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जनतंत्र की गुहार या साम्राज्यवादी दबंगई

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जुर्रत: वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान और अब लीबिया। ये उन चंद देशों के नाम हैं जहां लोकतंत्र की स्थापना और लोगों के जान-माल की सुरक्षा का बहाना लेकर अमेरिका की अगुआई में पश्चिमी देशों ने अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए हमले किये। अमेरिका के हमले से पीड़ित देशों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। यह तो सिर्फ बानगी भर है।

जरूरत: ऊर्जा सहित अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए दुनिया के दरोगा सरीखा व्यवहार करने वाला अमेरिका किसी भी बहाने से (अशांत और प्रचुर प्राकृतिक संसाधन वाले) देशों पर हमला करके एक तीर से कई निशाने साधने में माहिर है। देशों को युद्ध की विभीषिका में ठेलकर उन्हें सैन्य हथियारों की आपूर्ति कराकर खुद मलाई काटता है।

जिल्लत: सबसे बड़ा सैन्य सामग्र्री आपूर्तिकर्ता अमेरिका धन के बदले में की गई इस कृपा के बावजूद देशों को मुरीद बनाकर अपने राष्ट्रीय हित को साधने से बाज नहीं आता है। बड़े को बड़प्पन दिखाना शोभा देता है लेकिन बहाने से किसी संप्रभु राष्ट्र के अंदरूनी मामले में गैरजरूरी दखलंदाजी निंदनीय है। अपने हितों के लिए पश्चिमी देशों की यह नीति बड़ा मुद्दा है।

पुष्पेश पंत (प्रोफेसर, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू)

लीबिया में अमेरिका के नेतृत्व में ‘बहुराष्ट्रीय’ सैनिक हस्तक्षेप ने बहुत सारे पेचीदा और अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए विकट सवाल खड़े कर दिए है। पश्चिमी देशों द्वारा दावा किया जा रहा है कि यह अभियान निहत्थे लीबियाई नागरिकों को पागल तानाशाह कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के वंशनाशक नरसंहार से बचाने के लिए किया जा रहा है पर असलियत किसी से छिपी नहीं है। इस हमले के निहितार्थ से पूरी दुनिया वाकिफ है। भले ही संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव की आड़ में लीबिया पर पश्चिमी देशों क संयुक्त सेनाएं (बाद में नाटो के नेतृत्व) द्वारा हमले की कार्रवाई शुरू हुई है जिसका मूल उद्देश्य गृहयुद्ध की लपटों को शांत करना कहा जा रहा था और वह भी इस घोषणा के साथ कि अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को ‘जनतांत्रिक’ तत्वों का साथ देना चाहिए। इससे पहले लीबिया के पड़ोसी देश मिस्र में होस्नी मुबारक के तख्ता पलट के बाद वाले उत्साह के माहौल में किसी को इस बात की फुरसत नहीं थी कि लीबिया की घटनाओं या अमेरिका की नीति के बारे में ठंडे दिमाग से सोचा जाए।

तख्तापलट मिस्र में हो या ईरान में इसका अर्थ जनतंत्र की खुद बखुद बहाली नहीं होता। यह बात भी साफ है कि यदि तख्तापलट के स्थान पर ‘सत्ता परिवर्तन’ वाले मुहावरे का इस्तेमाल किया जाए तो भी अमेरिका की खुदगर्जी और अति यथार्थवादी अनैतिक आचरण की लीपापोती नहीं की जा सकती। यही दलील तब भी सुनने को मिली थी जब अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका की पहल पर जनतंत्र का बिरवा रोपने की कोशिश की गई थी। नतीजा आज सबके सामने हैं। सिवाय बेहद गैर जरूरी खून-खराबे और तबाही के कुछ भी हासिल नहीं हुआ है।

