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नेता–माफिया गठजोड़ का नमूना: सांसद मिलिंद देवड़ा के साथ (उनके बाईं ओर) तेल माफिया मुहम्मद अली खड़ा है। अपने प्रतिद्वंद्वी तेल माफिया की हत्या के आरोप में पहले से जेल में बंद अली से जे डे हत्याकांड में भी पूछताछ की जा चुकी है
वैसे तो क्राइम रिपोर्टिंग हमेशा और हर शहर में मुश्किल ही होती है, लेकिन देश की आर्थिक राजधानी मुंबई अंडरवल्र्ड, पुलिस और राजनीतिकों के गठजोड़ के कारण देश की आपराधिक राजधानी हो गई है। इस गठजोड़ की जड़ पर प्रहार करना किसी भी क्राइम रिपोर्टर के लिए किसी चुनौती से कम नहीं रह गया है।
जैसे –जैसे देश हर चीज में उन्नति कर रहा है, वैसे–वैसे अपराध और अपराधी भी अपना स्वरूप बदलते जा रहे हैैं। अपराध सफेदपोश होता जा रहा है। मुंबई में पहले जब किसी की चाकू मारकर हत्या की जाती थी, तो हंगामा बरप जाता था, लेकिन आज इतनी ‘प्रगति’ हो गई है कि एके 47 एवं बम विस्फोट से भी लोग चिंतित नहीं होते। उल्टे अगले दिन के अखबारों में गर्व के साथ छपता है कि इतने बड़े हादसे के बाद भी मुंबई की रफ्तार धीमी नहीं हुई है। एक समय था, जब पुलिस या राजनेता अपराधियों को अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करते थे। अब अपराधी स्वयं या तो राजनीति में आ गए हैैं अथवा राजनीतिकों के साथ उनके विभिन्न व्यवसायों में उनकी परोक्ष भागीदारी हो गई है। मुंबई में यह भागीदारी विशेषतौर पर भवन निर्माण, फिल्म निर्माण, तेल मिलावट एवं तस्करी, मादक पदार्थों की तस्करी में स्पष्ट दिखाई देती है। मसलन, मुंबई में सरकार द्वारा चलाई जा रही झोपड़पट्टी विकास परियोजना (एसआरए) की शायद ही कोई इमारत ऐसी हो, जो मंत्री–माफिया गठजोड़ के बगैर पूरी हुई हो।
इसके साथ–साथ, पुलिस–माफिया गठजोड़ भी उन बर्खास्त–निलंबित पुलिस अधिकारियों और एनकाउंटर स्पेशलिस्टों को देखकर स्पष्ट हो जाता है, जो किसी न किसी अंडरवल्र्ड सरगना से संबंध रखने अथवा उनके इशारे पर उसके किसी प्रतिद्वंद्वी को जान से मार देने के आरोप में आज जेल की हवा खा रहे हैैं। ऐसी स्थिति में जब भी क्राइम रिपोर्टर तेल या मादक पदार्थों की तस्करी से संबंधित किसी खबर पर काम करना शुरू करता है, तो उसे माफिया के अलावा पुलिस और मंत्री से भी लड़ाई लड़नी पड़ती है, और इसमें उसकी ‘कलम’ ही उसका सबसे बड़ा हथियार होती है। वहीं उसके दुश्मनों के पास बंदूक, कानून और सरकार तीनों हथियार उपलब्ध होते है। ज्यादातर ऐसी परिस्थितियों में क्राइम रिपोर्टर खुद को अकेला खड़ा पाता है और इस गठजोड़ के आर्थिक–राजनीतिक हितों पर प्रहार करने का खामियाजा उसे कई बार अपनी जान तक देकर चुकाना पड़ता है।
ताराकांत द्विवेदी ‘अकेला’ : (जे डे के सहयोगी और मिड डे के क्राइम रिपोर्टर)
जनमत
क्या पुलिस, प्रशासन व राजनीतिक संरक्षण के बिना माफिया का पनपना मुमकिन है?
हां : 78%
नहीं : 22 %
क्या शासन-प्रशासन के ढूलमूल रवैये से मीडिया पर हमलों को बढ़ावा मिल रहा है?
हां : 89%
नहीं : 11%
आपकी आवाज :
मीडिया द्वारा ही जनता को सरकार के अच्छे-बुरे कामों का पता चलता है. इसलिए इसकी सुरक्षा के लिए उचित कदम उठाए जाने चाहिए. – राजू 09023693142
यह सही है कि माफिया को पुलिस, प्रशासन और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है, इसके बिना उनका पनपना मुश्किल है. – नारायण कैरो (लोहरदगा)
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साभार : दैनिक जागरण 26 जून 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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