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दो मुहिम। मकसद एक। जनमानस को उद्वेलित करने वाला पहला आंदोलन गांधीवादी अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ चला। शांति और सादगी से ओतप्रोत इस आंदोलन में भ्रष्टाचार के खिलाफ मौन जनाक्रोश हर जगह दिखा। शासन को भी इस गंभीरता का शीघ्र ही अहसास हो चला। परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जरूरी तरकीबों को ढूंढने का चरणबद्ध सिलसिला शुरू हुआ।
भ्रष्टाचार के खिलाफ ही दूसरे आंदोलन का सूत्रपात योगगुरु बाबा रामदेव ने किया। बाबा का आक्रामक तेवर और तड़क-भड़क वाला यह आंदोलन लोगों की चर्चा का न केवल विषय बना बल्कि शुरुआती दौर में नीति-नियंता भी इसके असर में दिखाई दिए। लेकिन फिर इस सत्याग्र्रह को लेकर उपजे विवाद दर विवाद से ऐसा लगने लगा जैसे यह अपनी राह से भटक गया है। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे यह आंदोलन बाबा बनाम सरकार होता गया। एक ही नेक मकसद के लिए शुरू की गई दोनों मुहिम का अलग-अलग दिखायी पड़ता भावी अंजाम जहां चौंकाने वाला है, वहीं इन परिस्थितियों में अन्ना हजारे के सादगीपूर्ण आंदोलन या बाबा रामदेव के आक्रामक आंदोलन की प्रासंगिकता एक बड़ा मुद्दा भी।
सालों से ‘सब चलता है’ के साथ चल रही भारतीय जिंदगी में बीते दो महीनों में कुछ ऐसा हुआ जिसने कहा कि अब ऐसे नहीं चलेगा। जिंदगी में रवायत की तरह शामिल हो चुके भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में आक्रोश तो था लेकिन उसे व्यक्त करने का उन्हें मौका नहीं मिल पा रहा था। अन्ना हजारे और रामदेव के आंदोलनों ने भ्रष्टाचार के मोर्चे पर आम आदमी का नारा बुलंद कर बनी सरकार के खिलाफ इस नाराजगी को निकलने का मंच दे दिया। वहीं इन आंदोलनों में अधिकतर मांगें मानने के बावजूद सरकार जनता के भरोसे के पैमाने पर खाली हाथ ही नजर आ रही है।
पांच अप्रैल को अन्ना हजारे के अनशन की शुरुआत और पांच जून को बाबा रामदेव के सत्याग्र्रह पर पुलिसिया कार्रवाई की दो तारीखों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी के गुस्से और नाराजगी के इजहार को एक आंदोलन की शक्ल देने में मदद की है। गांधीवादी जीवन व भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की लंबी साख वाले 74 वर्षीय अन्ना तथा योग शिक्षा से घर–घर पैठ रखने वाले बाबा रामदेव की कोशिशों ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया। इन आंदोलनों ने सत्यम से लेकर स्पेक्ट्रम और राशन से लेकर राष्ट्रमंडल खेल आयोजन तक घोटालों की लंबी फेहरिस्त से खीझी जनता को जमा होने का मंच दे दिया। कालाधन वापस लाने और भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिए लोकपाल बनाने से शुरु हुई बात अब व्यवस्था परिवर्तन के नारे में तब्दील हो गई है।
वैसे अन्ना के अनशन और बाबा के सत्याग्रह की जड़ में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का ही मुद्दा है। लेकिन इसके तरीकों में नजर आ रहे भेद ने कुछ महीने पहले तक मंच साझा कर रहे दोनों सुधारकों को कुछ फासले पर जरूर खड़ा कर दिया है। अन्ना के चरणबद्ध एजेंडे में फिलहाल लोकपाल पर जोर है वहीं बाबा की जिद विदेश में मौजूद भारत के कालेधन को लेकर है। बाबा के पीछे निष्ठावान अनुयायियों की भीड़ है तो अन्ना के अनशन को युवाओं और मध्यमवर्गीय तबके के अलावा सेलेब्रिटी और संभ्रांत तबके का भी समर्थन मिला है। दोनों ही आंदोलनों में लोगों की भावनाओं के ज्वार का दबाव बनाने की रणनीति है। फर्क इतना है कि भ्रष्टाचार से मुकाबले के खिलाफ लड़ाई में रामदेव की अपील में भावुकता पर जोर है तो अन्ना के अनशन में भावनाओं को तार्किकता के रैपर में परोसने की खूबी।
