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अव्यवस्था: गरीबों की सही पहचान के बाद दूसरा सबसे मुश्किल काम है, उन तक कल्याणकारी योजनाओं और वित्तीय सुविधाओं की पहुंच। करीब तीन दशक पहले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का कहना था कि केंद्र से जारी एक रुपये में से सिर्फ 15 पैसे ही गरीबों तक पहुंच पाते हैं। शेष रकम रास्ते में ही बिचौलियों के खातों में चली जाती है। यह अव्यवस्था और कुप्रबंधन कमोबेश अभी तक जारी है।
आस: विश्व बैंक के एक हालिया अध्ययन के मुताबिक बिहार के गरीबों के लिए जारी सब्सिडी वाले अनाज का 91 फीसदी हिस्सा जरुरमंदों तक नहीं पहुंचता। बुजुर्ग, दरबदर, विधवा और विकलांग लोगों के लिए दी जाने वाली पेंशन का केवल 32-51 फीसदी हिस्सा ही सही हाथों तक पहुंचता है। इन कमियों को दूर करने और गरीबों को सही मायने में उनका हक दिलाने के लिए 2011 के बजट में वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने जून 2012 से सभी कल्याणकारी योजनाओं की रकम लाभार्थियों के सीधे बैंक खातों में जमा किए जाने की घोषणा की।
अभाव: गरीबों को नकद भुगतान किए जाने की यह यात्रा सात महीने बाद भी सिरे चढ़ती नहीं दिख रही है। योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए एकसूत्रीय कार्ययोजना का जहां अभाव है वहीं विभिन्न स्तरों पर कई तरह के प्रयास भी जारी हैं। सालाना तीन लाख करोड़ रुपये के नकदी के खेल में कई खिलाड़ी शामिल हो गए हैं। योजना को मूर्त रूप देने वाली एजेंसियों के बीच भ्रम और टकराव की स्थिति बनी है। ऐसे में गरीबों की प्रस्तावित पहचान के बाद उनका हक सीधे उन तक पहुंचाने का खोखला दावा बड़ा मुद्दा है।
गरीबों की पहचान कर उन तक रियायती दरों पर सुविधाएं पहुंचाना ही गरीबी रेखा की पहचान का मुख्य मकसद होता है। हालांकि जब हम उनको चिन्हित कर लेते हैं तब भी उन तक ये सुविधाएं नहीं पहुंचा पाते। कम से कम सार्वजनिक वितरण प्रणाली का अनुभव यही बताता है।
पीडीएस के गरीब उपभोक्ताओं तक प्रभावशाली ढंग से पहुंच का अध्ययन सबसे पहले मैंने 1993 में किया था। मेरे अध्ययन का आधार 1986-87 आधार वर्ष पर किया गया एक राष्ट्रीय सर्वे था। मैंने पाया कि अधिकांश राज्यों के आधे से भी ज्यादा गरीबों को पीडीएस के माध्यम से राशन नहीं मिल रहा था। जबकि गरीब तक एक रुपये की मदद पहुंचाने के लिए सरकार को पीडीएस प्रणाली पर पांच रुपये से भी ज्यादा खर्च करना पड़ता है।
इन सबके बावजूद तब से लेकर आज तक इस कहानी में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। एक ताजे आकलन के मुताबिक आज भी करीब 35.5 प्रतिशत गरीबों को ही पीडीएस के तहत राशन मिल पाता है।
मैं वर्षो से पीडीएस व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए स्मार्ट कार्ड या खाद्य कूपन देने का तर्क प्रस्तुत कर रहा था जिसको 2009-10 के आर्थिक सर्वे में शामिल किया गया। इस कार्ड का इस्तेमाल कर कोई भी व्यक्ति किसी भी दुकान से अनाज खरीद सकता है। दुकानदार किसी भी बैंक में कूपन को भुना सकता है। इससे पीडीएस प्रणाली ही अप्रासंगिक हो जाएगी। हालांकि इसमें गरीबों को बांटे जाने वाले कूपनों की छपाई और वितरण की समस्या होगी।
आधार स्कीम के तहत यूनीक आइडेंटिफिकेशन नंबर का इस्तेमाल कर कूपन जारी करने और प्रिटिंग की बड़ी समस्या से भी निजात पाई जा सकेगी। आधार कार्ड के बावजूद गरीबों की पहचान का लक्ष्य एक बड़ी समस्या है।
बीपीएल कार्ड वितरण की दोषपूर्ण प्रणाली के कारण इसमें लोगों को शामिल करने और बाहर करने की समस्या बरकरार रहेगी।
