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अलविदा 2013: मार की ढाल

मुद्दा
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अलविदा 2013

बीते समय को हमेशा ही बिसारा नहीं जा सकता। अतीत हमारी मधुर स्मृतियों की याद दिलाता है। हम अपने अतीत से सबक लेते हुए ही भविष्य सुखद करने की कोशिश करते हैं। लिहाजा अतीत को वर्तमान और भविष्य से कमतर नहीं आंका जा सकता। जिस भविष्य का स्वागत करने के लिए हम पलक पांवड़े बिछाए आतुर रहते हैं वह कहीं न कहीं वर्तमान और अतीत के दम पर ही है। आने वाले कालखंड के साथ अगर तमाम चीजों को अपने पक्ष में करने की सहूलियत मिलती है तो इसके पीछे भी अतीत और वर्तमान खड़े होते हैं। सभी भूत और वर्तमान की खूबियों और खामियों के आधार पर ही भविष्य को संवारने के कदम उठाते हैं। 2013 बीतने को है। लिहाजा जिस तरह से हम नए साल की आगवानी को उत्सुक होते हैं विदा होता साल भी उसी भावना का हकदार है। ऐसे में इस साल द्वारा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में छोड़ी गई सकारात्मक छाप की पड़ताल हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।


मजबूत हुआ लोक और तंत्र

जगदीप एस छोकर

(आइआइएम अहमदाबाद के पूर्व प्रोफेसर, डीन और डाइरेक्टर-इन-चार्ज रहे हैं)

चुनावों में मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी, नए राजनीतिक दल का अभ्युदय, चुनाव सुधार और पारदर्शिता को बढ़ावा देने वाले कई नियामक संस्थाओं के आदेश जनतंत्र को मजबूती देने वाले रहे। हर साल राजनीतिक उठापठक, नवीनता और क्रमिक विकास का रहा। विचार करने पर इस साल चार महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। नरेंद्र मोदी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी बने। दिल्ली विधानसभा चुनाव में नवोदित आम आदमी पार्टी (आप) ने अद्भुत प्रदर्शन किया। चुनावों में वोटरों की संख्या में सतत इजाफा दिखा और चुनाव और राजनीतिक सुधार की दिशा में सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) ने ऐतिहासिक निर्णय दिए।

आगामी लोकसभा चुनाव की छाया 2013 में दिखी। साल की शुरुआत से ही भाजपा में प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी के बारे में कयास लगने शुरू हो गए थे। पिछले दिसंबर में गुजरात में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की तीसरी जीत ने इसके लिए उनको प्रबल दावेदार बना दिया था। सितंबर तक भाजपा ने सभी बाधाओं को पार करते हुए उनको प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया। देश की राजनीति के लिहाज से यह बहुत महत्वपूर्ण निर्णय था जिसका सीधा असर कम से कम 2014 के चुनाव तक तो रहेगा।


एक दूसरे महत्वपूर्ण घटनाक्रम में इस महीने की शुरुआत में आप के असाधारण प्रदर्शन का प्रभाव अगले कई दशकों तक महसूस किया जा सकता है। महज एक साल पहले ही अस्तित्व में आई पार्टी के लिए 28 सीट जीतना और तकरीबन 30 प्रतिशत वोट हासिल करना मामूली उपलब्धि नहीं है। इसने राजधानी के राजनीतिक परिदृश्य को बदलते हुए सभी को हतप्रभ कर दिया। अब दोनों प्रमुख दल इसकी पड़ताल करने के साथ इस नई अप्रत्याशित ‘परिघटना’ से निपटने का रास्ता खोजते दिख रहे हैं। इस दल के शुभचिंतकों समेत ढेर सारे लोग इसको राष्ट्रीय स्तर पर जाते हुए देखना चाहते हैं। अब यह तो समय बताएगा कि यह भारतीय राजनीति की कायापलट करेगी या एक चुनाव और एक राज्य की ‘परिघटना’ बनकर रह जाएगी। यह बात तो तय है कि इसने स्थापित राजनीतिक तंत्र के विश्वास को झकझोरते हुए वोटरों का भय परंपरागत राजनीतिक दलों के दिलों में भर दिया है। उम्मीद है कि इससे वोटर ने भी सबक सीखा कि आप समेत किसी भी दल को उनको हल्के में लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी।


