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आयातित से ज्यादा घरेलू है यह संकट

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ठीक एक वर्ष पहले अप्रैल, 2011 में जब यूरोपीय संघ के आधे दर्जन देशों के समक्ष दिवालिया होने की स्थिति उत्पन्न हुई थी तो वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अति आत्मविश्वास से कहा था कि यूरोपीय संकट से डरने की जरूरत नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत है। हम नौ फीसद की विकास दर हासिल करेंगे। आज अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है उसकी तुलना कई विशेषज्ञ 1991 के ऐतिहासिक संकट से कर रहे है। सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था के रसातल में पहुंचाने के लिए विदेशी हालात ज्यादा जिम्मेदार है या सरकार की नीतियां या दोनों?


अप्रैल के अंतिम हफ्ते में जब स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने भारत की रेटिंग घटाई थी तब इसके लिए बाहरी कारकों से ज्यादा घरेलू वजहों को जिम्मेदार ठहराया था। रेटिंग एजेंसी ने आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया के ठहर जाने और राजनीतिक अड़चनों पर तीखी टिप्पणी की थी। इसमें कुछ सच्चाई भी दिखती है। दरअसल, संप्रग-दो की अधिकांश शक्तियां अपने राजनीतिक समीकरण बिठाने में ही जाया होती रही है। सिर्फ ठोस राजनीतिक वजहों के चलते ही वित्त मंत्रालय पिछले तीन दशकों की सबसे भयंकर आर्थिक मंदी की कदमताल नहीं सुन सका। अगर सहयोगी दल तृणमूल कांग्र्रेस ने सरकार के आर्थिक सुधारों (मसलन पेंशन सुधार) को रोका तो उत्तर प्रदेश चुनाव के समय स्वयं कांग्र्रेस पार्टी ने पेट्रोलियम सब्सिडी को लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं बनने दी।


अप्रैल से सितंबर, 2011 के आंकड़ों से स्पष्ट है कि देश के कुल आयात का आधा हिस्सा क्रूड और सोना मंगाने पर खर्च हो रहा था। क्रूड की जरूरत समझी जा सकती है लेकिन सोेने के आयात को रोकने के लिए सरकार नौ महीने बाद यानी मार्च, 2012 में ही कदम उठा सकी।  फायदे के लिए पेट्रोल कीमत निर्धारण पर सरकार के ढुलमुल रवैये की वजह से ही आज हालात इतने गड़बड़ हुए हैैं। इस पर तुर्रा यह कि आम आदमी को फिर भी मूल्य वृद्धि का बोझ वहन करना पड़ा है। आज चालू खाते में घाटा कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का चार फीसद हो चुका है। यह तो समझा जा सकता है कि वैश्विक मंदी की वजह से भारतीय कंपनियां निर्यात नहीं कर सकी लेकिन आयात-निर्यात के सही आंकड़े हम क्यों नहीं जुटा सके, समझना मुश्किल है।


आर्थिक विकास दर में काफी गिरावट होने के बावजूद भारत चीन के बाद दूसरा सबसे तेजी से विकसित हो रहा देश है।  इसके बावजूद डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की कीमत में एशिया के किसी भी अन्य देश की मुद्रा के मुकाबले सबसे तेज गिरावट हुई है। इसमें भी घरेलू नीतियां या ‘नीतियों’ का नहीं होना जिम्मेदार हैं। पूरी दुनिया ने जब मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश खोलने पर ताली बजानी शुरू की तो भारत सरकार ने इस फैसले को ही वापस ले लिया। इसके बाद देश के आर्थिक फैसलों को लेकर चारों तरह से सवालिया निशान लगने शुरू हो गए। अगर पहले ही सहयोगियों को भरोसे में ले कर यह कदम उठाया गया होता तो देश को इतनी बदनामी नहीं उठानी पड़ती। इसी तरह से एविएशन क्षेत्र में विदेशी एयरलाइनों के प्रवेश को मंजूरी देने पर सरकार लगातार देरी कर रही है। अगर ये फैसले समय पर लिए गए होते तो इससे निवेशकों में न केवल भरोसा पैदा होता बल्कि देश से डॉलर की निकासी पर भी रोक लगती। मगर ऐसा नहीं हुआ। दो वर्ष बाद आम चुनावों को देखते हुए सरकार अब ‘बोल्ड’ कदम उठाएगी, इसकी भी संभावना कम ही दिखती है।

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वित्तीय वर्ष 2012-13 में

जीडीपी विकास दर का अनुमान

विभिन्न संस्थाओं के अनुमान

7.6% वित्त मंत्रालय

7.3% भारतीय रिजर्व बैंक

6.3% मॉर्गन स्टैनले

7-7.5% विश्व बैंक

7.0% एशियाई विकास बैंक

7.1% ओईसीडी

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क्या केन्द्र सरकार किसी भी मोर्चे पर अपनी सफलता का दावा करने की स्थिति हैं?

14% हां

86% नहीं

क्या आम आदमी सरकार की प्राथमिकता से बाहर हो गया है

93% हां

7% नहीं


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