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पैसों का खेल लोकतंत्र में विषबेल

मुद्दा
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-प्रो.गुरप्रीत महाजन (सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू)
-प्रो.गुरप्रीत महाजन (सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू)

पैसों का खेल लोकतंत्र में विषबेल

राजनीति में पैसे का बोलबाला बढ़ रहा है। यह केवल विकसित देशों या भारत की ही समस्या नहीं है। कमोबेश दुनिया के अधिकांश देश इस परेशानी से जूझ रहे हैं। भारत हो या अमेरिका सभी जगह उच्च पद के चुनाव में पूंजीपतियों का पक्ष हावी रहता है।


लोकतंत्र की अवधारणा में जनता को सर्वेसर्वा बनाया गया है। इसके चलते जनता के आगे कोई कितना भी धनवान या पैसे वाला क्यूं न हो, उसे झुकना ही पड़ता है। उन देशों में जहां मध्यम वर्ग का समाज में अच्छा खासा रसूख होता है, वहां अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से कमजोर उम्मीदवारों को लोगों और सामाजिक संस्थानों से सहायता मिलने की संभावना रहती है। मगर जब किसी चुनाव में चुने गए प्रतिनिधियों की सीटें पैसे देकर खरीदी जाती हैं तो मामला बहुत संगीन रूप ले लेता है। यही कारण है कि झारखंड में राज्यसभा सीटों के चुनाव में धन के इस्तेमाल की बात सामने आना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक गहरी चोट है।


लोकतंत्र में सदैव यह सवाल उठता है कि क्या जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले हमारे राजनेता सचमुच जनता की आवाज सुनते हैं? जब वही चुने हुए लोग स्पष्ट और नि:संकोच रूप से जनता की अनदेखी करते हैं और निजी स्वार्थ के लिए काम करते दिखाई देते हैं तो लोकतंत्र की जड़ें हिल जाती हैं। इसलिए ऐसी गतिविधियों पर तुरंत रोक लगाना अनिवार्य हो जाता है। झारखंड में राज्यसभा के चुनाव को रद करके चुनाव आयोग ने एक कड़ा संदेश दिया है। यह एक महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन क्या यह पर्याप्त है? कुछ साल पहले ऐसे ही एक मामले में अमेरिका के इलीनोइस प्रांत के गर्वनर रॉड ब्लैगोजेविच ने सीनेट की सीट को बेचने की कोशिश की थी। उन पर कानूनी कार्रवाई की गई। उन्हें न केवल अपनी सीट छोड़नी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। ऐसे सख्त कदम से ही लोगों का विश्वास लोकतंत्र में कायम हो पाता है। अभी तक भारत में ऐसे मामलों में ऐसी सख्त कार्रवाई देखने को नहीं मिली है।  झारखंड के संदर्भ में धन के इस्तेमाल को लेकर कुछ लोकसभा सदस्यों ने इसकी आलोचना की है। यह काफी भले ही न हो लेकिन एक जरूरी कदम है। ऐसे कृत्यों को रोकने के लिए कानूनी बदलाव और कार्रवाई तो आवश्यक हैं लेकिन उन्हें अच्छे व्यवहार के समर्थन की जरूरत होती है। जब तक राजनीतिक पार्टियां और उनके सदस्य स्वयं ऐसे कामों की रोकथाम के लिए जरूरी कदम नहीं उठाएंगे तब तक भारतीय लोकतंत्र से इस बीमारी को खत्म कर पाना बहुत मुश्किल है।  यह तभी संभव है जब हमारे राजनेता अपने दलों के अंदर आंतरिक लोकतंत्र लाने की तरफ अग्र्रसर होंगे। तभी ऐसे पदों की खरीद फरोख्त और पैसों के खेल में संलिप्त सदस्यों के खिलाफ पारदर्शी तरीके से कार्रवाई की जा सकेगी। बदकिस्मती से हम अपने लक्ष्य से बहुत दूर हैं।

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राज्यसभा की चुनावी प्रक्रिया

राज्यसभा में राज्य एवं संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का चुनाव अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति के द्वारा होता है। राज्यों के विधानसभा के निर्वाचित सदस्य और दो संघ राज्य क्षेत्रों के निर्वाचक मंडल के सदस्य एकल संक्रमणीय मत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार चुनाव करते हैं। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और पुडुचेरी संघ राज्य क्षेत्र के निर्वाचक मंडल में संबंधित विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं।


द्विवार्षिक चुनाव

यह एक स्थायी सदन है। इसलिए यह कभी भंग नहीं होता। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल छह वर्ष होता है। इसके हर दो साल बाद एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त हो जाते हैं।


बदलाव की जरूरत!

जब अमेरिकी सीनेट की स्थापना हुई तो सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से ही होता था। यानी कि हमारे राज्यसभा चुनाव की तरह ही वहां भी राज्य विधानसभा के सदस्य सीनेटर को चुनते थे। यहां तक कि अगले 100 वर्षों तक निर्वाचन प्रणाली की यही प्रक्रिया बरकरार रही। 1850 के बाद जब धनबल के कई मामले प्रकाश में आने लगे तो कई राज्यों में इस प्रक्रिया में बदलाव आने शुरू हुए। दरअसल 1866 से लेकर 1906 के बीच इन चुनावों के दौरान नौ रिश्वत के मामले दर्ज हुए। सीनेट के लिए प्रत्यक्ष चुनाव की मांग सबसे पहले 1826 में की गई। उसके बाद अमेरिकी कांग्रेस के कई प्रतिनिधियों ने समय-समय पर संवैधानिक सुधार के प्रस्ताव पेश किए।


1900 के दशक के शुरुआती वर्षों में एक राज्य में अपने यहां की निर्वाचन प्रणाली में बदलाव की घोषणा की। इसी तर्ज पर 29 राज्यों ने अपने सीनेटरों को प्रत्यक्ष तौर पर चुनने की घोषणा कर दी। नतीजतन, 1913 में अमेरिकी संविधान के 17वें संशोधन के द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर राज्यव्यापी मतदान प्रक्रिया द्वारा सीनेटरों के चुनाव की घोषणा की गई। यदि राज्य के लोग अपने प्रतिनिधियों का प्रत्यक्ष चुनाव करें, तभी वास्तव में राज्यसभा अपनी मूल संकल्पना को सार्थक करने में कामयाब होगी। राज्यसभा में इस तरह का सुधार लंबे समय से लंबित है। सुधारों की इस प्रक्रिया के साथ ही इसकी संरचना को पुनर्संगठित किए जाने की जरूरत भी है।


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