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रोजगार का रोना
यह समस्या भारत के आर्थिक विकास के असामान्य मॉडल में ही निहित है। जिसमें सस्ते, अकुशल और कम पढ़े लिखे कामगारों की प्रचुर आपूर्ति की जगह अपनी सीमित संख्या वाली कुशल श्रमशक्ति पर भरोसा किया जाता है। इसका मतलब है कि भारत ने काल सेंटर, यूरोपीय कंपनियों के लिए सॉफ्टवेयर बनाने जैसे कुछ क्षेत्रों में विशेषज्ञता तो हासिल कर ली लेकिन एक मैन्यूफैक्चरिंग मॉडल नहीं बन सका। ताईवान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और चीन जैसी अन्य अर्थव्यवस्थाएं जो सफलतापूर्वक विकसित हुईं, उन्होंने अपने शुरुआती दिनों में अपने मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र पर भरोसा किया। जिससे वहां के गरीबों को अधिक रोजगार मिला। दो दशक की दहाई अंक वाली विकास दर ने कुशल कामगारों के वेतन में भारी इजाफा कर दिया। इसने भारत की प्रतिस्पर्धी बढ़त को खत्म कर दिया। हम अपनी उच्च शिक्षा प्रणाली से उच्च कौशल की मांग को पूरा करने वाली प्रतिभाएं पैदा करने में असफल रहे। सबसे दुखद तो यह है कि महीने जॉब मॉर्केट में प्रवेश करने वाले करीब 10 लाख निम्न स्तर के कामगारों का पूरा इस्तेमाल नहीं कर सके।
मैन्यूफैक्चरिंग का मर्म
किसी भी अर्थव्यवस्था के टिकाऊ विकास के लिए मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का मजबूत होना पहली जरूरत होती है। यह क्षेत्र पारदर्शी कानून-कायदों और विश्वसनीय बुनियादी ढांचों पर आश्रित होता है। दुर्भाग्य से भारत में दोनों ही शर्तों की गैरमौजूदगी है। बुनियादी क्षेत्रों से जुड़े हाई प्रोफाइल भ्रष्टाचार के मामलों से निवेशकों का भरोसा सरकार से टूटा है। यदि जमीन आसानी से अधिग्र्रहीत नहीं हो सकती, कोयले की आपूर्ति आसानी से नहीं सुनिश्चित हो सकती तो निजी क्षेत्र पॉवर क्षेत्र से दूर ही रहना चाहेगा। अनियमित बिजली ने कल कारखाने लगाने से निवेशकों को दूर कर रखा है।
कानून की कठिनाई
लोचरहित श्रम कानूनों से लैस नियामकों का यह सशक्त तंत्र कंपनियों को विस्तार के लिए हतोत्साहित करता है। अपने विकास के साथ बड़े भारतीय कारोबार अकुशल कामगार की अपेक्षा मशीनों को तरजीह देते हैं। चीन की तीन दशकीय बूम (1978-2010) को दौरान वहां की अर्थव्यवस्था में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की 34 फीसद हिस्सेदारी रही है। भारत में इस क्षेत्र में सर्वाधिक विस्तार 1995 में देखा गया, तब यह 17 फीसद था आज अर्थव्यवस्था में इसकी हिस्सेदारी 14 फीसद है।
रियायतों की रवायत
समावेशी विकास पाने के लिए भारत में ग्र्रामीण रोजगार जैसे कार्यक्रम चलाए गए। गरीबों को भोजन, ऊर्जा, ईंधन और उर्वरक के मदों में दी जा रही सब्सिडी जारी है। यहां सब्सिडी सकल घरेलू उत्पाद का 2.7 फीसद है, लेकिन भ्रष्टाचार और अक्षम प्रशासन के चलते जरूरतमंदों तक पूरा लाभ नहीं पहुंच पाता है। इसी दौरान ग्र्रामीणों को दी जाने वाली सब्सिडी ने मजदूरी में वृद्धि कर दी। इससे महंगाई दहाई के अंक में पहुंच गई। भारत का वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का करीब नौ फीसद जा पहुंचा जबकि अमेरिका और यूरोपीय संघ के लिए यह आंकड़ा क्रमश: 2.5 और 1.9 फीसद है। इस महंगाई और अनिश्चितता के दौर से खुद को सुरक्षित रखने के लिए लोगों ने सोने की जमकर खरीदारी की। लिहाजा अपने व्यापार घाटे को भरने के लिए देश को विदेशी पूंजी पर निर्भर होना पड़ा।
रुपये में गिरावट
वजह
निर्यात और आयात के बीच बढ़ता अंतर बढ़ा रहा चालू खाते का घाटा
इस घाटे की भरपाई के लिए भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा की जरूरत
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार काफी सीमित
सोना और कच्चे तेल के आयात पर सर्वाधिक विदेशी मुद्रा खर्च
अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेतों से डॉलर मजबूत
अमेरिकी केंद्रीय बैंक की तरफ से राहत पैकेज वापस लेने के संकेत
अमेरिका सहित विदेशी बाजारों में तेजी से आ रहा सुधार
विदेशी निवेशक भारतीय बाजारों से अपनी पूंजी निकालने में जुटे
उपाय
चालू खाते के घाटे पर अंकुश के लिए सरकार व आरबीआइ ने उठाए कई कदम
सोना आयात को सीमित करने के लिए सीमा शुल्क चार से बढ़ाकर 10 फीसद किया
सोने के आयात के बदले 20 फीसद स्वर्ण उत्पादों का निर्यात जरूरी बनाया
सोना खरीदने को बैंक लोन पर लगाईं कई बंदिशें
देश से डॉलर बाहर ले जाने पर अंकुश, विदेश में प्रॉपर्टी खरीदने पर रोक
घरेलू कंपनियों के लिए विदेशी निवेश की संभावना पर भी लगाम
नाकाम
अन्य विदेशी मुद्राओं के मुकाबले डॉलर में लगातार मजबूती
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ी
आर्थिक विकास की दर में नहीं दिख रहा कोई सुधार
विदेशी निवेशकों में नहीं जम रहा सरकारी कदमों पर भरोसा
सोने के आयात को सीमित करने में नाकामी
निर्यात में कमी, आयात में इजाफा
एफडीआइ को आकर्षित करने में विफलता
8 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘टूट गया भ्रम, थम गए कदम’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.
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