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प्राकृतिक संसाधनों के संवर्द्धन के साथ विकास हो

मुद्दा
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rk pachuriधरती की आबो-हवा में हुए क्षरण और पर्यावरण की सेहत में हुई गिरावट ने प्रकृति से मिलने वाली उन सेवाओं में भी खासी कमी पैदा की है जिन्हें दुर्भाग्य से हम अपनी आर्थिक प्रबंध योजना में माले-मुफ्त मानते है। वैसे आर्थिक विकास की चक्की भी अब उस स्थिति में पहुंच गई है जहां उसे धरती के प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाने का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।


इंसानी गलतियों से जंगलों की हरी छतरी में हुए छेद, बंजर हुई उपजाऊ मिट्टी, सांस के साथ जा रही हवा में घुले जहर और विषाक्त हुए नदियों के पानी ने भावी पीढ़ियों की जरूरत पूरी करने की प्राकृतिक क्षमताओं को खासा नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में इंसानी समाज के एक खास तबके की गलतियों का खामियाजा न केवल मौजूदा पीढ़ी भुगत रही है बल्कि आने वाली पीढ़ियां भी उठाएंगी। लिहाजा यह स्पष्ट हो रहा है कि सरकारी नीति के लिए प्राकृतिक घाटा देश के राष्ट्रीय घाटे से कही ज्यादा महत्व रखता है। विकास का निर्वहनीय मॉडल वही है जिसमें भावी पीढ़ियों की जरूरतों को प्रभावित किए बिना मौजूदा पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा कर पाएं।


मेरी नजर में भारत को यदि आर्थिक समृद्धि और विकास के लक्ष्य हासिल करना है तो हमें ऐसे हालात पैदा करने होंगे जिसमें न केवल मौजूदा प्राकृतिक संसाधन बचाए जा सकें बल्कि सक्रिय प्रयासों से उनका संवद्र्धन भी हो सके। उद्योग और व्यापार जगत इन प्रयासों का सक्रिय हिस्सा हो और यकीन मानिए कि इसकी कीमत निष्क्रियता के नुकसान के मुकाबले काफी कम है।


जलवायु परिवर्तन आज एक सत्य हैं और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फौरन प्रयास वक्त की जरूरत है। हमारी पीढ़ी ने कदम नहीं उठाए इसके घातक परिणाम वो पीढ़ी उठाएगी जो अभी 25 वर्ष से कम उम्र की है। वहीं, एक अरब से ज्यादा आबादी वाले मुल्क के लिए औद्योगिक राष्ट्रों की तर्ज पर उपभोगवादी जीवन शैली भारतीय समाज के लिए विनाशकारी साबित हो सकती है। भारत के लिए सबसे मुफीद होगा कि हर भारतीय धरती और प्रकृति की सेहत सुधारने के लिए संकल्प ले। देश के लिए रौशन भविष्य देने में युवाओं की भूमिका खासी है और इससे उनका भविष्य भी जुड़ा है। वैसे बीते कुछ दशकों की तुलना में भारत की मौजूदा युवा पीढ़ी में पर्यावरण के प्रति बढ़ी संवेदनशीलता मुझे आशा की किरण भी नजर आती है।


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05 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “एक बड़ी और अंतहीन बहस!” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


साभार : दैनिक जागरण 05 जून 2011 (रविवार)


नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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