-11 के 12 हजार करोड़ रुपये से बढ़कर 2012-13 में 20 हजार करोड़ रुपये पर पहुंचा। बासमती निर्यात में भी वृद्धि हुई और किसानों को अच्छी कीमत का सुखद अहसास भी हुआ।
लेकिन यहीं पर चमक खत्म होती दिखी और देश के 60 करोड़ किसानों के लिए 2013 भी किसी अन्य साल की तरह ही रहा। हमेशा की तरह जैसे ही नए साल की तैयारियों की शुरुआत होती है, अन्नदाता के लिए अच्छा साल रहने की उम्मीदें शुरू हो जाती हैं, लेकिन साल दर साल उनकी हालत और पतली होती जाती है। कृषि उत्पादन बढ़ने के साथ और आपूर्ति में किसी तरह की बाधा न होने के संकेत के बावजूद 2013 अप्रत्याशित रूप से खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतों का गवाह रहा। महंगाई को लेकर भड़की जनाकांक्षाओं को शांत करने के सारे प्रयास नाकाफी साबित हुए। हाल ही में विधानसभा चुनावों में सत्तारुढ़ पार्टी की हार के रूप में इसका प्रकटीकरण दिखा।
वास्तव में महंगाई की दोहरी मार पड़ती है। 203.6 अरब डॉलर के भारी व्यापार घाटे और बढ़ते वित्तीय घाटे के चलते सरकार को रोजगार कार्यक्रमों के साथ-साथ ग्र्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर और कृषि निवेश कार्यक्रमों पर कैंची चलानी पड़ी। बढ़ती बेरोजगारी और सब्सिडी में कटौती की नीति से गरीबों की संख्या में इजाफा हुआ। देश के 83 करोड़ लोगों को हर महीने पांच किग्र्रा अनाज मुहैया कराने वाले खाद्य सुरक्षा कानून का मुख्य उद्देश्य अप्रत्याशित रूप से बढ़ने वाली कीमतों पर लगाम लगाना था। हालांकि इसका कमजोर पहलू यह है कि कृषि में बिना पर्याप्त निवेश किए इस तरह की कानूनी आर्हता यह दिखाती है कि अन्नदाता को भूखे पेट सोने के लिए विवश होना पड़ेगा। खाद्य सुरक्षा की जरूरतें आयात से पूरी करने और उद्योगों, रीयल एस्टेट के लिए भूमि अधिग्र्रहण को प्रमुखता देने से देश की पूरी आबादी के लिए खाद्यान्न उत्पादन करना बहुत मुश्किल कार्य हो जाएगा।
2005 और 2010 के दौरान जब जीडीपी 8-9 फीसद की दर से सरपट दौड़ रही थी तो 1.4 करोड़ लोग कृषि से दर बदर हुए थे। सामान्य रूप से माना जाता है कि खेती छोड़ने वाले लोग मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र से जुड़कर उसकी श्रमशक्ति बनें होंगे, लेकिन उस दौरान मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में भी 57 लाख रोजगार कम हुए। नए भूमि अधिग्र्रहण कानून से छोटी जोत वाले बड़ी संख्या में किसानों को अपना पेशा छोड़ना पड़ सकता है। उन्हें शहरों में जाकर छोटे-मोटे काम धंधों पर आश्रित होना पड़ सकता है। इस स्थिति में कृषि भी देश में सबसे बड़ी नियोक्ता होने की अपनी पदवी को बरकरार नहीं रख पाएगी।
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