Menu
blogid : 4582 postid : 2311

तीन साल ‘प्रजा’ बेहाल

मुद्दा
मुद्दा
  • 442 Posts
  • 263 Comments


उपभोक्ता। वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने वाला। यानी हम सभी। हमारे खर्च से ही अर्थव्यवस्था कुलांचे भरती है। 2008 की मंदी के बाद खुले दिल से किए गए निजी खर्च के बूते हम राजा हो गए और हमारे बूते बाजार झूमने लगा।


वक्त ने करवट बदली। अंतरराष्ट्रीय संकट ने घरेलू अर्थव्यवस्था को भी अपने लपेटे में लिया। इसी बीच महंगाई डायन का भी आगमन हुआ। सरकार आर्थिक सुधारों और महंगाई से बेपरवाह सोती रही, उपभोक्ता पिसता रहा। गैर जरूरी वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च को तो उसने काबू कर लिया लेकिन जरूरी और अपरिहार्य जरूरतों को पूरा करने में उसकी जेब अतिरिक्त रूप से ढीली होती रही। लिहाजा मांग कम हुई तो औद्योगिक उत्पादन घट गया। कड़ियां एक दूसरे से जुड़ती गईं। औद्योगिक उत्पादन घटने से निवेश कम हुआ और रोजगार के अवसर सीमित होते गए।


उपभोक्ता पर दोहरी मार। खर्च ज्यादा कमाई के स्नोत कम। केंद्र सरकार अपने तीन साल पूरे होने पर उपलब्धियों का रिपोर्ट कार्ड भले ही जारी करे, लेकिन उन उपलब्धियों के प्रत्यक्ष लाभ से उपभोक्ता और जनता का दूर तक नाता नहीं है। ऐसा लगता है कि सरकार आम आदमी के हित से पूरी तरह कट चुकी है। हाल ही में पेट्रोल की कीमतों में ऐतिहासिक वृद्धि से महंगाई के एक और चरण की शुरुआत का अनुमान है। ऐसे में पिछले तीन साल से पिस रहे उपभोक्ता की हालत का आकलन हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

…………………………………………….


फरवरी, 2011 तक सब अच्छा दिख रहा था। नौ प्रतिशत की आर्थिक विकास दर भी संभव लग रही थी। भले ही उस वक्त तक औद्योगिक उत्पादन में सुस्ती के संकेत दिख रहे थे, बावजूद इसके यह माना जा रहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था 2008 की मंदी से पूर्व की स्थिति में जल्द लौट आएगी। यह भरोसा इसलिए भी था क्योंकि 2009-10 में अर्थव्यवस्था की विकास दर 8.4 प्रतिशत रही थी। लेकिन धीरे धीरे यह साफ हो गया कि विकास के ऊंचे लक्ष्यों को पाना संभव नहीं होगा। और वही हुआ भी। 2010-11 में विकास दर 8.4 प्रतिशत पर स्थिर रही तो उसके अगले साल 2011-12 में अनुमानित 7.5 प्रतिशत के मुकाबले 6.9 प्रतिशत पर आकर अटक गई।


दरअसल मंदी के बाद भारत की पूरी ग्र्रोथ स्टोरी उपभोक्ताओं के जमकर खर्च करने पर टिकी थी। 2008 के बाद अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए सरकार ने वो सब उपाय किए जिससे बाजार में मांग बढ़े और जनता खर्च करे।  उपभोक्ताओं ने अगले दो साल जमकर खर्च किया। नतीजा बाजार भी उपभोक्ताओं की इस भरपूर मांग पर झूमने लगे। उपभोक्ता राजा हो गया। उसकी खर्च करने की रफ्तार 2009-10 में जहां जीडीपी की 7.2 प्रतिशत थी वो 2010-11 में 8.1 प्रतिशत पर पहुंच गई।


निजी खर्च में बढ़ोतरी का यह फायदा बहुत लंबा नहीं चल पाया और वित्त वर्ष 2011-12 से हालात बदलने लगे। दुनिया भर के आगे नया संकट आ खड़ा हुआ। यूरोप के संकट ने उसे और अमेरिका को मंदी के रास्ते पर ढकेल दिया। जापान में भी मांग कम हो गई। कच्चे तेल के दाम आसमान छूने लगे। इसका असर घरेलू अर्थव्यवस्था पर भी हुआ। उधर उपभोक्ताओं के बढ़े हुए खर्चे ने न सिर्फ बाजार में मांग बढ़ाई बल्कि महंगाई को भी न्यौता दे डाला। नतीजतन रफ्तार पकड़ती महंगाई को काबू करने के फेर में ब्याज दरें बढ़ी और मांग कम करने की कोशिशों ने अर्थव्यवस्था को सुस्त कर दिया।


