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अर्थव्यवस्था: आखिरकार आर्थिक विकास में मंदी के स्पष्ट संकेत दिखने लगे हैं। अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र की धीमी रफ्तार के साथ रुपये की गिरती कीमत भी सिरदर्द बनती जा रही है। महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के चलते उद्योगों में उत्पादन की रफ्तार थम गई है। निर्यात अपने बुरे दौर से गुजर रहा है। मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में आर्थिक सुधारों का पहिया भी रुका हुआ है।
असफलता: सरकार मंदी की भंवर में फंसी अर्थव्यवस्था को विकास के रास्ते पर लाने में नाकाम दिख रही है। आर्थिक सुस्ती से निपटने का कोई रास्ता उसे नहीं सूझ रहा। कोरे वादों और आशावाद के सिवाय उसके पास कोई ठोस उपाय नहीं है। खुद अंधेरे में हाथ-पैर मार रही सरकार आम आदमी और निवेशकों को भरोसा देने में विफल रही है। ऊपर से इस स्थिति के लिए वैश्विक मंदी को जिम्मेदार ठहराकर खुद साफ बचना चाह रही है।
आशंका: आर्थिक सुधारों के लिए बीमा, बैकिंग और खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ जैसे कई अहम मसलों में सही निर्णय लेने में असमर्थ रही सरकार गैर आर्थिक मसलों से जूझ रही है। आर्थिक विश्लेषकों के अनुसार अगर हालात से निपटने के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो स्थिति बहुत भयावह हो सकती है। रोजगार, महंगाई और निवेश जैसे कई क्षेत्रों पर मंदी का व्यापक असर पड़ सकता है। अंतत: इन सबकी मार गरीब जनता पर पड़ेगी। सरकार की विफलता के चलते पैदा हुई मंदी से आम आदमी की मुश्किलों में होने वाला इजाफा बड़ा मुद्दा है।
मंदी घर में घुस ही गई। गड़बड़ तो वित्त वर्ष की शुरुआत में ही हो गई थी, लेकिन अर्थव्यवस्था के हालात की असलियत अब सामने आई है। अब तक हम जिसे वैश्विक मंदी का असर समझ रहे थे, आर्थिक हालात उससे कहीं ज्यादा खराब निकले हैं। दरअसल इसकी जड़ तो घर में ही थी। अमेरिका और यूरोप के हालात ने देश की अर्थवयवस्था को धक्का तो पहुंचाया है लेकिन इसकी शुरुआत तो तभी हो गई थी जब महंगाई सरकार के काबू से बाहर हो गई और रिजर्व बैंक को इसे रोकने के लिए ब्याज दर बढ़ाने को मजबूर होना पड़ा।
आज हालात इस कदर खराब हैं कि औद्योगिक उत्पादन अपने न्यूनतम स्तर पर है। औद्योगिक क्षेत्र की बुनियाद माने जाने वाले आठों प्रमुखों उद्योगों की हालत खस्ता है। महंगे कर्ज ने उद्योगों की रीढ़ तोड़ रखी है। वित्त वर्ष के आठ महीने बीतते बीतते मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र हांफने लगा है। वैश्विक हलचलों ने निर्यात को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। साल की पहली तिमाही तक अर्थव्यवस्था के सरमायेदारों को सब्जबाग दिखा रहा निर्यात क्षेत्र अब निढाल पड़ा है।
अक्टूबर महीने के औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े अर्थव्यवस्था की पूरी तस्वीर बयां कर देते हैं। उद्योगों की गतिविधियों के सूचक पूंजीगत सामान या कहें कि भारी मशीनरी के उत्पादन में पिछले साल के मुकाबले भारी गिरावट आई है। इसका मतलब साफ है कि देश में औद्योगिक गतिविधियां एकदम ठप पड़ी हैं। कंपनियों की विकास योजनाएं वापस ठंडे बस्ते में चली गई हैं। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के उत्पादन में गिरावट के संकेत तो सितंबर में ही मिल गए थे जब इसकी वृिद्ध दर दो प्रतिशत से भी नीचे पहुंच गई थी। जबकि पिछले पांच साल के प्रदर्शन पर नजर डाली जाए तो औद्योगिक विकास 2007-08 में 18.4 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया था। लेकिन 2008-09 की मंदी में यह 22.5 प्रतिशत तक नीचे पहुंच गया था। लेकिन अक्टूबर 2011 में तो यह -5.1 प्रतिशत के गर्त में पहुंच गया है।