राजनीतिक महत्व की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना यह रही कि चुनावों में वोटरों की भागीदारी में लगातार इजाफा हो रहा है। हाल में हुए विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में पिछली बार के 71 प्रतिशत की तुलना में 75 प्रतिशत मतदान हुआ। इसी तरह मध्य प्रदेश में 69.6 से बढ़कर 72 प्रतिशत, राजस्थान में 66.5 से 75 प्रतिशत एवं दिल्ली में 56.7 प्रतिशत से बढ़कर 66 प्रतिशत मतदान हुआ। यह बढ़ोतरी तीन-दस प्रतिशत के बीच रही। ऐसा भी नहीं है कि ये वृद्धि इन्हीं चुनावों में हुई है बल्कि पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी का कहना है कि देश में हुए पिछले 21 चुनावों में मतदान के प्रतिशत में बढ़ोतरी दर्ज की गई। कुल मिलाकर लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत है। मतदान में इस क्रमिक बढ़ोतरी के कई कारण दिए जा सकते हैं। एक प्रमुख वजह तो निर्वाचन आयोग की पहलों और चुनाव सुधारों की दिशा में उठाए जा रहे उसके कदम हैं। लोगों में पिछले कुछ वर्षों में बढ़ती राजनीतिक और चुनावी जागरूकता दूसरी बड़ी वजह है। इस बढ़ती जागरूकता की बुनियादी वजह स्थापित राजनीतिक वर्ग का बढ़ता अहंकार रहा।


सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) के निर्णय भी राजनीतिक लिहाज से बेहद अहम रहे। तीन जून को सीआइसी ने सभी छह राष्ट्रीय दलों को आरटीआइ एक्ट के दायरे में सार्वजनिक प्रतिष्ठान घोषित किया। ये दल इस निर्णय के खिलाफ संघर्ष करते दिख रहे हैं। उसके बाद 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय देते हुए कहा कि यदि किसी एमपी या एमएलए को आपराधिक मामले में दोषी करार दिया जाता है तो उसकी सदस्यता तत्काल समाप्त हो जाएगी। इसके खिलाफ पुनरीक्षण याचिका को जब सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया तो एक अध्यादेश के जरिये इसको निष्प्रभावी बनाने का मामला भी सिरे नहीं चढ़ सका। इसके चलते देश के इतिहास में पहली बार लालू प्रसाद और रशीद मसूद की संसद सदस्यता चली गई। उसके बाद 27 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य महत्वपूर्ण नोटा निर्णय दिया। उसने निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया कि ईवीएम मशीनों में उपरोक्त में से कोई नहीं (नोटा) का विकल्प भी उपलब्ध कराया जाए। भविष्य में यह चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और इसके चलते राजनीतिक दलों पर बेहतर प्रत्याशी उतारने के लिए दबाव बनेगा। कुल मिलाकर लोकतंत्र के लिए यह बढ़िया साल रहा और राजनीतिक सुधारों की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई।

मार की ढाल

दे गया साल

अनिल सिंह

(वित्तीय साक्षरता व आर्थिक मामलों पर केंद्रित हिंदी की पहली वेबसाइट अर्थकाम डाट कॉम के संपादक)

इस साल की सबसे बड़ी नियामत की बात करें तो आम आदमी को रिजर्व बैंक की तरफ से ऐसा साधन मिल गया है जिससे वो महंगाई की मार से अपनी बचत को पूरी तरह बचा सकता है।

