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रेलवे के बारे में सरकार का नजरिया यह है कि उसे अपने बूते पर सब करना चाहिए। सरकार चाहती है कि रेलवे आंतरिक संसाधन जुटाकर कमाई के खुद नए रास्ते तलाशे। इनमें सार्वजनिक-निजी भागीदारी एक रास्ता है। लेकिन समस्या यह है कि निजी कंपनियां रेलवे में पैसा लगाने को तैयार नहीं। वे उन्हीं क्षेत्रों में निवेश करती हैं जहां कम समय में बेहतर रिटर्न मिलता है।
इस मामले में सड़क व विमानन क्षेत्र में सफलता मिली है, क्योंकि वहां चार-पांच साल में रिटर्न संभव है। जबकि रेलवे के साथ ऐसा नहीं है। यहां परियोजनाएं बहुत लंबी खिंचती हैं और रिटर्न मिलने में 30-35 साल लग जाते हैं। सड़क में जमीन अधिग्रहण व मंजूरियों में ज्यादा वक्त नहीं लगता, लेकिन रेल लाइन के लिए जमीन अधिग्रहण में ही सालों लग जाते हैं। रेल परियोजनाओं में तभी तेजी लाई जा सकती है जब हम चीन जैसा नजरिया अपनाएं। वहां 4-5 साल में रेल प्रोजेक्ट पूरे कर लिए जाते हैं। रेलवे में रोलिंग स्टॉक [इंजन, कोच व वैगन] में निजी निवेश अपेक्षाकृत आसान है। वहां रिटर्न भी जल्दी मिलता है। विदेश में यह हो रहा है। वैगन लीजिंग में जरूर कुछ कामयाबी मिली है। कंटेनर कारपोरेशन इसका उदाहरण है।
प्राथमिकता न होने से रेलवे को सरकार से हमेशा जरूरत से कम [महज 30 प्रतिशत] बजटीय समर्थन मिलता है। रेलवे तकरीबन 40 प्रतिशत तक राशि अपने आंतरिक संसाधनों से जुटाती है। 15 प्रतिशत तक राशि कर्ज [इंडियन रेलवे फाइनेंस कारपोरेशन के बांड आदि से] से प्राप्त की जाती है। शेष 15 प्रतिशत की कमी रह जाती है। ऐसे में कोई महत्वाकांक्षी योजना बनाना संभव नहीं होता। सिर्फ जरूरी कार्य होते हैं और आधुनिकीकरण के कार्य लटकते जाते हैं। इन हालात में रेलवे सालाना 8-10 फीसदी से ज्यादा विकास की बात नहीं सोच सकती। जबकि बड़ी छलांग लगाने के लिए कम से कम 15-20 फीसदी की दर से विकास जरूरी है।
आज रेलवे की हालत ऐसी हो गई है कि पुरानी संपत्तियों को बदलने के लिए मूल्यह्रास आरक्षित निधि [डीआरएफ] में डालने के लिए भी पैसे नहीं हैं। कुछ ऐसा ही हाल विकास निधि [डीएफ] और पूंजी निधि [सीएफ] का भी है। जबकि पेंशन फंड में पैसे डालने ही हैं और लाभांश देना भी जरूरी है। आंतरिक संसाधन बढ़ाने के लिए किराया बढ़ाना एक उपाय हो सकता है। रेलवे बोर्ड अपने स्तर पर किराया बढ़ा सकता है। इसके लिए उसे सरकार या संसद से इजाजत लेने की जरूरत नहीं। लेकिन इसका भी कोई आधार, कोई तरीका होना चाहिए। यह नहीं कि जब चाहे किराया बढ़ा दिया। इसके लिए जीवन यापन खर्च, रेलवे के संचालन व सामग्रियों पर खर्च तथा कार्यकुशलता के बीच संतुलन साधते हुए कोई फार्मूला निकाला जाना चाहिए।
रेलवे के खर्च उसकी कमाई के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रहे हैं। लिहाजा कार्यकुशलता बढ़ाकर खचरें पर अंकुश लगाना भी जरूरी है। हमारे समय में खचरें को कम करने और कमाई बढ़ाने के अनेक उपाय किए गए थे, जिनसे भारी सरप्लस खड़ा हुआ था। लेकिन उसे पूंजीगत कायरें के बजाय अनुत्पादक कायरें में खर्च कर दिया गया। नतीजतन रेलवे आज फिर वहीं खड़ी है जहां पांच साल पहले थी। संरक्षा दुरुस्त करने के लिए अब नई योजनाओं को लागू करने की जरूरत है। [जेपी बत्रा, पूर्व अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड, संजय सिंह से बातचीत आधारित]
जनमत
क्या आप भारतीय रेल की सेवाओं से संतुष्ट हैं?
हां: 8%
नहीं: 92%
क्या सुधारों को लेकर सरकार की उपेक्षा भारतीय रेल की दुर्दशा का प्रमुख कारण है ?
हां: 76%
नहीं: 24%
आपकी आवाज
अगर आपने भारतीय रेल की एक बार भी सेवा ली है तो इस सवाल का जवाब खुद ब खुद मिल जाएगा। भगवान भरोसे चलने वाली भारतीय रेलवे की यात्रा से शायद ही कोई संतुष्ट हो। यात्रा पूरी होने तक हमेशा किसी अंजान डर का बोध बना रहता है: [सीएआर पाठकएटदीरेटजीमेल.कॉम]
मैं नहीं समझता कि देश का कोई भी नागरिक रेलवे की सेवाओं के पूरी तरह संतुष्ट होगा। इसका सबसे बड़ा कारण रेलमंत्रियों द्वारा किया जाने वाला क्षेत्रवाद भी है[एसी मधेशिया, 1475एटदीरेटजीमेल.कॉम]
रेलवे की बेहतरी के लिए गठित अब तक कई सारी समितियों ने अपनी सिफारिशें दीं। मगर सरकार की उपेक्षा के चलते ही इनमें से अधिकांश सुधारों के सुझाव लागू नहीं किए जा सके: [कुलदीप पांडेय ‘गुरुजी’एटदीरेटजीमेल.कॉम]
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