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खरीद नियमों की सख्ती में घोटालों की सेंध

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भारत की रक्षा सेनाओं ने जितना नुकसान प्रमुख तीन जंगों में नहीं उठाया उससे कहीं ज्यादा बड़ा खामियाजा रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार और दलाली के आरोपों के चलते झेला है। बीते तीन दशकों में घोटाले के हर आरोप ने सरकार को नियमों के तार और कसने पर मजबूर किया है। यह विषद विडंबना ही है कि 1992 में पहली बार बने रक्षा खरीद के नियम सख्त से सख्त होते गए। वहीं अस्सी के दशक में बोफोर्स तोप खरीद में रिश्वत के आरोपों से लेकर टाट्रा ट्रक खरीद पर उठे ताजा सवालों तक दलाली के कांटे बदस्तूर जारी हैं। साथ ही बड़े रक्षा खरीद सौदों की लंबी शॉपिंग लिस्ट के मद्देनजर नए विवादों की आशंकाएं नियत हैं।


रक्षा मंत्रालय कहता है कि उसे सैन्य खरीद में देरी स्वीकार है लेकिन खरीद प्रक्रिया में पारदर्शिता से कोई समझौता मंजूर नहीं। बीते दिनों संसद में सवालों का जवाब दे रहे रक्षा मंत्री एक एंटनी ने कहा कि रक्षा खरीद प्रक्रिया में सख्त नियमों का उद्देश्य ईमानदारी, पारदर्शिता और जवाबदेही के मानकों के सुनिश्चित करना है। रक्षा खरीद नीति 2011 के अनुसार सौ करोड़ रूपए मूल्य के हर सौदे के लिए हथियार विक्रेता को संबंधित विभाग के साथ इंटीग्रिटी समझौता अनिवार्य है ताकि बिचौलिए के रूप में किसी व्यक्ति या एजेंसी का इस्तेमाल नहीं हो। साथ ही खरीद प्रक्रिया पर सरकार के फैसलों को प्रभावित करने की कोशिशों को भी रोका जा सके। इसके उल्लंघन की सूरत में भारी जुर्माने के भी प्रावधान हैं। इसके अलावा रक्षा खरीद प्रक्रिया में मूल निर्माता से ही खरीद, रक्षा खरीद के बड़े सौदों में फैसलों की सम्मिलित प्रक्रिया, ठेके के आवंटन से पहले विक्रेताओं के साथ बैठक, और आरएफआइ( रिक्वेस्ट फार इंफॉर्मेशन) की अनिवार्यता जैसे प्रावधान भी हैं। उल्लेखनीय है कि बड़े खरीद सौदों पर पहले रक्षा खरीद परिषद में बहस होती है वहीं वित्त मंत्रालय और मंत्रिमंडल की सुरक्षा संबंधी समिति की मुहर लगने के बाद ही सौदा परवान चढ़ता है। हालांकि 126 लड़ाकू विमान सौदे को छोड़ दे तो बीते कुछ एक दशक में भारत ने अपने अधिकतर सौदे सीधे सरकारों के साथ एफएमएस(फॉरेन मिलिट्री सेल) के रास्ते से ही किए हैं। हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि नियमों की पेचीदगियों में सेना की जरूरतों की फेहरिस्त उलझती गई और कई महत्वपूर्ण सौदे निश्चित समय सीमा से पिछड़ते गए।


हालांकि सख्त नियमों के बावजूद स्थिति यह है कि कुछ दिनों पहले ही भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी देश और विदेश की छह कंपनियों पर रक्षा मंत्रालय को दस साल का प्रतिबंध लगाना पड़ा है। रक्षा खरीद में गड़बड़ी के आरोप में  सीबीआइ ने जिन कंपनियों को दोषी पाया है उनमें इजरायल, रूस, जर्मनी व सिंगापुर की कंपनियां हैं। रक्षा खरीद के सौदे पर रिश्वत की पेशकश को लेकर सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह के रहस्योद्घाटन से मचे हड़कंप के बाद संसद में रक्षा मंत्री भी मान चुके हैं कि इनमें जो सौदे से बाहर होता है वो प्रक्रिया और प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ शिकायत कर देता है।

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हथियारों की होड़


आमतौर पर मान्यता है कि हथियारों के कारोबार जैसा कोई पेशा नहीं होता।  यह धंधा जितना घातक है उतना ही चोखा भी। दुनिया के सभी देश अपने तथाकथित दुश्मन को सबक सिखाने के लिए आधुनिक हथियार और रक्षा तकनीकों का संग्र्रह कर रहे हैं। वर्तमान में सालाना वैश्विक रक्षा खर्च 1500 अरब डॉलर को पार कर चुका है। अपने भारी भरकम रक्षा बजट के साथ भारत भी पिछले दस साल से हथियारों की इस होड़ में शामिल हो चुका है। यह दुनिया के हथियार खरीदने वाले प्रमुख देशों में से है। उभरती हुई शक्तियों में से अगर चीन को छोड़ दिया जाए तो हम दुनिया के सबसे बड़े हथियार खरीदार देश हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार कारगिल युद्ध के बाद से पिछले एक दशक के दौरान देश ने 50 अरब डॉलर के रक्षा समझौतों पर मुहर लगाई। इन समझौते के तहत लड़ाकू विमान, युद्धपोत, टैंक, मिसाइल, रडार और अन्य युद्धक सामग्र्री हासिल कर अपने जखीरे को मजबूत करना है। इसके लिए पिछले पांच साल के दौरान ही रक्षा मंत्रालय ने दो लाख करोड़ लागत वाले करीब 500 समझौते पर हस्ताक्षर किए। यही नहीं, मौजूदा दशक के दौरान करीब 100 अरब डॉलर कीमत के समझौते किए जाने की उम्मीद है।