गर मैं कहूं कि कितनी अच्छी बात है कि देश के चालू खाते का जो घाटा साल भर पहले दिसंबर 2012 की तिमाही में जीडीपी के 6.7 फीसद की खतरनाक हद तक पहुंच गया था, वो इस साल सितंबर 2013 की तिमाही में घटकर 1.2 फीसद रह गया है और अब मार्च में आनेवाला दिसंबर तिमाही का आंकड़ा भी बेहतर रहेगा तो पलटकर आप बोलेंगे कि इसमें क्या अच्छी बात! अच्छी बात होगी भी तो वित्त मंत्री या संप्रग सरकार के लिए होगी। इससे हमारा क्या लेना-देना!


यकीनन इसका खास लेना-देना चिदंबरम और सरकार से है और वे इस पर खुश भी हैं। लेकिन इसका लेना देना हम सभी से भी है। यूं तो चालू खाते का घाटा देश के व्यापार घाटे के साथ विदेशी पूंजी निवेश, अनिवासी भारतीयों की जमा और विदेशी ऋणों की अदायगी वगैरह जैसे दृश्य-अदृश्य मदों को जोड़-घटाकर निकाला जाता है। लेकिन मोटे तौर पर यह दिखाता है कि देश में हो रहे निवेश में घरेलू बचत से ऊपर कितना हिस्सा विदेशी स्नोतों से आ रहा है। अगर कोई देश जितना बचा रहा है, उससे ज्यादा निवेश कर रहा है तो इसका नतीज़ा चालू खाते के घाटे के रूप में सामने आता है। बीते वित्त वर्ष 2012-13 के अंत तक यह जीडीपी का 4.8 फीसद हो गया तो हर तरफ से खतरे की घंटियां बजने लगीं। लेकिन साल 2013 का अंत आते-आते यह खतरा टल चुका है। इसमें हमारा-आपका फायदा यह है कि हम बाहर से आयातित महंगाई से बच जाएंगे। होता यह है कि चालू खाते के घाटे की सूरत में देश में डॉलर की हाय-हाय मची रहती है और डॉलर भाव खाकर चढ़ता रहता है। आपने देखा ही होगा कि अगस्त अंत तक कैसे एक डॉलर 68.85 रुपए का हो गया था। ऐसे में तमाम चीजों के अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि देश में आयात होने वाला पेट्रोलियम कच्चा तेल महंगा हो जाता है जिसका सीधा असर चीजों के दाम बढ़ने के रूप में सामने आता है।


दिलचस्प बात यह है कि चालू खाते के घाटे को कम करने में कमजोर रुपए ने भी अहम भूमिका निभाई है। रुपया डॉलर के मुकाबते कमजोर हो रहा था तो विपक्ष से लेकर हर खास-ओ-आम सरकार को भला-बुरा कह रहा था। बिना यह सोचे-समझे कि चीन जैसे देश दुनिया में अपना धंधा बढ़ाने के लिए अपनी मुद्रा युआन को जानबूझ कर दबाकर रखते हैं। खैर, रुपए की कमजोरी का ही परिणाम है कि हमारा निर्यात अगस्त के बाद से लगातार बढ़ और आयात घट रहा है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक नवंबर में देश का निर्यात 5.8 फीसद बढ़ा है जबकि आयात 16.3 फीसद घटा है।


