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कांग्रेस है सुविधावादी

मुद्दा
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Sonia gandhiपार्टी की आंतरिक व्यवस्था या प्रबंधन अभी यथास्थितिवादी है। एक लाइन में कहें तो पार्टी का आतरिक लोकतत्र ‘सुविधावादी लोकतत्र’ है। वैसे तो प्रत्याशियों के चयन के लिए लबा-चौड़ा लोकतांत्रिक तत्र है, लेकिन सभी अधिकार काग्रेस अध्यक्ष के पास निहित हैं। मगर काग्रेस अध्यक्ष के पास भी सर्वाधिकार तभी सुरक्षित होते हैं, जबकि वहा कोई गाधी परिवार से हो।


सांगठनिक चुनावी ढांचा

काग्रेस बड़े गर्व से दावा करती कि वह देश की अकेली ऐसी पार्टी है जिसके पास पार्टी के भीतरी चुनाव के लिए बिल्कुल अलग और स्वायत्त चुनावी तत्र ‘चुनाव प्राधिकरण’ है। सैद्धातिक रूप से प्राधिकरण ही सांगठनिक चुनावों के साथ-साथ लोकसभा या विधानसभा चुनावों की तैयारियों का पूरा प्रबंधन करता है। हालाकि, संगठन के चुनाव में तो व्यावहारिक स्थिति बिल्कुल ही अलग है। पार्टी संविधान या व्यवस्था के मुताबिक सभी राज्यों के चुनाव होते हैं और फिर वहा के प्रदेश अध्यक्ष और दूसरे प्रतिनिधि राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनते हैं। चौथी बार काग्रेस की अध्यक्ष बनकर इतिहास रचने वाली सोनिया गाधी का चयन भी इसी व्यवस्था के मुताबिक हुआ। मगर यहा दिलचस्प है कि अध्यक्ष चुनाव के लिए आधे राज्यों का चुनाव होना ही जरूरी है। उसमें सात राज्य उत्तर-पूर्व के मिलाकर छोटे राज्यों में ही काग्रेस चुनाव करा पाई। मतलब यह कि जो राज्य काग्रेस की सियासी रणनीति के लिहाज से अहम हैं, उन राज्यों की काग्रेस अध्यक्ष के चयन में कोई भूमिका ही नहीं थी। उल्टे हुआ यह कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान या तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में चुनाव हुए ही नहीं और काग्रेस अध्यक्ष ने यहा अध्यक्षों का मनोनयन किया। इसी तरह काग्रेस अध्यक्ष की पूरी टीम भी मनोनीत ही रहती है।


चुनावी तत्र

विधानसभा चुनाव के लिए पहले जिला चुनाव समिति कुछ नाम प्रदेश चुनाव समिति को भेजती है। फिर प्रदेश उन नामों को केंद्र के पास भेजता है। नामों पर स्क्रीनिंग कमेटी चर्चा करती है और फिर अपनी सस्तुतियों के साथ केंद्रीय चुनाव समिति को भेजे जाते हैं। प्रदेश अध्यक्ष और केंद्र से प्रभारी महासचिव की हर स्तर पर मौजूदगी रहती है। आखिर में उम्मीदवार के नाम पर यह केंद्रीय चुनाव समिति ही मुहर लगाती है। इस समिति द्वारा नाम तय न किए जा सकने की स्थिति में अंतिम निर्णय अध्यक्ष का होता है। लोकसभा चुनाव के लिए भी कमोबेश यही प्रक्रिया होती है, लेकिन उसमें केंद्रीय पदाधिकारियों की भूमिका सैद्धांतिक व व्यावहारिक दोनों ही रूप में ज्यादा प्रभावी होती है।


चुनावी खर्च

सोनिया गाधी और उनके उत्तराधिकारी राहुल गाधी दोनों ही चुनावी खर्च को सरकार के हवाले करने की पैरवी कर रहे हैं और इस दिशा में कुछ कदम भी बढ़ाए गए हैं, लेकिन अभी पार्टी में इस मोर्चे पर पारदर्शिता नहीं है। हर चुनाव के लिए प्रत्याशियों को कुछ फंडिंग की जाती है, लेकिन आमतौर पर खर्च उम्मीदवारों को ही उठाना पड़ता है।

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