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अहा आजादी ! कठिन राह पर चलना है मीलों

मुद्दा
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अहा आजादी !

गर्व

स्वतंत्रता। जन्मसिद्ध अधिकार। समय चक्र परिवर्तनशील है। जो कभी दासता की बेड़ियों में जकड़ा था आज नीले आकाश में उन्मुक्त उड़ान के लिए आजाद है। जो कल धूल धूसरित था, आज पुष्प से सुवासित है। ‘आजादी’ की कल्पना मात्र से ही जहां हम रोमांचित हो उठते हैं, धमनियों में रक्त प्रवाह तेज हो जाता है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसे में 66 साल पहले जब 15 अगस्त, 1947 को अंग्र्रेजी शासन से हमें मुक्ति मिली और हमारे पुरखे खुली हवा में सांस लेने को आजाद हुए तो उनकी मनोदशा के बारे में केवल कल्पना ही की जा सकती है।


गाथा

अब जब हम आजाद हैं तो साल भर स्यापा करते रहते हैं। ये नहीं हुआ वो नहीं हुआ। ये गड़बड़ है तो वो गड़बड़ है। हर बात का रोना रोते रहते हैं। हर चीज के लिए सरकार और प्रशासन को कोसते हैं। कभी आगे बढ़कर चीजों को दुरुस्त करने की जहमत नहीं उठाते हैं। यही करते और कहते हम छियासठ साल के होने जा रहे हैं। अब इस मानसिकता में बदलाव की जरूरत है। बदलाव सब जगह हुआ भी है। गिलास आधा खाली है या आधा भरा है। जरूरत सिर्फ नजरिए की है। अब समृद्धि और खुशहाली को खोजना नहीं पड़ता है। वह दिख जाती है। विश्वपटल पर भारत की चर्चा हो रही है। हमारी राय को गंभीरता से लिया जा रहा है। वैश्विक मंचों पर अब हमें अनसुना नहीं, सुना जाता है। आजादी के समय हमारे स्वप्नद्रष्टाओं ने जो आकांक्षाएं, उम्मीदें पाल रखी थीं, फलीभूत हो रही है।


पर्व

आज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। दुनिया के कई देश हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली, रीतियों एवं नीतियों को देखने और सीखने आते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में हमारी विकास गाथा की दुनिया कायल है लेकिन अभी भी कई क्षेत्रों में बहुत कुछ करना बाकी है। जोश और जज्बे को जगाने वाला आजादी का यह पर्व इन्हीं मौकों में से एक है जब हम उन क्षेत्रों में भी उत्कर्ष दिखाने का संकल्प ले सकते हैं जो समय की दौड़ में पीछे रह गए हैं। ऐसे में इस पर्व के बहाने समाज से सरकार तक आजादी के मोल को समझते हुए सकारात्मक जोश व जज्बे को जाग्र्रत करना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है…

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कठिन राह पर चलना है मीलों

पुष्पेश पंत

(प्रोफेसर जेएनयू)


इस पर्व पर स्वाधीनता के सपने को संपूर्ण-साकार करने के अभियान में जुटने का संकल्प भी जरूरी है। हर वर्ष जब हम अपनी आजादी की सालगिरह मनाते हैं तो एक जश्न जैसा माहौल अपने आप तैयार हो जाता है। हाल के वर्षों में लालकिले की ऐतिहासिक प्राचीर से दिये जाने वाले प्रधानमंत्री के भाषण में श्रोताओं की दिलचस्पी घटी है (जिसके कारणों का विस्तार से विश्लेषण करने का यह अवसर नहीं) और न ही हमें यह ठीक लगता है कि इस शुभ दिन को असंतोष-आक्रोश मुखर करने में ही व्यर्थ कर दिया जाय। यह सच है कि हमारा देश कठिन दौर से गुजर रहा है मगर हमारा मानना है कि छाती कूटते विलाप करने या अपने गुस्से को जनतांत्रिक तरीके से प्रकट कर शासकों को जवाबदेह बनाने के लिए साल के बाकी दिन महीने उपलब्ध हैं। स्वाधीनता दिवस का सदुपयोग उन शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए किया जाना बेहतर है जिनके निस्वार्थ बलिदान ने हमें यह आजादी दिलाई।


भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कहना था कि आजादी एक बार हासिल करने से ही निरापद नहीं होती। इसकेलिए निरंतर अनथक सतर्कता की दरकार है। आजादी के बाद का अनुभव इस कथन के सच को जाहिर करता है। आपातकाल में यह आजादी खतरे में पड़ गयी थी। एक नये स्वाधीनता संग्राम ने हमें इस काले अध्याय सरीखे शाप से मुक्ति दिलाई। आजादी का मतलब सिर्फ राजनीतिक आजादी नहीं होता। आर्थिक परावलंबन उस आजादी को घुन की तरह खत्म कर देता है। सामाजिक विषमता-जाति पर आधारित उत्पीड़न हो अथवा अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव-को समाप्त किये बिना भी यह आजादी अधूरी रह जाती है। इस सबके साथ मानसिक दासता की समस्या को रेखांकित करना परमावश्यक है। खासकर भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में पश्चिमी-पूंजीवादी समाज के आधिपत्य ने स्वदेशी संस्कृति के अस्तित्व का संकट उत्पन्न कर दिया है।


इस व्यापक संदर्भ में आजादी को परिभाषित करने के बाद ही हम ईमानदारी के साथ वह लेखा जोखा तैयार कर सकते हैं जो 1947 से ले कर आज तक हिंदुस्तान की उपलब्धियों का है।इस बात को अनदेखा करना असंभव है कि हमारे कृषि वैज्ञानिकों ने किसानों और खेतिहर मजूरों की मदद से जो हरित क्रांति पूरी की उसने विदेशी अनाज की अपमानजनक बैसाखी से छुटकारा दिला दिया है। यदि हम आज खाद्यान्नों के मामले में आत्म निर्भर नहीं होते तब यह स्थिति कितनी विकराल होती। संक्रामक रोगों से निजात दिलाने में हमने कामयाबी हासिल की है। चेचक तथा पोलियो का उन्मूलन हो गया है, नवजात शिशुओं के राष्ट्रव्यापी टीकाकरण ने कुकरखांसी, डिफ्थीरिया और टेटनेस जैसे जानलेवा दुश्मनों को शहरों में ही नहीं गांव देहात से भी खदेड़ा जा सका है। भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे अस्पताल विकासशील दुनिया में अन्यत्र दुर्लभ हैं।


सीमांती विषयों में शोध करने वाले भारतीय परमाणु वैज्ञानिक, अंतरिक्ष की शोध में जुटे विशेषज्ञ अंतरराष्ट्रीय स्तर के हैं। एक दशक पहले तक इन विषयों में हम विदेशी सहयोगियों के सहकार पर निर्भर थे। अंतरिक्ष यात्रा हो या परमाणविक ऊर्जा उत्पादन। हमारी सामथ्र्य को कुंठित करने के लिए जो प्रतिबंध हम पर लगाए गये उनकी कृपा से हम धीरे-धीरे ही सही आत्मनिर्भरता की दिशा में अग्रसर हो सके हैं। अमेरिका, रूस या किसी और ताकत के सहारे की जरूरत हमें नहीं। औषधियों के उत्पादन जगत में भारत ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। खास कर उन दवाइयों के उत्पादन में जिन्हें जेनेरिक कहा जाता है। जिनका पेटेंट खत्म हो चुका है और जिन्हें हम आयात की दवाइयों की तुलना में बहुत कम कीमत पर बना बेच सकते हैं। कंप्यूटर जगत में भारतीय प्रतिभा से पूरा विश्व चकित है। शनै: शनै: ही सही विज्ञान की इस प्रगति ने करोड़ों नागरिकों को रूढ़ियों तथा अंधविश्वास की बेड़ियों से मुक्त किया है। सदियों से असरदार जड़ता निश्चय ही कमजोर हो रही है।


कला और साहित्य के क्षेत्र में मौलिक रचनाकारों ने अपने को अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया है। ऑस्कर, ग्रैमी या बुकर से नवाजे जाने वाले भारतीयों की सूची बहुत लंबी है। बॉलीवुड का प्रभुत्व सभी महाद्वीपों में एक सा है।


आज भारतीय औसतन पैंसठ साल तक जीने का भरोसा रख सकता है 1947 में यह उम्र 27 साल ही थी। साक्षरता हो या खाना-पहनना सभी में नाटकीय सुधार दिखता है। इसका यह अर्थ कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि हम आत्ममुग्ध-आश्वस्त बैठ सकते हैं। अभी हमें मीलों चलना है, राह कठिन है, हमारी आजादी आज भी आधी अधूरी ही कही जा सकती है। जनतांत्रिक व्यवस्था तथा नागरिक के बुनियादी अधिकार अक्सर जोखिम से घिरे जान पड़ते हैं।


11  अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘पूरब से ही फिर निकलेगा सूरज‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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