Menu
blogid : 4582 postid : 445

गढ़ में घुन लगता गया बेसुध रहे वामपंथी

मुद्दा
मुद्दा
  • 442 Posts
  • 263 Comments

• मार्च 2010 में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ)के एक अध्ययन के अनुसार देश में कुल 77,723 बीमार अति लघु और लघु इकाइयों में 16 हजार से अधिक की हिस्सेदारी के साथ पश्चिम बंगाल शीर्ष पर है

• आरबीआइ की एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश सरकार के ऊपर कर्ज का भारी बोझ है। इसकी कुल देयता 1,68,684 करोड़ रुपये है

• प्रदेश में प्रति व्यक्ति परिव्यय 339.5 रुपये है जो देश के प्रमुख राज्यों में सबसे कम है। महाराष्ट्र में प्रति व्यक्ति परिव्यय 2023.8 रुपये है

2011 विधानसभा चुनावों से पूर्व लगातार जनादेश प्राप्त करने वाली वाममोर्चा सरकार अगर चाहती तो पश्चिम बंगाल आज देश के अव्वल राज्यों वाली सूची में शामिल होता। ऐसे में कई बार प्रचंड बहुमत प्राप्त करने वाली वाममोर्चा सरकार द्वारा प्रदेश के विकास के लिए कोई भी नीति लागू करने के रास्ते में किसी तरह के रोड़े का सवाल ही नहीं पैदा होता। लेकिन फिर भी विकास नहीं हुआ। आखिर क्यों? पिछले करीब साढ़े तीन दशक से वाम दलों की नीतियां घुन की तरह उसके दुर्ग को चाटती रहीं और वे इस सबसे बेखबर रहे। प्रदेश में ज्यादातर उद्योग या तो बंद हो गए या फिर उन्हें ताला डालकर बाहर भागना पड़ा। गरीब की स्थिति दिन ब दिन बदतर होती गई। बामुश्किल ही कोई नया निवेश हो पाया। बेरोजगारी आसमान छूती गई। विकास जहां था वहीं पड़ा रहा। एक नहीं, ऐसे कई कारक हैं जिनके चलते वामपंथ के इस लालदुर्ग को जमींदोज होना पड़ा।

‘बंद’ हो बंद

एसोचैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक उद्योगों की अक्सर तालाबंदी के कारण 2006 में यहां 12.5 लाख श्रम दिवसों का नुकसान हुआ। इसी समयावधि में आंध्र प्रदेश में 2.4 लाख श्रम दिवसों, राजस्थान में 1.3 लाख और तमिलनाडु में 70 हजार श्रमदिवसों का नुकसान हुआ। इस तालाबंदी के चलते श्रमिकों को मिलने वाले वेतन के नुकसान में भी यह प्रदेश अव्वल रहा। पश्चिम बंगाल में 35.8 करोड़ रुपये का कुल वेतन नुकसान हुआ जबकि आंध्र प्रदेश में 26.3 करोड़ रुपये, कर्नाटक में 13.2 करोड़ रुपये और तमिलनाडु में 14.9 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। वेस्ट बंगाल एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च ने भी इस बात की पुष्टि अपने अध्ययन में की। इसके अनुसार तालाबंदी के चलते यहां 2007 और 2008 में क्रमश: 30 लाख और 19.5 लाख श्रम दिवसों का नुकसान हुआ। अगस्त 2006 से इन हड़तालों से प्रदेश को 11 हजार करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा है।

कम एफडीआइ बड़ी चिंता

बेहतर शैक्षणिक संस्थानों, कुशल मानव संसाधन जैसे प्रदेश सरकार के दिए गए प्रलोभनों के बाद भी प्रदेश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नहीं बढ़ा। अर्थशास्त्रियों के अनुसार यूनियन की अतिसक्रियता, राजनीतिक समस्याएं जैसे कारण घरेलू और विदेशी निवेशकों को दूर कर रहे हैं । लालफीताशाही और इससे जुड़े भ्रष्टाचार इस स्थिति को और खराब कर रहे हैं । खुदरा दुकानों की संख्या के हिसाब से देश में इस प्रदेश का तीसरा स्थान है। यहां करीब 30-45 लाख छोटी दुकानें हैं । इन प्रत्येक दुकानों से चार लोगों की आजीविका का जुगाड़ होता है। करीब दो करोड़ लोग सीधे तौर पर अपनी रोजी रोटी के लिए इन दुकानों पर आश्रित हैं ।