अर्थव्यवस्था की इस स्थित का अंदाज जुलाई अगस्त से ही दिखने लगा था जब आठ प्रमुख उद्योगों की वृद्धि दर में बढ़ोतरी का सिलसिला रुकने लगा था। खासतौर पर सीमेंट, प्राकृतिक गैस और कोयले के उत्पादन में हुई गिरावट ने उद्योग जगत के एक बड़े हिस्से को प्रभावित किया। बीते आठ महीने में इन प्रमुख उद्योगों का प्रदर्शन देखें तो साफ हो जाता है कि इन तीनों क्षेत्रों के उत्पादन की बढ़ने की रफ्तार शून्य से भी नीचे चली गई है।
अर्थव्यवस्था को इस हाल तक पहुंचाने में अन्य कारकों के साथ साथ महंगाई और उससे निपटने के लिए किए गए उपायों का बड़ा हाथ है। थोक मूल्यों पर आधारित खाद्य उत्पादों की महंगाई से लेकर प्राथमिक उत्पादों की महंगाई तो सरकार के काबू से बाहर हो गई। भारतीय रिजर्व बैंक ने अप्रैल 2010 से लेकर अक्टूबर 2011 तक लगातार ब्याज दरों में वृद्धि का सिलसिला बनाए रखा। अब यह सिलिसला रुका है। लेकिन अब लगता है बहुत देर हो चुकी है। सरकार विकास की कीमत पर महंगाई रोकने का प्रयास करती रही। आधे अधूरे मन से महंगाई को रोकने के किए गए उपायों का कोई नतीजा नहीं निकला और अब दिसंबर तक पहुंचते पहुंचते महंगाई खुद ब खुद नीचे आने लगी है। हालांकि अभी भी रिजर्व बैंक मानता है कि इसमें जोखिम बना हुआ है और महंगाई कभी भी धोखा दे सकती है। शायद यही वजह है कि वह ब्याज दरों में कटौती का सिलसिला शुरू करने के पहले सतर्कता बरत रहा है।
ऊंची ब्याज दरों ने देश में कारपोरेट गतिविधयों की रफ्तार भी धीमी कर दी। ऊपर से आर्थिक सुधारों के मामले में सरकार का सुस्त रवैया भी कंपनियों को आगे बढ़ने के प्रोत्साहन देने में नाकाम रहा। उद्योगों के नुमाइंदों ने सरकार से कई बार मिलकर स्थिति में सुधार लाने की अपील भी की, लेकिन देश के नीति निर्माता अपनी ही धुन में चलते चले गए और देश की आर्थिक विकास को घुन लगता गया। इसी का नतीजा है कि पहली छमाही में देश का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की विकास दर 7.3 प्रतिशत पर ही सिमट गई है। अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालात अब इसे सात प्रतिशत से भी नीचे ले जाते दिखाई पड़ रहे हैं। सरकार के सामने विकल्प भी सीमित हैं। आज की स्थिति में देश के खजाने की जो स्थिति है उसमें सरकार उद्योगों को प्रोत्साहन देने की हालत में भी नहीं है। इस बात को खुद वित्त मंत्री भी स्वीकार कर चुके हैं। सरकार के सामने अपने राजकोषीय घाटे को बजट के 4.6 प्रतिशत के अनुमान से बहुत ज्यादा ऊपर नहीं जाने देने की चुनौती है। राजस्व लक्ष्य पाने की उम्मीद नहीं के बराबर है। ऊपर से सब्सिडी का बोझ लगातार बढ़ रहा है। रुपये की कीमत में हो रही गिरावट ने आयात को महंगा किया है जिसके चलते सरकार पर कच्चे तेल के आयात का बोझ बढ़ गया है। इन हालात में सरकार के सामने अब सिर्फ एक रास्ता बचा है कि वो अर्थव्यवस्था की गिरावट को यहीं थाम ले और अच्छा समय आने का इंतजार करे। – [नितिन प्रधान]
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