असलियत यह है कि अमेरिका की निगाह मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका के विपुल तेल भंडार पर है। उसका मकसद सिर्फ इतना नहीं कि अपनी जरूरत के लिए वह इसे अपने कब्जे में रखे बल्कि उसकी इच्छा है कि दूसरा कोई इसका आंशिक रूप में भी लाभ न उठा सके। भले ही लीबिया का तेल का खजाना सउदी अरब की तुलना में छोटा है पर भूराजनैतिक दृष्टि से वह यूरोप के संदर्भ में बेहद संवेदनशील है। यही कारण है कि कभी आतंकवादी दुष्ट देश कहे जाने वाले लीबिया को अचानक गले लगाने के लिए अमेरिका पलक झपकते तैयार हो गया सिर्फ इस भरोसे कि गद्दाफी अब सुलह के लिए तैयार हो गए हैं । अमेरिका ने अपनी स्वार्थपरता के चलते लॉकरबी विमान बम विस्फोट के दु:स्वप्न को भी बेहद आसानी से भुला दिया। 270 लोगों की जिंदगियां लील लेने वाले इस विमान बम कांड ने दोनों देशों के बीच न भर पाने वाली खटास की चौड़ी खाई खड़ी कर दी थी। हाल के दिनों में गद्दाफी सरकार से इस्तीफा देने वाले लीबिया के एक वरिष्ठ मंत्री ने कहा है कि उस बम विस्फोट का आदेश खुद गद्दाफी ने दिया था।  इसके बावजूद तेल के लालच में इस मामले के मुख्य दोषी को लीबिया को सौंप दिया गया। इससे अमेरिका समेत पश्चिमी देशों की स्वार्थपरता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।

यह सोचना तर्कसंगत है कि लीबिया में भी पटाक्षेप कमोबेश उसी तरह होगा जिस तरह इराक़ में। युद्ध से बर्बाद देश में ‘पुनर्निमाण’ का ठेका बड़ी-बड़ी अमेरिकी कंपनियों तक ही सीमित रहेगा और लीबिया के तेल पर भी बहुराष्ट्रीय अर्थात अमेरिकी तेल कंपनियों की इजारेदारी बरकरार रहेगी। सबसे बड़ा सवाल जो हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है, वह यह है कि साढ़े तीन सौ साल से प्रतिष्ठित राष्ट्र-राज्य की संप्रभुता की अवधारणा बार-बार इस तरह की कार्रवाई के बाद कब तक शेष रहेगी? मानवाधिकारों की रक्षा या जनतंत्र की स्थापना के नाम पर किया गया कथित अन्तरराष्ट्रीय हस्तक्षेप आसानी से जायज नहीं ठहराया जा सकता। अमेरिका की अगुवाई में लीबिया में जो हो रहा है वह नये मुखौटे के पीछे साम्राज्यवादी दबंगई ही है।

अमेरिकी सैन्यराज

किसी जमाने में साम्राज्य बढ़ाने के लिए राजा-महाराजा अपने उपनिवेश बनाते थे। आज अमेरिका के लिए यह उपनिवेश दुनिया में स्थित उसके सैन्य बेस हैं । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने साम्राज्यवाद के हितों को सुरक्षित रखने के लिए दुनिया के 150 से अधिक देशों में इसने अपने सैन्य बेस और सैनिक तैनात कर रखे हैं । स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार दुनिया के कुल सैन्य खर्च का 45 फीसदी केवल अमेरिका का सैन्य खर्च है।

• 8,45,441-दुनिया में अमेरिका के सैन्य भवनों एवं उपकरणों की संख्या.
• 3 करोड़ एकड़-दुनिया में अमेरिकी सैन्य संस्थानों से घिरा रकबा। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय दुनिया का सबसे बड़ा भू स्वामी.
• 685.1-अरब डॉलर 2710 में अमेरिका का रक्षा बजट (2709 के सैन्य बजट से तीन फीसदी अधिक).
• 98.0-अरब डॉलर चीन का रक्षा बजट (रक्षा खर्च मामले में अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर).
• 25-रक्षा बजट में शीर्ष देशों की संख्या जिनका कुल समग्र्र रक्षा बजट अमेरिका के सैन्य खर्च के बराबर है.
• 70.0-अरब डॉलर: अमेरिका का शिक्षा बजट.
• 737-विदेशी धरती पर अमेरिका के सैन्य बेस.

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साभार : दैनिक जागरण 27 मार्च 2011 (रविवार)
मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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