- 442 Posts
- 263 Comments
साठ साल। षष्ठि पूर्ति। नई अवस्था में प्रवेश करने वाली जीवन की आयु। भले ही यह आयुसीमा बाधाओं और दिक्कतों की शुरुआत मानी जाती हो, लेकिन संसद के संबंध में इसे प्रौढ़ होती हुई एक संस्था के तौर पर देखा जाएगा। लंबे लोकतांत्रिक अनुभवों के साथ परिपक्व होती संस्था।
अस्पृश्यता उन्मूलन और दहेज प्रथा पर रोक के द्वारा समाज का दाग धोने का श्रेय इसी संसद को है। भूमि सुधार, श्रम कानून सुधार और तमाम क्षेत्रों में अंग्र्रेजों के जमाने के कानूनों में सुधार करने वाली यही संस्था है। स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का विधान, घरेलू हिंसा को अपराध बनाना और मनरेगा योजना द्वारा बेरोजगारों को रोजगार मुहैया कर करोड़ों लोगों की रोजी रोटी का प्रबंध आज की हकीकत बन चुका है। सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार कानून इसी संसद ने देश को दिया है।
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अच्छाई के साथ बुराई जुड़ी होती है। जन आकांक्षाओं की इस सर्वोच्च संस्था की गरिमा और कामकाज के तौर-तरीकों पर आज भले ही अंगुली उठे, लेकिन ऐसा आचार विचार और व्यवहार करने वाले सदस्य जिसके चलते इसकी गरिमा को ठेस पहुंचती है, चंद ही हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में आम भारतीय का विश्वास कायम रखने में इस संसद का अहम योगदान है। यह हम सबका संबल है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए दुनिया की सबसे अच्छी संसद की अवधारणा ही आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
बदल गई है वर्तमान संसद की तस्वीर
पीछे मुड़कर देखता हूं तो पिछले पैतीस वर्षों में बहुत कुछ बदला हुआ सा दिखता है। खुशी की बात है कि संसद का साठ साल मनाया जा रहा है। इसका आधा से ज्यादा सफर मैने साथ ही तय किया है। कईयों को मतभेद हो सकता है लेकिन मैने महसूस किया है कि लोकतंत्र के इस मंदिर में भी लोकतंत्र का रूप थोड़ा बदल गया है। स्वच्छंदता की सीमाएं कई बार यहां भी तोड़ी जाने लगी है। कई बार कर्तव्यों पर राजनीति ज्यादा भारी पड़ने लगी है।
हाल ही में मुझे किसी ने बताया कि संसद में पहली बार चुनकर आए सदस्य परेशान होते हैं। विभिन्न मुद्दों पर उन्हें बोलने का अवसर बहुत कम मिल पाता है। उनकी शिकायत होती है कि उन्हें तरजीह नहीं मिलती है। यह आज की स्थिति है।
एक पुरानी घटता बताता हूं। इससे संसद के अंदर का बदलाव स्पष्ट हो जाएगा। 1977 में मैैं पहली बार चुनकर लोकसभा पहुंचा था। मोरारजी भाई प्रधानमंत्री थे। चौधरी चरण सिंह गृहमंत्री थे। वह हमारे नेता थे। उसी समय बिहार के बेलछी की एक घटना में एक दर्जन से ज्यादा पिछड़ों की जानें चली गई थी। आज यह अविश्वसनीय लगेगा कि बेलछी की घटना पर मैैंने नियम 184 के तहत चर्चा मांगी और वह मंजूर हो गया। वोटिंग का समय आया तो खुद मोरारजी भाई ने खड़े होकर कहा कि जो प्रस्ताव है उससे सरकार भी सहमत है। एक नए सदस्य ने चर्चा की शुरूआत की और पूरा सदन उस पर एकमत हो गया। ढ़ाई दशक बाद गुजरात की घटना हुई तो बेलछी की तर्ज पर ही विपक्ष ने 184 के तहत चर्चा की मांग की थी। सत्तापक्ष को वह नागवार गुजरा। दरअसल अब ऐसे गंभीर विषय भी राजनीति के तराजू पर तौले जाते हैं।
सांसदों के लिए स्वच्छंदता कम हो गई है और चुनौती बढ़ गई है। उस वक्त हमें उतनी मेहनत नहीं करनी होती थी जितनी आज के सदस्यों को संसद पहुंचने के लिए करनी पड़ती है। लिहाजा अवसर मिलता भी है तो उनकी रुचि क्षेत्रीय विषयों पर ही टिकती है। उन्हें विस्तार का समय कम मिलता है।
संसदीय कामकाज के समय में हुई कमी भी इसका एक बड़ा कारण है। मंत्रालय के विषयों पर चर्चा के लिए स्थायी समिति बनाया जाना उचित है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि जो बजट सत्र पहले ढ़ाई तीन महीने निर्बाध चला करता था वह अब घटकर चालीस पचास दिनों पर अटक गया है।
एक और विषय है जो मुझे खटकता है। आरोप प्रत्यारोप पहले भी हुआ करते थे। संसदीय परंपरा में यह नया नहीं है। लेकिन अब ऐसी घटनाएं कुछ ज्यादा हो रही है और कई बार न सिर्फ व्यक्तिगत रूप से बल्कि संसद की गरिमा को भी तार तार कर देते हैैं। साठ साल हो गए। हमारा लोकतंत्र परिपक्व है। लिहाजा वक्त है कि सांसद लोकतंत्र की सही परिभाषा समझें और ऐसा आचरण करें जो संसद और देश की गरिमा को और आगे बढ़ाए।
Read Hindi News
Read Comments