जानकारों के अनुसार सिंगुर से टाटा की नैनो परियोजना के हटने के बाद भी वहां पर इसका उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितना बड़ी संख्या में कारखानों के बंद होने के पीछे वामदल समर्थित यूनियनों की लगातार हड़ताल का रहा है। हालांकि इस सबके बावजूद भी प्रदेश को 2009 में 13 हजार करोड़ के निवेश प्रस्ताव मिले लेकिन सरकार अपने विसंगत औद्योगिकीकरण की दौड़ में कृषि और उद्योग के बीच प्रभावकारी सामंजस्य नहीं बिठा पाई।

कुशल मानव संसाधन का उपयोग

पश्चिम बंगाल में मौजूद ज्ञान के भंडार में अपार क्षमताएं होने के बावजूद उनका पर्याप्त उपयोग नहीं किया जा सका। हाल ही में जानी मानी कंसल्टिंग कंपनी प्राइसवाटरहाउसकूपर्स ने अपने ग्लोबल नेटवर्क को कोलकाता से संचालित करने की घोषणा की। हर साल प्रदेश के विश्वविद्यालयों से 20 हजार इंजीनियरों और विज्ञान व कामर्स जैसी विषयों में तीन लाख स्नातकों की फौज निकलती है। देश की आइटी राजधानी बेंगलूर में कार्यरत कुल श्रमशक्ति का करीब पचास फीसदी यहीं से हैं । सरकार यहां की प्रतिभा को पलायन करने से रोकने और उसके बेहतर उपयोग करने के क्षेत्र में पीछे रही है।

बढ़ती बेरोजगारी और मूलभूत सुविधाओं का अभाव

प्रदेश में 55 हजार से ज्यादा की संख्या में कारखानों के बंद होने के चलते करीब 15 लाख लोग बेरोजगार हुए। यहां के रोजगार कार्यालयों में लाखों लोग बतौर बेरोजगार पंजीकृत हैं । यहां बेरोजगारी दर 25-50 फीसदी है जो राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। पश्चिम बंगाल में शहरी युवाओं में बेरोजगारी दर 9.9 फीसदी है जबकि देश के अन्य हिस्सों में यह आंकड़ा 8.3 फीसदी का है। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रदेश 33वें स्थान पर है। इसके नीचे केवल बिहार और झारखंड हैं । यहां बामुश्किल 27.9 फीसदी लोगों को पीने का शुद्ध पानी उपलब्ध हो पाता है जबकि महाराष्ट्र और तमिलनाडु के लिए यह आंकड़ा क्रमश: 78.4 और 84.2 फीसदी है।

अच्छी तरह से पोषित हो आइटी क्षेत्र

वाम मोर्चा सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम वर्षों में सूचना प्रौद्योगिकी में निवेश बढ़ाकर इस क्षेत्र को डूबने से बचाने की कोशिश की थी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। हालांकि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के प्रयासों के चलते कई आइटी कंपनियों ने प्रदेश का रूख किया, लेकिन यह निवेश पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेश जहांपर इस उद्योग के पनपने के सभी कारक मौजूद हों, के लिए यह ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुआ।

15 मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “बहुत कुछ कहता है ये वोटर” पढ़ने के लिए क्लिक करें

15 मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “ताबूत में अंतिम कील!” पढ़ने के लिए क्लिक करें

15 मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “दोस्ती की बुनियाद पर जीत का महल” पढ़ने के लिए क्लिक करें

साभार : दैनिक जागरण 15 मई 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh