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मंदी की मार

मुद्दा
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सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में गिरावट अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र को प्रभावित करेगी। पुराने अनुभव बताते हैं कि मंदी के साथ महंगाई में नरमी का भी माहौल बनता है, लेकिन यह नए निवेश को हतोत्साहित करता है। इससे बेरोजगारी बढ़ती है।


महंगाई

वैश्विक मंदी और अर्थव्यवस्था की सुस्ती कई तरफ से देश में महंगाई की स्थिति को प्रभावित करेगी। अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी होने से शेयर बाजार भी मंदी से उबर नहीं पा रहा है। इससे निवेशकों का बड़ा हुजूम कमोडिटी बाजार में संभावनाएं तलाश रहा है। इनमें सोने चांदी में निवेश बेहद आकर्षक है। इनकी कीमतें पहले ही आसमान पर हैं, यही हाल रहा तो कीमतें और बढ़ सकती हैं। हालांकि मंदी के चलते जिंसों की मांग कम होगी और दाम गिरेंगे, लेकिन डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरती कीमत का फायदा भारतीय अर्थव्यवस्था को नहीं मिल पाएगा। भले ही महंगाई की दर में अब कमी दिख रही है। लेकिन रिजर्व बैंक भी मान रहा है कि महंगाई को लेकर अर्थव्यवस्था में जो जोखिम बने थे वो कम नहीं हुए हैं। मांग और आपूर्ति की स्थिति जरा भी गड़बड़ाई तो उत्पादों के दाम फिर से बढ़ सकते हैं। यही वजह है कि रिजर्व बैंक अब भी महंगाई को लेकर वित्त वर्ष 2011-12 के अपने सात प्रतिशत के अनुमान को घटाने के लिए तैयार नहीं है।


बेरोजगारी

अर्थव्यवस्था की सुस्त होती रफ्तार न तो नौकरी खोजने वाले और न ही नौकरी कर रहे लोगों के लिए अच्छी है। इसका सबसे ज्यादा असर रोजगार के अवसरों पर पड़ता है। वर्ष 2008-09 के वैश्विक मंदी का उदाहरण हमारे सामने है जब निर्यात कम होने से सूरत से लेकर मिर्जापुर तक की निर्यात इकाइयों में छंटनी हुई थी। विश्व की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं अमेरिका, यूरोप और जापान के संकट में फंसने से निर्यात के मोर्चे पर संकट खड़ा होने लगा है। औद्योगिक उत्पादन के अक्टूबर में तेजी से घटने के बाद रोजगार का संकट खड़ा होने का अंदेशा बढ़ गया है। सीआइआइ के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी के मुताबिक यह बेरोजगारी की तरफ इशारा कर रहा है। केंद्र सरकार का अनुमान है कि अगले एक दशक में 25 से 30 करोड़ नए रोजगार के अवसर देश में बनाने की जरूरत है। इसके लिए हर हालत में हर वर्ष नौ फीसदी या इससे ज्यादा की आर्थिक विकास दर हासिल करना होगा। लेकिन ताजा हालात इससे कोसों दूर हैं। जानकारों का कहना है कि इस बार रोजगार के नए अवसरों पर वर्ष 2008-09 की मंदी से ज्यादा बुरा असर पड़ सकता है। तब सरकार ने घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन दे कर उन्हें नई नौकरियां देने के लिए प्रोत्साहित किया था। इस बार घरेलू उद्योग भी हलकान है। छंटनी की आहट सुनाई भी देने लगी है।


निवेश

अर्थव्यवस्था के बढ़ने की रफ्तार जैसे जैसे कम हो रही है, देश में आने वाले निवेश के कम होने के खतरे वैसे वैसे बढ़ रहे हैं। मौजूदा मंदी की वजह से देश में होने वाले निवेश पर विपरीत असर पड़ने की संभावना है। 2008-09 की मंदी के बाद अभी तो देश में आने वाला विदेशी निवेश वर्ष 2007-08 के स्तर पर भी नहीं पहुंच पाया था जब इसमें 58 फीसदी की वृद्धि हुई थी। और अर्थव्यवस्था फिर से मंदी की गिरफ्त में आती दिख रही है। वर्ष 2010-11 में इसमें 28 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी। चालू वित्त वर्ष के दौरान भी निवेश की रफ्तार काफी सुस्त बनी हुई है। यह स्थिति तब है जब पिछले तीन वित्त वर्षो के दौरान देश की विकास दर औसतन आठ फीसदी रही है। महंगे कर्ज और मांग में कमी के चलते उद्योगों की विस्तार परियोजनाएं भी अटक गई हैं। विदेशी निवेश तो दूर घरेलू कंपनियां भी नया निवेश करने से हिचक रही हैं। आर्थिक जानकारों के मुताबिक देश में निवेश का माहौल लगातार बिगड़ता जा रहा है। एक तो ब्याज दरों में वृद्धि ने निवेश को अनाकर्षक बना दिया है। दूसरा बड़ी परियोजनाएं सरकारी लेटलतीफी का शिकार हो रही हैं। पॉस्को की 12 अरब डॉलर की परियोजना कई वजहों से वर्षो से लटकी हुई है। यही हाल बिजली परियोजनाओं का है। ऐसे समय जब भारत का बुनियादी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर घरेलू व निजी निवेश की जरुरत महसूस की जा रही है, आर्थिक मंदी बहुत बुरा असर डाल सकती है।


स्थिति बेहद खतरनाक स्थिति पर पहुंचती दिख रही है। मैन्यूफैक्चरिंग और खनन सहित कुछ और उद्योगों पर मंदी की पकड़ आने वाले महीनों में और बढ़ सकती है। आरबीआइ को बगैर किसी देरी के ब्याज दरों को घटाना चाहिए। इससे बाजार में टिकाऊ उपभोक्ता सामानों की मांग तेजी से बढ़ेगी तो हालात को संभालने में मदद मिलेगी। साथ ही निवेश को प्रोत्साहन देने के लिए केंद्र सरकार को अलग से नीति की घोषणा करनी चाहिए। -राजीव कुमार [फिक्की के महासचिव]


टिकाऊ उपभोक्ता सामान उद्योग में गिरावट इस बात का प्रमाण है कि यहां निवेश भी नहीं हो रहा है, जो घातक है। कई वजहों से उत्खनन बंद होने का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। -चंद्रजीत बनर्जी [सीआइआइ के महानिदेशक]


देश में बन रहे मंदी जैसे हालात को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता है। यदि सरकार इच्छाशक्ति दिखाए तो इसके असर को काफी हद तक कम किया जा सकता है। कृषि क्षेत्र की उत्पादकता को बढ़ाकर एवं सप्लाई चेन को सुधार कर महंगाई को काफी नियंत्रित किया जा सकता है। साथ ही ब्याज दरों को घटाकर देश में विदेशी निवेश को प्रोत्साहित कर औद्योगिक सुधारों पर काम करने की जरूरत है। उद्यमियों में विश्वास जगेगा तो निवेश अपने आप बढ़ जाएगा। -डीके जोशी [मुख्य अर्थशास्त्री, क्रिसिल]


विश्व अर्थव्यवस्था के बदतर हो रहे हालात से उपजी नरमी से निपटने के विकल्प सरकार के पास सीमित हैं। -प्रणब मुखर्जी [वित्तमंत्री], [दिल्ली आर्थिक सम्मेलन में दिया गया बयान]


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