- 442 Posts
- 263 Comments
मरीजों की भारी भीड़ के बोझ तले दिल्ली में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा किस कदर चरमरा रहा है, इसकी झलक भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की ताजा रिपोर्ट में सामने आई है। अस्पतालों में चिकित्सकीय उपकरणों, दवाओं, इंजेक्शनों तथा अन्य सुविधाओं की भारी कमी है। करोड़ों रुपये खर्च कर उपकरण खरीदे भी जा रहे हैं, तो उनका इस्तेमाल नहीं हो पा रहा। वे धूल फांक रहे हैं। स्टाफ की कमी से भी मरीजों को सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं।
शहर के बड़े अस्पतालों में प्रतिदिन तीन से चार हजार तथा अपेक्षाकृत छोटे अस्पतालों में डेढ़ से दो हजार रोगी पंजीकरण कराने आते हैं लेकिन पर्याप्त काउंटरों की कमी के कारण मरीजों की लंबी लंबी कतारें लगती हैं और समय कम होने के कारण कई बार लोगों को अगले दिन फिर से कतार में खड़ा होना पड़ता है।
दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री डॉ अशोक कुमार वालिया बताते हैं कि सूबे की सरकार ने बीते 15 वर्षों में कुल 21 नए अस्पताल राजधानी में खोले हैं और विभिन्न नौ अस्पतालों में 2242 बिस्तरों की संख्या बढ़ाई है। राजधानी में कुल 39 अस्पताल कार्यरत हैं और 12 विभिन्न अस्पतालों के निर्माण की प्रक्रिया जारी है। महत्वपूर्ण यह है कि नए अस्पताल बनाने के दावे पिछले कई वर्षों से किए जा रहे हैं लेकिन इनका निर्माण नहीं हो पा रहा।
अस्पतालों में स्टॉफ की भारी कमी को खुद सरकार भी स्वीकार कर रही है। शहर के विभिन्न अस्पतालों में सैकड़ों की संख्या में वरिष्ठ डॉक्टरों के पद खाली पड़े हैं। चतुर्थ श्रेणी में तो एक हजार से ज्यादा पदों को भरा जाना है। अस्पतालों में मरीजों के बिस्तर, गद्दे, चादरें तथा कंबलों की हालत खराब है। कई अस्पतालों में उपकरण हैं भी, तो बेकार पड़े हुए हैं, एक्स रे करने के लिए फिल्मों व केमिकल की कमी है। प्रयोगशालाओं में जांच के लिए आवश्यक सुविधाओं की अनुपलब्धता भी एक बड़ी समस्या है। दवाओं की कमी भी मरीजों के लिए एक बड़ी समस्या बनी हुई है।
……………………..
कराहती जिंदगी
सरकारी अस्पतालों में संसाधनों का अभाव है। ग्र्रामीण इलाकों की बात तो दीगर है, राज्य के मेडिकल कॉलेज में भी स्थिति ठीक नहीं है। सरकार ने महानगर से सटे कल्याणी में दिल्ली के एम्स की तर्ज पर अस्पताल बनाने का निर्णय किया। परंतु, सियासी खींचतान में पिछले चार वर्षों से लटक रही है। ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य परिसेवा बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन आर्थिक बदहाली इसमें रोड़ा बनी हुई है। हालांकि मेडिकल कॉलेज अस्पतालों में बेडों की संख्या में वृद्धि हुई है। गरीबों को सस्ती दवा उपलब्ध कराने के लिए दुकानें खोली गई हैं।
………………
कैंसर की मजबूत होती गिरफ्त
वो जमाने गए जब यहां के बाशिंदों की तंदुरुस्ती देश में मिसाल के तौर पर दी जाती थी। अब पंजाब में लोग बीमारियों की चपेट में हैं। राज्य के सेहत का इंफ्रास्ट्रक्चर भी इस काबिल नहीं है कि उन्हें बीमारियों से लड़ने में सक्षम बनाते हुए सहयोग दे सके। हालात यह हैं कि सेहत महकमा स्टाफ की जबरदस्त कमी से जूझ रहा है। महीनों के प्रयासों के बावजूद भी तकरीबन 1200 डॉक्टरों के पद खाली पड़े हैं और पैरा मेडिकल स्टाफ के करीब 1600 पद खाली पड़े हैं। राज्य में कैंसर का पंजा ऐसा फैला है कि यहा के किसी भी हिस्से के लोग इससे बचे नहीं हैं। हालांकि राज्य के सेहत ढांचे को हालिया राष्ट्रीय आम समीक्षा मिशन रिपोर्ट में उत्तम का दर्जा दिया गया है, लेकिन फिर भी लोगों को सेहत सुविधाओं का पूर्ण लाभ मिलने में कई खामियां हैं। प्रदेश में प्रति व्यक्ति 794 रुपए के खर्च के प्रावधान के बावजूद भी संस्थागत प्रसूति की दर 65 प्रतिशत के आसपास ही है।
………………………
राज्य की बुरी गत
प्रदेश में जरूरत के हिसाब से न तो चिकित्सक हैं और न ही उपकरण। पीजीआइ रोहतक समेत 54 अस्पताल, 110 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 466 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 2630 उप स्वास्थ्य केंद्र, सात ट्रॉमा सेंटर, 15 जिला टीबी अस्पताल, 88 शहरी आरसीएच सेंटर और 469 डिलीवरी हट का भारी-भरकम संगठनात्मक ढांचा है। रोहतक व अग्रोहा में दो मेडिकल कॉलेज हैं, लेकिन इन्हें चलाने के लिए डॉक्टरों के मात्र 2499 पद सृजित हैं, जिनमें से 2006 पर ही चिकित्सक तैनात हैं। राज्य के चिकित्सकों के 493 पद अभी भी खाली पड़े हुए हैं।
…………………………
नहीं संवर पा रही सेहत
प्रदेश में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए चार से पांच सौ करोड़ रुपये का सालाना बजट। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य अभियान के कार्यक्रमों के लिए भी लगभग इतनी ही राशि अलग से। इसके बावजूद सरकारी चिकित्सा व्यवस्था यहां के लोगों की सेहत नहीं संवार पा रही। राज्य में शिशु मृत्यु दर में निश्चित रूप से कमी आई है। वर्तमान में यहां यह दर (प्रति एक हजार पर 39) राष्ट्रीय औसत से भी कम है। दूसरी ओर मातृ मृत्यु दर का ऊंचा ग्राफ, 70 प्रतिशत महिलाओं में एनीमिया, आधे से अधिक बच्चों में कुपोषण और संस्थागत प्रसव में वृद्धि नहीं हो पाना अभी भी बड़ी समस्या बनी हुई है। 2001 की तुलना में 2011 में झारखंड में लिंगानुपात तो बढ़ा, लेकिन बाल लिंगानुपात में भारी कमी आ गई। 2011 में बाल लिंगानुपात 943 हो गया। 2001 की जनगणना में बाल लिंगानुपात 965 था।
7 अप्रैल को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘थोड़ा है थोड़े की जरूरत’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.
7 अप्रैल को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘सवाल सेहत का’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.
Read Comments