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दिखावे से नहीं बनेगी बात

मुद्दा
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Manish sisodiaभ्रष्टाचार से निपटने के नाम पर पिछले कुछ दिनों में जो कदम सरकार ने उठाए हैं, उनमें दिखावा ज्यादा है समाधान की मंशा कम। देश भर में बने माहौल के बाद से दबाव में आई सरकार यह दिखाने में जुट गई है कि वह भी भ्रष्टाचार के प्रति संवेदनशील है। घोषणाओं और विज्ञापनों को पढ़कर ये कदम सरकार की गंभीरता को दर्शाते हैं लेकिन हकीकत यह है कि यह सख्त लोकपाल कानून की मांग कर रही जनता को भ्रमित करने की कोशिश है। जनता की मांग की धार को कुंद करने की साजिश है।


इसका प्रमाण हैं आनन-फानन में लागू किए जा रहे नागरिक सेवा गारंटी जैसे कानून। तमाम राष्ट्रीय अखबारों में बड़े बड़े विज्ञापन छापकर दावा किया जा रहा है कि दिल्ली में लोगों के काम समय सीमा में करने के लिए कानून बन चुका है। हकीकत में यह एक बेहद लचर व्यवस्था बनाई गई है। किसी दफ्तर में दो चार दिन में हो जाने वाले काम के लिए डेढ़-दो महीने तक की लंबी समयसीमा बना दी गई है। जाति प्रमाण-पत्र के लिए 60 दिन, राशन कार्ड या बिजली कनेक्शन लेने के लिए 45 दिन जैसी अव्यावहारिक समयसीमा बना कर एक तरह से सुनिश्चित कर दिया गया है कि अब किसी अधिकारी को ये काम एक दो दिन या सप्ताह भर में करने की आवश्यकता नहीं है। शोर मचाया जा रहा है कि अगर इस समयसीमा का पालन नहीं हुआ तो दोषी अधिकारी को दंडित किया जाएगा। सच यह है कि इस समयसीमा के पार होने पर पीड़ित व्यक्ति मुआवजे की मांग करेगा। दफ्तर के दो-चार चक्कर कटवाकर उसे अधिकतम 200 रुपये मुआवजा दिया जाएगा। जरूरी नहीं कि यह राशि दोषी अधिकारी के वेतन से ही काटी जाए। गौरतलब है कि मुआवजा दिलवाने और दोषी अधिकारी पर दंड लगाने का काम विभाग का ही एक वरिष्ठ अधिकारी करेगा। यानी चोरों का सरदार ही चोर को सजा देगा। यह मजाक नहीं तो और क्या है?


ध्यान देने वाली बात यह है कि हर विभाग में सिटिजन चार्टर बनाने और इसकी अवहेलना होने पर दोषी को सख्त सजा की मांग अन्ना आंदोलन की प्रमुख मांगों में थी। अन्ना के लोकपाल बिल में सिटीजन चार्टर की समयसीमा की अवहेलना पर सिर्फ जिम्मेदार अधिकारी ही नहीं विभाग के मुखिया तक के ऊपर जुर्माना लगाए जाने का प्रावधान है। यह अधिकार विभाग के किसी अधिकारी के पास न होकर स्वतंत्र लोकपाल या लोकायुक्त के पास होने की व्यवस्था है। सवाल यही उठता है कि जब देश की संसद लोकपाल कानून के दायरे में इसे लाने पर सहमत हो गई है तो आनन-फानन में एक कमजोर व्यवस्था क्यों लाद दी गई? न इसके लिए जनता में कोई विचार विमर्श किया गया, और न ही विधान सभा में व्यापक बहस।


इसी तरह मंत्रियों का एकाधिकार खत्म करना एक अच्छा आवश्यक फैसला है, लेकिन यह जानना भी जरूरी है कि इससे 2जी, राष्ट्रमंडल जैसे घोटाले कम नहीं हो सकते क्योंकि ये किसी एक मंत्री के एकाधिकार की वजह से नहीं, सरकार चलाने की प्रधानमंत्री की मजबूरी में हुए। सरकारी कामकाज में भ्रष्टाचार की गुंजाइश कम से कम हो, इसके लिए व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी है। सरकार को इसके लिए तमाम जरूरी कदम उठाने चाहिए, लेकिन अगर भ्रष्टाचार हो जाए तो उसकी जांच व दोषी को सजा दिलवाने का काम उसी विभाग के अफसरों या मंत्रियों पर नहीं छोड़ा जा सकता। इसके लिए लोकपाल जैसी सख्त संस्था की दरकार है जो सरकार के नहीं, आम लोगों के इशारे पर काम करे। इससे इधर-उधर भटकना, सरकार की मंशा में खोट का ही संकेत देता है।-मनीष सिसोदिया [सदस्य, सिविल सोसाइटी]


18 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “दस के दम से भ्रष्टाचार बेदम!”  पढ़ने के लिए क्लिक करें.

18 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून”  पढ़ने के लिए क्लिक करें.

18 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र बिना बेमानी हैं चुनाव सुधार”  पढ़ने के लिए क्लिक करें.


साभार : दैनिक जागरण 18 सितंबर 2011 (रविवार)

नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.


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