- 442 Posts
- 263 Comments
चौसठ बरस बीत गए हमें आजाद हुए। आज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। दुनिया के कई देश हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली, रीतियों एवं नीतियों को देखने और सीखने आते हैं। कई अहम क्षेत्रों में हमने उल्लेखनीय सफलता का परचम लहराया है लेकिन अन्य कई मोर्चों पर हमारी विफलता अखरने वाली है। इतने दिन बाद भूखों की क्षुधा शांत करने की हमें अब सुध आ रही है। हमारा बुनियादी अधिकार ‘सूचना का अधिकार’ हमें अब मिल सका है लेकिन उसकी कीमत अभी भी चुकानी पड़ रही है। एक विशेष वर्ग के बच्चों को शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित कराने का ख्याल अब परवान चढ़ सका। जिस देश में अहिंसक आंदोलनों के जरिए आजादी हासिल की गई उसी देश में आज ऐसे आंदोलनों के लिए मुफीद जगह के लिए सरकार के रहमोकरम की जरूरत पड़ रही है। ऐसे में सबके जेहन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हम सही मायने में आजाद हैं ? ऐसी आजादी का क्या मतलब है? 65वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आजादी के मायने तलाश करना बड़ा मुद्दा है।
अमावस में रोशनी की कौंध जगाती है उम्मीद
आजादी के पांच साल बाद मैं पैदा हुआ। देखते-देखते किसी अजगर जैसा सुस्त-लंबा समय, अपने पीछे किसी उलझे हुए इतिहास की गहरी लकीर छोड़ता हुआ सरसराता गुजर गया। मैं, हिन्दी का एक स्वतंत्र लेखक, बस कुछ ही महीने बाद भारत का एक वरिष्ठ नागरिक हो जाने के करीब हूं। साठ या चौसठ साल की उम्र न बचपन, न वयस्कता और न ही प्रौढ़ होने की अधगदराई उम्र है। अब चश्मे के पार अपनी कम होती जाती आंखों की रोशनी में ऐसा लगता है कि जैसे आज हमारे घर आंगन में तो अंधेरा धीरे-धीरे घना होता जा रहा है लेकिन बाहर बाजार में, शहर की सड़कों और कुछ बंगलों-कोठियों में खासी जगमगाहट है। इस लंबी अमावस रात में आकाश में कहीं चांद या नक्षत्रों की शांत-शीतल टिमटिमाहट भले न हो, मोबाइल, शॉपिंग मॉल और कीमती कारों की हेडलाइट्स तेज रोशनी से जगमगा रहे हैं।
आज , इन पंक्तियों को लिखते हुए मैं मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के सीमांत पर, अपनी आसन्न मृत्यु का इंतज़ार करती नर्मदा और सोन जैसी नदियों के तट पर बसे अपने छोटे से उस औसत हिंदुस्तानी गांव में हूं जहां दिन-रात के चौबीस घंटों में बिजली बमुश्किल पांच घंटे आती है। जहां अभी तीन महीने पहले पहले लाखों की लागत से बनने वाली सड़क, मानसून की पहली ही बारिश में बह चुकी है।
कई बार लगता है कि स्वतंत्रता जैसी महान ऐतिहासिक घटना को अतीत के , किसी भुलाए जा चुके पुराने जर्जर कैलेंडर की किसी एक खास तारीख के भीतर क्यों समेट कर रख दिया जाय? उसे उस तारीख के आगे और पीछे की किसी निरंतर जारी सामाजिक परिघटना के रूप में क्यों न देखा जाय। अपनी स्वाधीनता को हम किसी तारीख का मुर्दा जीवाश्म बना कर किसी अजायब घर या सरकारी संग्रहालय में क्यों रख दें?
