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खत्म होगा 42 साल का इंतजार

मुद्दा
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लोकपाल का इतिहास: स्कैंडीनेवियाई देशों में स्थापित किए गए ओम्बुड्समैन की तर्ज पर भारतीय लोकपाल की परिकल्पना की गई। स्वीडन में ओम्बुड्समैन की स्थापना 1809 में ही की जा चुकी थी। इसके तुरंत बाद कई देशों में अधिकारी वर्ग के रवैये से लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए इस तरह की संस्था का सूत्रपात किया गया। ‘ओम्बुड्समैन’ एक स्वीडिश शब्द है जिसका मतलब ‘विधायिका द्वारा नियुक्त एक ऐसा अधिकारी जो प्रशासकीय और न्यायिक प्रक्रियाओं से संबंधित शिकायतों का निपटारा करे।’

जरूरत: 60 के दशक की शुरुआत में देश के प्रशासनिक ढांचे में जड़ जमाते भ्रष्टाचार से यहां पर स्कैंडीनेवियाई देशों के जैसे ओम्बुड्समैन की जरूरत महसूस की गई। मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में पांच जनवरी 1966 को प्रशासकीय सुधार आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने अपनी सिफारिशों में एक द्वि-स्तरीय प्रणाली के गठन की वकालत की। इस द्वि-स्तरीय प्रणाली के तहत केंद्र में एक लोकपाल (न्यूजीलैंड में संसदीय आयुक्त की तर्ज पर) और राज्यों में लोकायुक्तों की स्थापना पर जोर दिया गया था। सरकार ने पहला लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 1968 में पेश किया।

विधेयक नहीं बन सका कानून: सरकारें आती गईं और जाती गईं, लेकिन भ्रष्टाचार से लड़ने की दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी के चलते पिछले 42 सालों से लोकपाल विधेयक कानून का रूप नहीं ले पाया।

पहली बार पेश: 1968 में पहली बार इस विधेयक को चौथी लोकसभा में पेश किया गया। इस सदन से यह विधेयक 1969 में पारित भी हो गया लेकिन राज्यसभा में अटका रहा। इसी बीच लोकसभा के भंग हो जाने के चलते यह विधेयक पहली बार में ही समाप्त हो गया। इस विधेयक को एक बार नए सिरे से 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001, 2005 और हाल ही में 2008 में संसद में पेश किया गया, लेकिन हर बार इसे किसी न किसी वजह के चलते फंसना पड़ा। हर बार पेश करने के बाद इस विधेयक में सुधार के लिए या तो किसी संयुक्त संसदीय समिति या गृह मंत्रालय की विभागीय स्थायी समिति के पास भेजा गया। और जब तक इस विधेयक पर सरकार कोई अंतिम निर्णय ले पाती सदन ही भंग हो गया।

हालिया परिणति: प्रधानमंत्री, मंत्री और सांसदों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों पर कार्रवाई की ताकत देने वाला लोकपाल विधेयक कई बार सरकार द्वारा सदन में पेश किया गया। लेकिन हर बार विधेयक के औंधे मुंह गिरने की वजह दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के अलावा हमारे राजनेताओं के मंसूबों की भी पोल खोलती है।

गुजराल सरकार: संक्षिप्त समय वाली इंद्रकुमार गुजराल की सरकार ने भी इस विधेयक को पेश करने का साहस दिखाया। 1996 में पेश किया गया यह विधेयक पांचवीं बार गिरा.

वाजपेयी सरकार: अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1998 में और 2001 में इसे पारित कराने का असफल प्रयास किया

मनमोहन सरकार: सितंबर 2004 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भरोसा दिलाया कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार इस विधेयक को अमल में लाने के लिए समय नष्ट न करते हुए शीघ्र लाएगी। यह बात और है कि बहुदलीय सरकार की व्यवस्था में पारदर्शिता से परहेज के दबाव ने अभी तक इस विधेयक का मार्ग प्रशस्त नहीं किया है।

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साभार : दैनिक जागरण 10 अप्रैल 2011 (रविवार)
मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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