दलालों की गिद्ध दृष्टि

यह सर्वमान्य सत्य है कि कोई भी सौदा बिचौलियों या दलालों की नजर से बच नहीं पाता है। कई बार तो ये बिचौलिए सौदा कराने में अहम भूमिका निभाते हैं। पुरस्कार स्वरूप इनको सौदे की दलाली मिलती है। इसके लिए ये बिचौलिए साम, दाम, दंड और भेद जैसे तरीके अपनाने से भी परहेज नहीं करते हैं। तभी तो कई रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि सेनाध्यक्ष और सरकार के बीच विवाद के मूल में कहीं ये बिचौलिए तो नहीं हैं। अपना रास्ता साफ करने के लिए ये लोग हथियार लॉबी के साथ मिलकर किसी भी हद तक जा सकते हैं।

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रक्षा सौदों का स्याह पक्ष

सैन्य हथियारों की खरीद प्रक्रिया में भले ही पारदर्शिता अपनाने के दावे किए जाते हों, लेकिन इन रक्षा सौदों की प्रक्रिया में कुछ ऐसी खामियां हैं जिनसे दलाली और गलत किए जाने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है।

सेना में जिस हथियार या लड़ाकू विमान की जरूरत होती है, उसके लिए विस्तृत प्राथमिक विवरण के रूप में जनरल स्टाफ क्वालीटेटिव रिक्वायरमेंट  (जीएसक्यूआर) तैयार किया जाता है।

(जीएसक्यूआर को किसी उत्पाद विशेष के पक्ष में लिखा जा सकता है। सेवा अधिकारियों को ‘मनी या हनी ट्रैप’ से प्रभावित किया जा सकता है।)

1रिक्वेस्ट फॉर इनफॉर्मेशन (आरएफआइ) एंड रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल (आरएफपी): आरएफआइ के माध्यम से सरकार किसी उत्पाद के बारे में जानकारी हासिल करती है। इसके बाद उस उत्पाद की खरीदारी के लिए आएफपी यानी निविदा प्रक्रिया शुरू करती है


2निर्माता अपनी निविदा जमा करते हैं

(यहां निविदा की शर्तों को उत्पाद के पक्ष में किए जाने की पूरी गुंजायश रहती है। इस स्तर पर भी ‘मनी और हनी ट्रैप’ के खेल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है)


3फील्ड में उत्पाद का परीक्षण किया जाता है। इसकी ट्रायल रिपोर्ट जमा की जाती है। (परीक्षण रिपोर्ट से भी छेड़छाड़ की जा सकती है)


4चयन के लिए कंपनियों की संक्षिप्त सूची तैयार की जाती है। तत्पश्चात इनकी निविदाओं को ख्रोला जाता है।


5सबसे कम बोली वाली कंपनी का चयन किया जाता है। (बाद में, शर्तें बदली जा सकती हैं। सौदे पर असर डालने के लिए हथियार निर्माता कंपनियां सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों से संपर्क करती हैं)


6सबसे कम बोली लगाने वाली कंपनी के साथ कीमतों पर बातचीत शुरू होती है


7रक्षा सौदे का मसौदा सुरक्षा मामलों पर गठित कैबिनेट समिति के पास भेजा जाता है।


(इस स्तर पर राजनीतिक दखलंदाजी या मिलीभगत हो सकती है। नतीजतन, पूरा प्रोजेक्ट या तो लंबित हो सकता है या फिर समाप्त)

8रक्षा सौदा संपन्न

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पूर्व में हुए चर्चित घोटाले

जीप घोटाला (1948)

ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त वीके कृष्ण मेनन ने प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए विदेशी फर्म से जीप खरीदने के लिए 80 लाख रुपये की डील की। पैसा एडवांस में देने के बावजूद केवल 155 जीपें ही आ सकीं।

बोफोर्स घोटाला (1987)

स्वीडन की हथियार निर्माता कंपनी बोफोर्स एबी के साथ 155 एमएम होवित्जर तोपों की खरीद में रिश्वत दी गई।

कारगिल ताबूत घोटाला (1999)

कारगिल युद्ध के दौरान ताबूतों की खरीद में घोटाले की बात सामने आई

सुखना घोटाला (2009)

दार्जिलिंग में आर्मी की 71 एकड़ जमीन को एक निजी बिल्डर को देने का मामला

आदर्श सोसायटी घोटाला (2010)

मुंबई के कोलाबा में कारगिल शहीदों की विधवाओं एवं पूर्व सैनिकों के लिए बनी इमारत में गैर सैन्य लोगों को आवंटन

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