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सवाल सेहत का

मुद्दा
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तर्ज

आत्म: इंद्रिय मन: स्वस्थ: स्वास्थ्य इति अवधीयते। चरक संहिता के इस श्लोक के अनुसार जिसकी आत्मा, मन एवं इंद्रियां स्वस्थ हों, वही वास्तव में स्वस्थ है। 1948 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के अनुसार शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्णत: स्वस्थ होना ही स्वास्थ्य का प्रतीक है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है और तंदुरुस्ती हजार नियामत है, जैसी सूक्तियां हमारे यहां बच्चे-बच्चे के जुबां पर हैं। लेकिन आज देश में अच्छी सेहत और उसे मुहैया कराने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को हर कहीं देखा व महसूस किया जा सकता है।


मर्ज

चिकित्सा जगत के जाने-माने आयुर्वेदाचार्य चरक और भारतीय शल्य चिकित्सा के पितामह सुश्रुत के देश की सेहत आज बदतर हालात में है। यह अपने आप में हैरतअंगेज है। बीमार कोई भी हो सकता है। अति गरीबी, पिछड़ापन, गंदगी, साफ-सफाई का अभाव, विकास की अंधी दौड़ में बढ़ता प्रदूषण, मिलावटी पदार्थ आदि इसके लिए पर्याप्त कारक देश में मौजूद हैं। तेजी से धनाढ्य होता एक वर्ग सेहत के मोर्चे पर दूसरी तरह से हलकान हो रहा है। अनियमित जीवनशैली और खानपान के चलते नई तरीके की बीमारियों से पीड़ित होने वाले लोगों की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ रही है।


फर्ज

स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता भले ही देश को ‘मेडिकल टूरिज्म’ के बड़े केंद्र में स्थापित करती हो, दुनिया के कई देशों से लोग उनके यहां से अपेक्षाकृत सस्ती सेवाओं का लाभ उठाने के लिए यहां कूच कर रहे हों, लेकिन सच्चाई यही है कि यह सुविधा अभी कुछ सीमित धनिकों को ही हासिल है। गरीब आज भी स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम है। स्वास्थ्य सूचकांक के हर पहलू बुलंद भारत की बदरंग तस्वीर पेश करते हैं। ऐसे में विश्व स्वास्थ्य दिवस के मौके पर देश की खराब सेहत की पड़ताल करना और उसके अनुरूप सरकार से कदम उठाए जाने की अपेक्षा करना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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बढ़ती बीमारियां हटती सरकार


सामाजिक सुरक्षा के एजेंडे के साथ सत्ता में आई संप्रग सरकार अचानक स्वास्थ्य को लेकर अपने वादे से पीछे हटने लगी है। एक्सरे की जरूरत नहीं? आंखे खुली हों तो यूं ही दिखाई देता है कि मुल्क का स्वास्थ्य ढांचा बेहद बीमार है। ‘देश का सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा ध्वस्त है’ यह बात विपक्ष के किसी नेता ने नहीं, खुद कैबिनेट मंत्री जयराम रमेश ने पिछले दिनों कही है। ऐसे में सवाल है कि क्या इसकी दवा ठीक हो रही है? मगर हैरान करने वाली बात है कि जहां बीमारियों का खतरा लगातार बढ़ रहा है, सरकार अचानक अपनी भूमिका सीमित करने के मूड में आ गई है।


देश में पैदा हो रहे बच्चों को हम जीवन की गारंटी तक नहीं दे पा रहे हैं। आज हजार में औसतन 44 बच्चे अपना पहला जन्मदिन नहीं देख पाते। इसी तरह हर लाख में से 212 माताएं बच्चों को जन्म देने के साथ दम तोड़ देती हैं। दशकों की कोशिश के बावजूद हम अब तक अपनी प्रजनन दर 2.1 फीसद तक नहीं ला सके हैं। जबकि पिछले कई वर्षों से सरकार मुख्य रूप से इन्हीं लक्ष्यों पर काम कर रही है। इसलिए कैंसर जैसी बड़ी बीमारियों और इनके महंगे इलाज की उपलब्धता का तो सवाल ही मत कीजिए।


यह सही है कि पिछले आठ साल में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) ने गांवों में स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए गंभीर प्रयास शुरू किए थे। उस पर से प्रधानमंत्री ने वादा किया कि स्वास्थ्य पर खर्च को पांच साल के अंदर बढ़ा कर जीडीपी का ढाई फीसद कर दिया जाएगा। मगर अचानक बीते एक साल के दौरान उल्टी दिशा पकड़ ली। योजना आयोग ने साफ कर दिया है कि अब सरकारी ढांचे को और बढ़ाने पर जोर नहीं होगा। ताजा बजट में इसका साफ असर रहा। इस बार बजट में स्वास्थ्य को कुल 37,330 करोड़ रुपए दिए गए। पिछली बार के मुकाबले महज पौने तीन हजार करोड़ ज्यादा यह रकम एक साल की महंगाई का मुकाबला करने के लिए भी नाकाफी है। उस पर से इसी रकम में शहरी स्वास्थ्य मिशन भी शुरू कर दिया गया।