हम-आप आर्थिक मामले में जिस बात को सबसे ज्यादा तवज्जो देते हैं, वो है महंगाई जिसे तकनीकी रूप से मुद्रास्फीति भी कहा जाता है। आयातित महंगाई का असर रोकने के बावजूद रिटेल मुद्रास्फीति की दर नवंबर महीने में 11.24 फीसद और थोक मुद्रास्फीति की दर 7.52 फीसद रही है। इसे दबाने का एक तरीका है कि धन की कीमत यानी ब्याज दर बढ़ा दी जाए। लेकिन रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने 18 दिसंबर को ब्याज दरों को जस का तस रहने दिया। उनका मानना है कि इस वक्त मांग घटाने से नहीं, सप्लाई बढ़ाने से महंगाई पर अंकुश पाया जा सकता है। यह सप्लाई कैसे बढ़ सकती है या बढ़ रही है इसका संकेत मिला है कि जुलाई-सितंबर 2013 में आए अर्थव्यवस्था या जीडीपी के विकास के आंकड़े से। चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में हमारी अर्थव्यवस्था 4.6 फीसद बढ़ी है, जबकि अप्रैल से जून तक की पहली तिमाही यह इससे कम 4.4 फीसद बढ़ी थी। खास बात यह है कि इस बार कृषि की विकास दर 4.6 फीसद रही, जबकि पहली तिमाही में यह 2.7 फीसद थी। असल में महंगाई में सबसे ज्यादा मार खाने-पीने की चीजों की तरफ से हो रही है। थोक मुद्रास्फीति को भी देखें तो इसमें अनाज के दाम 12.07 फीसद बढ़े है और खाने-पीने की सभी चीजों की मिला दें तो उनके थोक दाम साल भर पहले की अपेक्षा 19.93 फीसद बढ़े हैं। कृषि का विकास बताती है कि धीरे-धीरे खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा। प्याज के घटते दाम इसका संकेत दे रहे हैं।

लेकिन साल की सबसे बड़ी नियामत की बात करें तो आम आदमी को रिजर्व बैंक की तरफ से ऐसा साधन मिल गया है जिससे वो महंगाई की मार से अपनी बचत को पूरी तरह बचा सकता है। रिजर्व बैंक ने भारत सरकार की तरफ से ऐसे बांड जारी किए हैं जो इसके धारक को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) पर आधारित मुद्रास्फीति के 1.50 फीसद ज्यादा ब्याज देंगे। इन बांडों को इन्फ्लेशन इंडेक्स्ड नेशनल सेविंग्स सिक्यूरिटीज़-क्यूमुलेटिव (आइआइएसएस-सी) का नाम दिया गया है। ये बांड रिटेल निवेशकों के लिए हैं और पहली बार इन्हें थोक के बजाय रिटेल मुद्रास्फीति से जोड़ा गया है।

ईमानदारी, पारदर्शिता और समतापोषी

प्रो पुष्पेश पंत

(स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू)

महिलाओं के प्रति हिंसक बर्तावको लेकर संवेदना और पीड़ित व्यक्ति को सहानुभूति के साथ सार्थक समर्थन देने के लिए प्रेरित करना 2013 का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

इस बात को भुलाना सहज संभव नहीं कि वर्ष 2013 का आरंभ असाधारण शोक और संताप के साथ हुआ था। देश की राजधानी में एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म को जिस पाशविक बर्बरता के साथ अंजाम दिया गया उसने देशव्यापी जनाक्रोश को खौला दिया। शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों का पुलिस द्वारा निर्मम दमन ने देश की जनतांत्रिक छवि को खराब किया। बहरहाल इस दुखद घटना ने जनता का ध्यान महिलाओं की सुरक्षा पर केंद्रित किया और महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते जघन्य हिंसक अपराधों को रोकने के लिए नये कानून बनाने के साथ-साथ पुराने कानूनों को कड़ाई से लागू करने, एवं पुलिस प्रणाली को संवेदनशील बनाने की प्राथमिकता को रेखांकित किया। स्मृति शेष न्यायमूर्ति जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया जिसने बहुत शीघ्र अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। विस्फोटक जनभावनाओं के मद्देनजर इनको स्वीकार कर दुष्कर्म के खिलाफ नया कानून संसद ने पारित किया। इसे एक मील का पत्थर माना जाना चाहिए। सामाजिक-सार्वजनिक जीवन में देश की आधी आबादी को समानता का अधिकार दिलाने की दिशा में उनके शरीर तथा स्वाभिमान को अक्षत रखने के लिए यह बेहद सार्थक कदम था। इन्हीं प्रयासों के बाद इस तरीके से आए ऐसे बड़े मामलों में कार्रवाई संभव हो सकी जिनमें देश की नामी-गिरामी लोग आरोपी रहे हैं।


