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न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा,
वृद्धा न ते यो न वदन्ति धर्मम्।
धर्म: स नो यत्र न सत्यमस्ति,
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति।
संसद की लिफ्ट संख्या एक के पास वाले गुंबद पर लिखा गया महाभारत महाकाव्य का यह सूत्रवाक्य इसकी श्रेष्ठता एवं सर्वोच्चता और महत्ता को समझाने के लिए काफी है। इसका मतलब है कि वह कोई सभा नहीं है जिसमें अनुभवी लोग शामिल न हों। और वह वरिष्ठ नहीं है जो धर्म की बात न करता हो। वह धर्म नहीं है जिसमें सत्य न कहा जाय और वह सत्य नहीं होता जिससे कोई व्यक्ति छल-कपट और धोखाधड़ी की ओर उन्मुख हो।
विभिन्न धर्मग्रंथों के ऐसे तमाम सूत्रवाक्य हमारी संसद की प्राचीरों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं जो न केवल संसद की श्रेष्ठता एवं सर्वोच्चता दर्शाते हैं बल्कि उसके सदस्यों को इसकी महत्ता बरकरार रखने को भी प्रेरित करते हैं। एक जमाना था, जब लोग संसद की कार्यवाही को सांस रोककर देखते थे। अब शायद ऐसा नहीं हो रहा है। लोगों को शायद अब यह तमाशा ज्यादा लगने लगा है। और वे खुद तमाशबीन नहीं बनना चाहते हैं। किसी भी मसले पर संसद को सर्वोच्च बताने वाले हमारे माननीय राजनेताओं को इस मसले पर गहन आत्ममंथन करने की जरूरत हो सकती है कि कहीं संसद के भीतर उनके आचरण से तो ऐसी स्थिति नहीं उत्पन्न हुई। आखिर वे कौन से कारण हैं जिसके चलते समाज और संसद के बीच दूरी पैदा हुई है? क्या केवल कहने मात्र से संसद की सर्वोच्चता बरकरार रहेगी? या फिर संसद को अपने कृतित्व से भी खुद को साबित करना होगा। अगर ऐसा नहीं होता तो एक सक्षम लोकपाल कानून पारित करने के लिए सिविल सोसाइटी के लोगों को इतनी जिद्दोजहद क्यों करनी पड़ती।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में प्रोफेसर सुधा पई का मानना है कि संसद एक तरह से समाज का प्रतिबिंब होना चाहिए। आखिर वहीं से आए लोगों से संसद बनती है। जाहिर सी बात है कि समाज का असर कहीं न कहीं संसद पर देखा जा सकता है। यही बात समाज के लिए भी लागू हो सकती है। संसद में माननीय सांसदों के आचार-व्यवहार और बर्ताव का असर हमारे समाज पर भी पड़ता है। ध्यान रहे कि आज भी राजनेता लोगों के रोल मॉडल हैं। उनके हर एक अच्छे-बुरे कार्य व्यवहार एवं आचरण का हमारे समाज पर गहरा असर जाता है। सूचना तकनीक के आधुनिक जमाने में हमारे राजनेताओं के कार्य-व्यवहार को देख और सुन पाना बहुत सरल हो गया है। लोगों की रग-रग में बसी राजनीति पर हमेशा उनकी नजर होती है।
वहीं चुनाव सुधारों के लिए सतत प्रयासरत संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक सदस्य जगदीप छोकर का मानना है कि संसद समाज का पूरा प्रतिबिंब नहीं है। यह अत्यंत दुखदायक बात है कि समाज अब संसद को एक रोल मॉडल के रूप में नहीं देखता। आज के लोग संसदीय कार्यवाही को सांस रोककर नहीं देखते या इस प्रवृत्ति में कमी आई है, क्योंकि हमारे सांसद शायद यह भूल चुके हैं कि अपनी इज्जत अपने हाथ है। सदन के अंदर उनका व्यवहार भी चिंताजनक है। मेरे विचार में इसके लिए राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं, क्योंकि चुनाव में उम्मीदवारों का चयन यही राजनीतिक दल ही करते हैं।
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साभार : दैनिक जागरण 31 जुलाई 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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