पिछले दिनों खुद सरकार ने माना है कि एनआरएचएम का काम ढाई गुना ज्यादा तेजी से होना चाहिए था। इस पर अब तक सिर्फ 72 हजार करोड़ रुपए ही खर्च हो सके हैं। जबकि यह रकम ढाई गुनी ज्यादा यानी 1.75 लाख करोड़ होनी चाहिए थी। आज भी हमारे यहां औसतन दो हजार लोगों पर महज एक डाक्टर है। जबकि कम से कम दोगुने डाक्टर होने चाहिए। यह सही है कि दो साल से ज्यादा समय से हमने पोलियो का कोई नया मामला नहीं होने दिया है। मगर दूसरी तरफ अब भी बच्चों के टीकाकरण की हालत बहुत बुरी है। खुद सरकारी दावे को भी मानें तो बीते साल के दौरान एक साल तक के महज 1.42 करोड़ बच्चों का ही टीकाकरण हुआ। यह महज 56 फीसद होता है।


पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में पांचतारा सरीखे अस्पताल जरूर खुल गए हैं। इनके दम पर हम मेडिकल पर्यटन का भी दम भर रहे हैं। मगर इनके नियमन की ठोस व्यवस्था नहीं होने के कारण अनावश्यक जांच और सर्जरी की शिकायत यहां आम है। यानी आप सरकारी ढांचे से निराश भले हों, लेकिन बेखौफ निजी अस्पतालों में भी नहीं जा सकते। सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे की कमी की वजह से ही अचानक आने वाली बीमारियों से लड़ते हुए हर साल तीन फीसद हिंदुस्तानी गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। इसके बावजूद सरकार जिस तरह अपने कदम खींच रही है, उससे जाहिर है कि खजाने की चिंता हमारी सेहत पर भारी पड़ने वाली है।

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बीमार सेवाओं का इलाज जरूरी


सर्वाधिक शिशु मृत्यु दर और कुपोषित गर्भवती महिलाओं वाले  प्रदेश में बीमार स्वास्थ्य सेवाओं का मुकम्मल इलाज जरूरी है। करीब 21 करोड़ आबादी की सेहत का फिक्र करने के बजाए ‘सरकारी योजनाओं’ में फैले भ्रष्टाचार ने हालात अधिक बिगाड़े हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) घोटाले से विभाग की छवि काफी कलंकित हुई। स्वास्थ्य सेवाओं की बदतर हालत का अंदाज इससे लगता है कि वर्ष 1991 की जनसंख्या के आधार पर भी स्वास्थ्य सुविधाएं मानक से बहुत पीछे हैं। सूबे में स्वीकृत 823 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) के सापेक्ष 626 ही काम कर रहे हैं। बढ़ी आबादी का ध्यान करें तो 482 नये सीएचसी, 1478 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और 6823 उपकेंद्र खोले जाने की जरूरत है। संसाधनों की किल्लत की बात यही पर नहीं थमती। 396 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर एक्स-रे मशीन और 751 पर अल्ट्रासाउंड सुविधा नहीं है। चिकित्सकों व प्रशिक्षित स्टाफ की कमी खुद स्वास्थ्य एवं चिकित्सा मंत्री अहमद हसन भी मानते हैं। प्रदेश में 16 हजार 28 पदों के सापेक्ष 5550 पद अभी रिक्त है। पर्याप्त स्टाफ न होने के कारण करीब 4950 स्वास्थ्य केद्रों पर ताला लटका है। सरकारी तंत्र की नाकामी के चलते 11 वीं योजना में तय किए लक्ष्यों की पूर्ति नहीं हो सकी। पूर्वांचल में जापानी ज्वर का कहर बदस्तूर जारी है। हजारों मौतों के बावजूद कोई स्थायी उपचार नहीं तलाशा जा सका। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा मंत्री कहते हैं कि सरकार बदलने के साथ स्वास्थ्य विभाग की सूरत सुधारने की कोशिश हुई है। समाजवादी एंबुलेंस सेवा, आशीर्वाद बाल स्वास्थ्य गारंटी योजना और संसाधन जुटाने के लिए गंभीर प्रयास किए गए है। जापानी ज्वर से निपटने को गोरखपुर के मेडिकल कालेज को विशेष सहायता व रायबरेली में एम्स की स्थापना आदि के अलावा बजट में 10645 करोड़ रुपये का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त एनआरएचएम के तहत वर्ष 2012-13 के लिए 45 हजार करोड़ रुपये खर्च करने का प्रस्ताव भी है।


7 अप्रैल  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘मरीजों के बोझ से हांफ रहे अस्पताल‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


7 अप्रैल  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘थोड़ा है थोड़े की जरूरत’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.



Tags: health tips, health condition in India, health system in India, health system research, health system, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, कुपोषण, स्वास्थ्य व्यवस्था

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