दिल्ली में कांग्र्रेस का सफाया करने वाली आप पार्टी के चुनावी प्रदर्शन ने जो छाप जनमानस पर छोड़ी है वह आसानी से मिटने वाली नहीं। हमारा कोई प्रयास यह सिद्ध करने का नहीं कि अब आप ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है, सर्वगुण संपन्न तथा पूरी तरह दोष-कलंक रहित है। परंतु यह जोर देकर दोहराने की जरुरत है कि लीक से हटकर, रूढ़िग्र्रस्त परंपरा के बोझ को उतार फेंक के भी राजनीति में सक्रिय होने की संभावना को इसने उजागर किया है। शासक और जनता के बीच गहराती खाई आम नागरिक के लिए बेहद दुखदायक हो चुकी है। लाल बत्तियों के प्रति उसका क्षोभ नाजायज नहीं। अन्ना आंदोलन ने भ्रष्टाचार की विभीषिका को रेखांकित किया था तो आप पार्टी ने उस चुनौती को स्वीकार किया जिसमें सत्ताधारी ललकारे थे कि चुनाव लड़कर दिखलाओ कि जनता तुम्हारे साथ हैं। इस दावे कोखारिज करने की उतावली बेतुकी है कि वह अनोखे-प्रत्यक्ष जनतांत्रिक भागीदारी वाले तरीके से (कम से कम दिल्ली में) सरकार नहीं चला सकते। बहरहाल जो बात अधिक महत्वपूर्ण है वह बदलाव की संभावना का पुनर्जन्म है, नयी पीढ़ी का अपने विवेक के अनुसार राजनीति में हस्तक्षेप का फैसला अब नकारा ठुकराया नहीं जा सकता। जरूरी नहीं कि अन्यत्र आम आदमी पार्टी की शाखाएं ही खुलें पर सत्याग्रही सिविल नाफरमानी से लेकर चुनाव के अखाड़ेतक सत्ता पर काबिज तबकों की गद्दी निरापद नहीं रह गयी है। कुछ काम सूचना के अधिकार वाले कानून ने किया था तो शेष आप ने संभाला। असली जीत हताशावाले सोच की बेड़ियों को तोड़ने वाली है। यह उपहार भी 2013 ने ही दिया। सपनों की साझेदारी के साथ साथ इनको पूरा करने के लिए कुछ जोखिम उठा संघर्ष मे हिस्सेदारी का संकल्प इस बात का सूचक है कि अब सुधार नहीं बुनियादी बदलाव की मांग अनसुनी नहीं की जा सकती। 2013 ने जाते जाते यह भी दिखला दिया कि विरुद्ध-असंतुष्ट जनता को शांत करने के लिए तुष्टीकरण का जो नुस्खा सरकारें अपनाती रही हैं वह अब उनको राहत नहीं दिला सकता। आरक्षण हो या अल्पसंख्यक समुदाय को प्रत्यक्ष या परोक्ष रिश्वत, राजस्थान से लेकर उत्तर प्रदेश तक तमाम राजनीतिक दल अपने बनाए चक्रव्यूह में घिर चुके हैं। खाद्य सुरक्षा विधेयक हो या रोजगार गारंटी योजना, मतदाता को कोई भी वादा विश्वसनीय नहीं लगा।

सामुदायिक-साझे के सामाजिक- सरोकारों को व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर रख सरकार के कामकाज का मूल्यांकन सर्वत्र किया जाने लगा है। गैर सरकारी संगठनों की सार्वजनिक जीवन में भूमिका नि:संदेह संतोष का विषय है। कुल मिलाकर 2013 ईमानदारी, पारदर्शिता और समतापोषक मानसिकता को पुष्ट करने के लिए देर तक याद रहेगा।


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