कभी-कभी मन में संशय जन्म लेता है कि क्या सचमुच 15 अगस्त, 1947 के शून्यकाल में ही इस महान सभ्यताओं वाले महादेश के सारे सपने संपूर्ण हो गए थे, या सिर्फ यह उस सपने की शुरुआत भर थी? इस राजकीय तारीख के कई साल पीछे, 1929 के आखिरी दिन, यानी 31 दिसंबर को, पंजाब मे रावी नदी के किनारे, ठीक आधी रात में जब युवा जवाहरलाल नेहरू और नौजवानों के हृदय-सम्राट सुभाषचन्द्र बोस ने, पूर्ण स्वराज के क्रांतिकारी नारे के साथ पहली बार तिरंगा फहराया और 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस की घोषणा की थी, कहीं उसे आने में देर तो नहीं लग रही है। लेकिन इस अमावस के अंधेरे में भी, दूर-दूर रोशनी की कौंध हमें उम्मीद बंधा रही है।
मैं अपने गांव से इस बार साफ-साफ देख रहा हूं कि इन चौसठ सालों में बहुत कुछ बदल गया है। इस पिछड़े इलाके में , जहां अभी पांच साल पहले तक बैलगाड़ियां, हल और कोल्हू चलते थे, वहां आधा दर्जन से ज्यादा बहुराष्ट्रीय, कंपनियां आ गई हैं। मेरे गांव के आदिवासी और अन्य जातियों-वर्गों के बच्चे, कंपनियों और सरकारों द्वारा अधिगृहीत किए जा चुकेखेतों की मेड़ और गांव-कस्बे की टूटी-फूटी सडकों पर, लिवाइस की पैंट और रिबॉक की टी-शर्ट पहने, नए मॉडल की बाइकें दौड़ा रहे हैं। उनमें लापरवाह बिंदासपन है। अक्खड़ता है। ….और उनके हाथों में, महंगे ब्लैकबेरी को भी मात करने वाले, चाइनीज मोबाइल फोन हैं। इन गांवों में थोड़े भी रुपये-पैसे वाले लोग अपने बच्चों को किसी प्राइवेट पब्लिक या कान्वेंट स्कूल में भेज रहे हैं। इन स्कूलों की चमकती हुई बसें गांव की संकरी गलियों से, जहां गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों के इंदिरा आवास परियोजना वाले घर बने हुए हैं, म्युजिकल हॉर्न बजाती गुज़र रही हैं। गांव के तमाम लोग फर्जी कार्ड बनवाकर दो रुपये किलो चावल और कोटे की शक्कर खरीद रहे हैं। सारे खेत खाली पड़े हैं। अब वहां धान की रोपाई नहीं हो रही है, वहां नकदी के सपने अंकुरित हो रहे हैं। चौसठ साल पुराना तिरंगा स्कूलों और सरकारी इमारतों में लहरा रहा है।
लेखक उदय प्रकाश एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं।
बोल कि लब आजाद हैं तेरे! अब तक
देश को अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाए चौसठ बरस हो रहे हैं, पर विडंबना यह है कि आज भी हमारी आजादी आधी-अधूरी ही नज़र आती है और आदमी पूछने को मजबूर है, ‘यह कैसी आजादी?’