बीपीएल कार्ड से बाहर रखने वाले लोगों की समस्या का निदान सबके लिए भोजन के अधिकार की व्यवस्था से किया जा सकता है। इसकी सलाह राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने दी है। जिसमें पीडीएस के माध्यम से रियायती दरों पर सभी को अनाज उपलब्ध कराया जाए। इसके लिए मंत्रियों के उच्चाधिकार प्राप्त समूह ने जिस खाद्य सुरक्षा बिल को सहमति दी है उसके तहत चिन्हित परिवारों को 3 रुपये किलो चावल, 2 रुपये किलो गेहूं और एक 1 रुपये किलो मोटा अनाज देने का प्रावधान है। यह स्कीम देश की 68 फीसदी जनसंख्या को कवर करेगी और सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी 95 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगी। हालांकि इस स्कीम में भी चिन्हित परिवारों की पहचान की समस्या बरकरार रहेगी।
इसका एक तरीका यह हो सकता है कि अमीरों की पहचान कर लेनी चाहिए। जो आयकर देते हों, जिनके पास गाड़ी हो और सरकारी समेत संगठित सेक्टर में काम करने के अलावा 15 हजार रुपये से ज्यादा मासिक आमदनी वाले लोगों की पहचान कर ली जानी चाहिए। एक मोटे आकलन के मुताबिक इस प्रकार करीब चार करोड़ परिवार हैं। इनकी पहचान करने से बीपीएल कार्ड धारकों की संख्या अपने आप कम हो जाएगी।
इसके अलावा खाद्य कूपन या आधार कार्ड की सहायता से जब किसी भी दुकान से खरीददारी संभव होगी तो हर साल पांच करोड़ टन अनाज के प्रसंस्करण और वितरण की समस्या भी खत्म हो जाएगी। इसके अलावा राशन की कमी का बहाना भी नहीं बनाया जा सकेगा।
इससे पीडीएस तंत्र पर आने वाला खर्च भी काफी कम हो जाएगा। यह एक सच्चाई है कि देश के कई रिमोट इलाकों में दुकानदार ऊंची दरों पर सामान बेचते हैं। ऐसे इलाकों में कोआपरेटिव सोसायटी को दुकानें खोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और यहां मिलने वाले सामान की दरें हर सप्ताह सरकार द्वारा घोषित की जानी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेक्सिको में करीब 22 हजार को-आपरेटिव स्टोर हैं, जो खाद्य वस्तुओं के अलावा जरूरी सामान बेच कर निजी दुकानदारों को चुनौती दे रहे हैं।
अब सवाल उठता है कि क्या जो सामान खरीदना है उसके पैसे ट्रांसफर करना उचित होगा? इसमें एक व्यावहारिक दिक्कत है कि यदि जिस व्यक्ति के नाम वह आधार कार्ड होगा अगर वह बीमार या असमर्थ है तो आपात दशा में अस्पताल जाने में असमर्थ होगा। इससे कम से कम परिवार के दो अन्य लोगों को भी इसके इस्तेमाल की सुविधा दी जानी चाहिए।
एक तरीका यह भी है कि सिर्फ कैश ट्रांसफर कर दिया जाए उसके साथ यह शर्त न जोड़ी जाए कि इससे क्या खरीदा जा सकता है? इससे परिवार को यह निर्णय करने का अधिकार होगा कि वह पैसे का उपयोग अपनी जरूरत के आधार पर करे। यह भी स्पष्ट तौर पर चिन्हित किया जा चुका है कि महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए परिवार में पैसा उसके नाम से ही ट्रांसफर किया जाए। यदि आधार कार्ड द्वारा यह किया जाता है तो केवल वही पैसे का उपयोग कर सकेगी।
इस प्रकार यदि हम देश के 24 करोड़ परिवारों में से चार करोड़ अमीरों को बाहर निकाल दें तो 94 हजार करोड़ रुपये में से बाकी बचे 20 करोड़ परिवारों को हर साल 4700 रुपये दिए जा सकते हैं।
कल्याण योजनाओं का बड़ा आकार
हर साल कल्याणकारी योजनाओं पर सरकार तीन लाख करोड़ रुपये खर्च करती है। अगर यह रकम सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में पहुंच जाए, तो तस्वीर कुछ और ही होगी। प्रमुख योजनाओं और उनके तहत खर्च की जा रही रकम (करोड़ रुपये में) का विवरण इस प्रकार है।
सब्सिडी – खर्च (करोड़ में)
खाद्य – 60,570
उर्वरक – 50,000
एलपीजी, केरोसीन – 3,050
नकद
पेंशन – 54,000 करोड़
मनरेगा – 40,000 करोड़
इंदिरा आवास योजना – 10,000 करोड़
सेवाएं
मिड डे मील – 10,380
सर्व शिक्षा अभियान – 7,100
[डॉ किरीट पारिख, चेयरमैन, इंटीग्रेटेड रिसर्च एंड एक्शन फॉर डेवलेपमेंट एवं पूर्व सदस्य, योजना आयोग]
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साभार : दैनिक जागरण 16 अक्टूबर 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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