हालांकि अन्ना का अनशन हो या बाबा का सत्याग्र्रह। सरकार इनके मोर्चे पर कमजोर ही नजर आई। दोनों घटनाओं ने सत्ता की कई अंदरूनी कमजोरियों की खुली नुमाइश कर मसले को काफी उलझा दिया। अन्ना के अनशन के प्रति सरकार ने शुरुआत में सख्ती दिखाई वहीं सत्याग्र्रह का संकल्प लेकर दिल्ली आए बाबा रामदेव की अगवानी को चार वरिष्ठ मंत्रियों की मौजूदगी ने शीर्ष स्तर पर भ्रम का नजारा पेश किया। लेकिन दोनों घटनाओं के पटाक्षेप के वक्त सरकार का रुख उलट चुका था।
बाबा के सत्याग्र्रह के खिलाफ रामलीला मैदान में आधी रात हुई पुलिसिया कार्रवाई से सिविल सोसाइटी की अधिकतर मांगों पर तेजी से अमल के बावजूद सरकार की साख को बट्टा ही लगा। शासन में बैठे लोग कहते है कि सत्ता व्यवस्था बोलने की इजाजत और जगह देती है। ऐसे में वह न तो मूक दर्शक बन गालियां खा सकती है और न ही अराजकता के लिए रास्ता देना संभव है। साफ है कि बाबा रामदेव के आगे मानमनौव्वल करती सरकार कमजोर दिखाई दे रही थी तो कानून–व्यवस्था के नाम पर हुई पुलिस कार्रवाई के बाद उसकी छवि संकल्पवान सत्ता की नहीं बल्कि जुल्मी हुकूमत की बनी।
हालांकि रामदेव के सत्याग्र्रह में सरकार और उनके बीच गुप्त सहमति की चिट्ठी के सामने
आने और बाद के घटनाक्रम में योगगुरु के रुख ने इस मुद्दे को गहरा किया वहीं सत्ता और सियासत के खेल को भी जगह दी। इसी के चलते सरकार ने आंदोलन के पीछे आरएसएस, भाजपा की भूमिका के आरोपों द्वारा सिविल सोसाइटी की ओर से बढ़ रहे नैतिक दबाव से बचने का गलियारा ढूंढ लिया।
व्यवस्था परिवर्तन के नारे वाला यह पहला मौका नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह बोफोर्स सौदे में दलाली और स्विस बैैंकों में जमा धन का मामला उठाकर सत्ता परिवर्तन के नायक बने। वहीं जयप्रकाश नारायण के व्यवस्था परिवर्तन के नारे के मुकाबले में लगाये गये आपातकाल ने कांग्र्रेस को उसके चुनावी इतिहास की सबसे करारी शिकस्त दी, लेकिन तारीख यह भी बताती है कि आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई वहीं वीपी सिंह प्रधानमंत्री कार्यालय में महज नौ महीने ही रुक पाए। विश्लेषक मानते हैैं कि व्यवस्था सुधार के मौजूदा आंदोलन की कमान संभालने वालों को इस बात का खास ध्यान रखना होगा कि जनता बनाम सरकार की रस्साकशी में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का ढांचा न लड़खड़ाए। साथ ही व्यवस्था बदलने के जोश में लोग संविधान में दिए नागरिक अधिकारों का अतिक्रमण न करें।
–प्रणय उपाध्याय
योगेंद्र यादव (राजनीतिक विश्लेषक)
मौजूदा स्थिति की जड़ में राजनीतिक व्यवस्था की कमजोरी बड़ी वजह है। देश का मध्यमवर्ग भ्रष्टाचार से जितना आजिज है उसमें उतना ही भागीदार भी है। लेकिन बीते कुछ साल में राजनीतिक सत्ता की लोगों को अपने साथ लेकर चलने की क्षमता गिरी है और जिसके चलते एक खाली स्थान बना है। लिहाजा इस खाली जगह को भरने की कोशिश करने वालों के पीछे खड़े होकर लोग निजाम पर अंगुली उठा रहे हैं।
इम्तियाज अहमद (समाजशास्त्री)
मौजूदा स्थिति की जड़ में राजनीतिक व्यवस्था की कमजोरी बड़ी वजह है। देश का मध्यमवर्ग भ्रष्टाचार से जितना आजिज है उसमें उतना ही भागीदार भी है। लेकिन बीते कुछ साल में राजनीतिक सत्ता की लोगों को अपने साथ लेकर चलने की क्षमता गिरी है और जिसके चलते एक खाली स्थान बना है। लिहाजा इस खाली जगह को भरने की कोशिश करने वालों के पीछे खड़े होकर लोग निजाम पर अंगुली उठा रहे हैं।
12 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “बाबा का वार-अन्ना का प्रहार” पढ़ने के लिए क्लिक करें
12 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “मुहिम के मसीहा” पढ़ने के लिए क्लिक करें
साभार : दैनिक जागरण 12 जून 2011 ( रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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