सबसे ताजा उदाहरण जन लोकपाल बिल पर अन्ना हजारे के सत्याग्रह वाला है। प्रस्तावित विधेयक वाली बहस में उलझने की जरूरत यहां नहीं। जो सवाल हमें और करोड़ों हिंदुस्तानियों को बेचैन कर रहा है वह है कि आज भी अहिंसक तरीके से सरकार से अपनी असहमति व्यक्त करने के लिए हमें सरकार की अनुमति की जरूरत क्यों है ? संविधान भले ही इसे हर नागरिक का बुनियादी अधिकार बताता है, लेकिन हमारी सरकार जब जी चाहे धारा 144 की तलवार लहराकर धरने पर बैठे लोगों को तितर-बितर कर सकती है। पहले खुद सरकार ने ही इस तरह के आंदोलनों के लिए जंतर-मंतर वाली जगह तैयार की थी फिर वह इससे भी मुकर रही है। जिस जुल्म का सामना रामलीला मैदान पर रामदेव बाबा के मासूम भक्तों को करना पड़ा, उसकी भत्र्सना सुप्रीमकोर्ट भी कर चुका है। धारा 144 जैसे औपनिवेशिक कानून का आज के जनतांत्रिक भारत में कोई मतलब नहीं हो सकता।
दुर्भाग्य तो यह है कि आज हमारे देश में अंग्र्रेजों के राज की तरह ही सरकार सर्वशक्तिमान है। आम आदमी की हालत खस्ताहाल प्रजा जैसी ही है। यही वजह है कि सरकार से जुड़े पहुंच वाले मनमानी कर मुनाफा कमा रहे हैं और कुनबापरस्ती को अजर-अमर बनाने में कामयाब हुए हैं। राष्ट्रमंडलखेल गांव या 2जी घोटाला, आतंकवाद हो या नक्सली हिंसा हमारी सरकार अपने भ्रष्टाचार और नाकामयाबी पर परदा डालने में सफल होती रही। व्यक्ति की ही नहीं, मीडिया के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा डालने के लिए कानून मुकम्मल है। कानून के राज का माहौल बनाने का कोई मौका सरकार नहीं छोड़ती। जब न्यायालय नागरिक से अधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय होती है तो उस पर लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन का आरोप लगना शुरू हो जाता है। न्याय व्यवस्था का लाभ बाहुबली और पैसे वाले धनपिशाच ही उठाते हैं। जेब कतरे किशोर साल-सालभर विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में बंद रहते हैं जबकि हत्यारे बलात्कारी और संसद में सेंधमारी करने के आरोपी जमानत पर छूट जाते हैं। आसानी से और रंगे हाथ गिरफ्तार दहशतगर्द सर्वोच्च अदालत से मृत्युदंड पाने के बाद भी निरापद जीवनयापन करते हैं, इस आशा में कि तुष्टीकरण के लिए उनकी सजा आजीवन कारावास में बदल दी जाएगी।
आम आदमी को ना तो भूख से आजादी है और ना बीमारीसे। शिक्षा के अभाव में वह अंधविश्वास का गुलाम बना हुआ है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी कन्या भ्रूण हत्याएं समाप्त नहीं हो सकी हैं और ना ही बाल विवाह और दहेज को लेकर वधू का उत्पीड़न। जहां तक दलितों और आदिवासियों के शोषण और तिरस्कार का प्रश्न है, इसके लिए दिखाने को कानून बहुत सारे हैं पर यहां भी इन तबकों की आजादी पूरी नहीं समझी जा सकती। घुमा-फिरा कर कुलजमा बात सरकारी नौकरियों या चुनाव में सीटों का आरक्षण तक पहुंचकर अटक जाती है। विडंबना यह भी है कि सरकार आंकड़ों की भूल-भुलैया में आलोचकों को उलझाकर गद्दी पर बने रहना ही अपना कर्तव्य समझती है। बंधुआ मजदूर हो अथवा कर्ज में डूबे खुदकुशी करने वाले किसान या फिर गरीबी की सीमारेखा के नीचे 20 रुपये रोज पर जिंदगी बसर करने वाले दिहाड़ी मजदूर, खुद को आजाद कैसे समझ सकते हैं भला?
खतरा तो अब यह नज़र आने लगा है कि जो कोई भी अपना मुंह खोलने का दुस्साहस करेगा आने वाले दिनों में उसे उदीयमान भारत का शोर मचाने वाले देशद्रोही करार देने लगेंगे और तख्तानशीन सरकार उनका साथ देगी। यह कैसी आजादी! बोल कि लब आजाद है तेरे! अब तक।
लेखक पुष्पेश पंत जीएनयू में प्रोफेसर हैं।
14 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “चूके तो चुक गए हम” पढ़ने के लिए क्लिक करें.
14 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “मायूसी का मर्ज” पढ़ने के लिए क्लिक करें।
साभार : दैनिक जागरण 14 अगस्त 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
Read Comments