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युवाओं में है कुछ कर गुजरने की बेचैनी

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Jayant Chaudharyजनतंत्र की बुनियाद जन हैं। जनता जिन प्रतिनिधियों को चुनती है वे जनता के, समाज के और अंतत: देश के विकास का रास्ता बनाते हैं। बचपन से राजनीतिक माहौल में रहते हुए मैंने जाना कि मेरे दादा चौधरी चरण सिंह जी ने राजनीति में ही रहते हुए देश के सबसे वंचित और शोषित तबके किसान का कितना हित किया।


जब मेरे पिता चौधरी अजित सिंह जी दादाजी के अस्वस्थ होने पर उनकी सेवा सुश्रुषा के लिए अमेरिका से भारत लौटे, वो मेरे बचपन के दिन थे। राजनीति में प्रवेश के साथ ही उन्होंने किसानों और पिछड़ों की समस्याओं को और करीब से जानने के लिए क्रांतिभूमि मेरठ से लखनऊ तक की पदयात्रा की। यही बातें मेरे लिए प्रेरणा बनीं। जिसके चलते मैं आज राजनीति में हूं।


यद्यपि ऐसे और भी बहुत से क्षेत्र हैं, जिनमें रहकर देशसेवा की जा सकती है। सरकारी तथा निजी प्रतिष्ठानों एवं स्वयंसेवी संगठनों से जुड़े ऐसे बहुत से लोग हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र में ईमानदारी से अपने कर्तव्यों-दायित्वों का पालन कर रहे हैं। लेकिन राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें आपका कार्यक्षेत्र व्यापक हो जाता है। आप हजारों-लाखों लोगों के हित की आवाज बुलंद कर सकते हैं, बल्कि जनहित के कार्यों को कानूनी रूप दे सकते हैं। जन-हित का एक कानून बनाकर या जन-विरोधी एक कानून खत्म कर आप लाखों लोगों का भला कर सकते हैं।


एक स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि जनता अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति पूरी तरह सचेत हो। शायद यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती है। चुनावी राजनीति में धनबल और बाहुबल का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। इसके चलते जनप्रतिनिधियों के लिए सत्ता में पहुंचने का मकसद जनसेवा से कुछ और होता जा रहा है। जनप्रतिनिधि, ‘प्रतिनिधि’ से ‘मालिक’ की भूमिका में आते गए और आमजन रोजी-रोटी के चक्कर में अपने लोकतांत्रिक अधिकारों तथा दायित्वों से उदासीन होता गया। नतीजतन ‘विकास’ और ‘जनहित’ की परिभाषा ही बदल गई। राजनीतिक प्रदूषण ने आज सारे समाज को प्रदूषित कर दिया है। इस स्थिति में बदलाव लाने के लिए ऐसे लोगों का राजनीति में आना जरूरी है, जो जनता के हितों से प्रतिबद्ध हों तथा उसे उसके दायित्वों के प्रति जागरुक बना सकें।


आज युवा वर्ग केवल अपने समाज या देश की नहीं बल्कि विश्व कल्याण की बात सोच रहा है। उसमें एक बेचैनी है- बदलाव की बेचैनी, कुछ कर गुजरने की बेचैनी। मैं मानता हूं कि इस बेचैनी को दिशा देने के लिए अनुभवी राजनीतिज्ञों का अपना महत्व है। अनुभव के महत्व पर कवि उदय प्रताप सिंह की इन पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा –

शिकस्तां कश्ती को पार लेकर,

पुराना इल्मो-हुनर गया है;

नए खिवैया कहीं न समझें,

नदी का पानी उतर गया है।


जयंत चौधरी हैं

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B.R Ambedakarसंसदीय प्रणाली किसी गैर संसदीय प्रणाली से उतनी ही भिन्न है जितना किसी चीज के लिए बाद वाले की अपेक्षा पूर्ववर्ती ज्यादा जिम्मेदार होते हैं। इसके साथ ही इनकी जवाबदेही का आकलन करने वाली संस्था और समय में भी अंतर होता है। गैर संसदीय प्रणाली जैसे अमेरिका में अस्तित्व वाली प्रणाली के अंतर्गत कार्यपालिका की जिम्मेदारी का आकलन कुछ समय के अंतराल पर किया जाता है। यह दो साल में एक बार होता है। इसे निर्वाचकों द्वारा किया जाता है। इंग्लैंड जहां पर संसदीय प्रणाली मौजूद है, कार्यपालिका की जवाबदेही का आकलन रोजाना और आवर्ती दोनों तरीकों से किया जाता है। रोजाना का आकलन संसद सदस्यों द्वारा प्रश्नों, प्रस्तावों, अविश्वास प्रस्तावों, स्थगन प्रस्तावों और भाषणों पर होने वाली बहसों के माध्यम से किया जाता है। समय समय पर होने वाला आकलन निर्वाचकों द्वारा चुनाव के समय किया जाता है जो हर पांच साल या इससे पहले हो सकता है। अमेरिकी प्रणाली में गैरमौजूद रोजाना जवाबदेही का आकलन आवर्ती आकलन से न केवल कहीं ज्यादा प्रभावकारी है बल्कि भारत जैसे देश के लिए अधिक आवश्यक भी है। संविधान के मसौदे की सिफारिश में कार्यपालिका की संसदीय प्रणाली को अधिक जिम्मेदार से अधिक स्थायित्व पर जोर दिया गया है।


-डॉ भीमराव अंबेडकर (चार नवंबर, 1948 को संविधान सभा में उद्बोधन)


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