तीन साल पहले की स्थिति अब एकदम बदल चुकी है। महंगाई बढ़ी तो उपभोक्ताओं के खर्च में भी कमी आई। 2011-12 में यह खर्च की विकास दर घटकर 6.5 प्रतिशत पर आ गई। वित्त वर्ष 2012-13 के आंकड़े अभी नहीं आए हैैं लेकिन संकेत मिल रहे हैैं कि इसमें और कमी आ रही है। उपभोक्ताओं की मांग में कमी का असर औद्योगिक उत्पादन पर साफ दिख रहा है। अक्टूबर 2011 में इसमें 5.1 प्रतिशत की कमी आई तो मार्च 2012 में औद्योगिक उत्पादन 3.5 प्रतिशत घट गया।


उत्पादन घटा तो निवेश भी कम हो गया। महंगे कर्ज के चलते औद्योगिक परियोजनाओं पर विराम लग गया। अर्थव्यवस्था में इस सुस्ती के चलते रोजगार के अवसर सीमित हो रहे हैैं। खासतौर पर मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में नौकरियों के अवसर बेहद कम हुए हैैं। आम जनता पर इसका दोहरा असर हुआ। 2009-10 व 2010-11 तक आमदनी बढ़ने की वजह से खर्च भी बढ़ रहे थे। आवास और वाहनों की खरीद में तेजी आई और लोगों ने सस्ती दरों पर कर्ज का लाभ उठाया। लेकिन ज्यों ही महंगाई ने अपना पांव फैलाया और वह उत्तरोत्तर जिद्दी होती चली गई, कर्ज भी महंगा होता चला गया। लोगों पर कर्ज का बोझ बढ़ा। नौकरियों के अवसर कम हुए तो यह कर्ज उपभोक्ता के लिए मुसीबत बन गया।


अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालात ने उपभोक्ता को दो साल पहले मिला ताज छीन लिया है। चार साल पहले की मंदी ने उपभोक्ता को यह ताज दिलाया था। मगर दूसरी मंदी उसका यह ताज छीन लिया है। अर्थव्यवस्था में आए इस बदलाव का सबसे ज्यादा खामियाजा उपभोक्ता को ही उठाना पड़ा है। खाने पीने से लेकर रोजमर्रा के सभी सामान उसकी पहुंच से दूर हो गए और महंगे कर्ज ने उसके खर्च के विकल्पों को भी सीमित कर दिया है।

खर्च को खा गई महंगाई

सालमहंगाई की औसत दर (प्रतिशत में)

2009-10 3.7
2010-119.4
2011-12 6.5


मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की विकास दर

साल200920102011

खाद्य उत्पाद और पेय पदार्थ-6.53.617.4
टेक्सटाइल्स6.85.9-2.7

परिधान1.64.0-4.8

रसायन उत्पाद5.30.20.2
रबर और प्लास्टिक उत्पाद15.014.1-1.7
अन्य गैर धात्विक खनिज उत्पाद6.94.54.5

मशीनरी और उपकरण5.831.3-2.5

इलेक्ट्रिकल मशीनरी-19.88.2-21.2
मोटर वाहन आदि19.633.511.6
फर्नीचर व अन्य2.0-6.4-1.7

निजी उपभोग व्यय

साल2008-092009-102010-11

खाद्य, पेय पदार्थ, तंबाकू3.30.36.2
कपड़े और जूते चप्पल5.014.93.6
किराया, ईंधन और बिजली3.65.44.9
फर्नीचर, फर्नीशिंग इत्यादि12.28.713.0

चिकित्सकीय देखरेख, स्वास्थ्य सेवाएं6.98.97.6
यातायात और संचार7.712.012.5
मनोरंजन, शिक्षा, सांस्कृतिक सेवाएं6.84.05.6
अन्य सामान एवं सेवाएं20.215.711.4

कुल7.17.48.2

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh