Menu
blogid : 4582 postid : 648778

Mudda: बेदाग हो न्याय और मूर्ति

मुद्दा
मुद्दा
  • 442 Posts
  • 263 Comments

साख पर सवाल

संस्था

न्यायपालिका। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे मजबूत खंभा। जब-जब जनहित से जुड़े मुद्दों पर लोकतंत्र के अन्य खंभों कार्यपालिका या विधायिका द्वारा कुठाराघात किया गया तो न्यायपालिका ने ही एक कदम आगे बढ़कर उन मसलों को अंजाम तक पहुंचाते हुए जनमानस के भरोसे को कायम रखा। अपने इसी जज्बे और छवि के चलते लोकतंत्र के अन्य स्तंभों की तुलना में भारतीय न्यायपालिका पर सभी नागरिकों की श्रद्धा और विश्वास औरों से कहीं ज्यादा है।


संशय

इधर-बीच न्यायपालिका पर आम लोगों का भरोसा दरका है। समय-समय पर माननीय जजों के खिलाफ उनके आचरण को लेकर उठी अंगुली ने न्यायपालिका की साख पर सवाल खड़े किए हैं। ऐसे मामले लोगों को हतप्रभ करते रहे हैं। जिस संस्था और उससे जुड़े लोगों को वे भगवान की तरह देखते हों, ऐसे न्यायदाताओं को आरोपों में घिरते देखने पर उनका हृदय विदीर्ण हो जाता है। विश्वास और भरोसे का बांध दुख और क्षोभ के सागर के बहाव में टूट जाता है। ऐसे ही एक मामले ने आजकल लोगों की भावनाओं को उद्वेलित कर रखा है।

समाधान

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज पर उनकी दो प्रशिक्षुओं ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। एक के बाद एक लगे इन आरोपों ने न्यायिक क्षेत्र में खलबली मचा रखी है। मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तीन सदस्यों वाली एक समिति का गठन कर दिया है। इन हालात में यह बड़ा सवाल है कि क्या जजों के आचरण की निगरानी का कोई स्थायी तंत्र विकसित किया जाना चाहिए? क्या मौजूदा प्रावधानों के तहत न्यायपालिका अपने कार्य व्यवहार की समीक्षा करने में सक्षम है? ऐसे में अपने न्यायदाताओं के आचरण में आती गिरावट के कारणों और उसके निवारण की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

……………..


बेदाग हो न्याय और मूर्ति

माला दीक्षित

(विशेष संवाददाता)

माई लार्ड । जिंदगी और मौत का फैसला करने वालों के प्रति सम्मान और आस्था का संबोधन। इस आस्था और विश्वसनीयता को कायम रखने के लिए न्यायाधीशों का आचरण बेदाग और निष्कलंक होना जरूरी है अन्यथा न्याय की मूर्ति खंडित नजर आएगी और खंडित मूर्ति की पूजा नहीं होती। एक जज साहब (सेवानिवृत्त) पर लगे बेजा हरकत के आरोपों पर शीर्ष अदालत ने तत्काल संज्ञान जरूर लिया है लेकिन घटना ने जजों की आचरण संहिता और निगरानी तंत्र पर एक बार फिर चर्चा गरमा दी है।


पिछले 63 साल में कई बार भ्रष्टाचार और कदाचार की काली छाया न्याय की कुर्सी तक पहुंची लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों पर कार्रवाई के कानून का अंधेरा कायम रहा। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों को सिर्फ महाभियोग से हटाया जा सकता है लेकिन इसका इस्तेमाल इतना पेचीदा है कि आज तक इस प्रक्रिया से किसी को नहीं हटाया जा सका। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ जांच या मामला दर्ज करने से पहले जांच एजेंसी को भारत के मुख्य न्यायाधीश से अनुमति लेना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी के मामले में ये व्यवस्था दी थी। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास कार्रवाई के असीमित अधिकार हैैं।


दरअसल न्यायाधीशों के आचरण को लेकर कानून की चुप्पी खासी रहस्यमय है। आरोप कितने भी गंभीर क्यों न हों हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के स्थाई जज को हटाना तो दूर उसे छुट्टी पर भेजने या कामकाज छीनने जैसी अनुशासनात्मक कार्रवाई भी मुश्किल है। मौजूदा व्यवस्था में आरोपी जज सलाह मानने को बाध्य नहीं है क्योंकि हाई कोर्ट के न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक नियंत्रण में नहीं आते। अगर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर कोई आरोप लगता है और मामले की जांच होने तक सुप्रीम कोर्ट की कोलीजियम उसे कामकाज से विरत होने या जांच में दोषी पाए जाने पर पद से त्यागपत्र देने की पेशकश करती है तो हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश कोलीजियम का निर्देश मानने को बाध्य नहीं है। ज्यादा से ज्यादा कोलीजियम हाई कोर्ट के जज का ट्रांसफर कर सकती है वह भी समान पद पर। कोलीजियम उसे पदावनत नहीं कर सकती। ऐसे में ट्रांसफर के बाद नई जगह जाकर भी आरोपी जज मुख्य न्यायाधीश की तरह ही न्यायिक और प्रशासनिक कामकाज करता रहेगा। मालूम हो कि हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में कौन सा जज किस मामले को सुनेगा यह मुख्य न्यायाधीश ही तय करते हैैं। इस संबंध में कर्नाटक हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनकरन का मामला देखा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट कोलीजियम ने उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच पूरी होने तक उन्हें लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह दी थी लेकिन जस्टिस दिनकरन ने सलाह नहीं मानी अंत मे मजबूर होकर कोलीजियम को उन्हें कर्नाटक से सिक्किम हाई कोर्ट स्थानांतरित करने की सिफारिश करनी पड़ी। जस्टिस दिनकरन अपनी इच्छा से कुछ दिनों तक न्यायिक कामकाज से दूर रहे लेकिन उस दौरान भी वे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का सारा प्रशासनिक कामकाज देखते रहे। हाई कोर्ट के अन्य जज उनके निर्देशों को मानने को बाध्य थे क्योंकि ऐसा न करना पेशेगत आचरण के खिलाफ होता। दूसरा मामला कलकत्ता हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सौमित्र सेन का है जिन्होंने जांच में गलत आचरण का दोषी पाए जाने पर पद से इस्तीफा देने की सुप्रीम कोर्ट जांच कमेटी की सलाह ठुकरा दी थी। अंतत: उन्हें पद से हटाने के लिए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने सरकार से महाभियोग लाने की सिफारिश की थी। ये बात और है कि महाभियोग की कार्रवाई के बीच में ही सौमित्र सेन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।


सरकार एक बार पदासीन हो गए न्यायाधीश के खिलाफ कार्रवाई की इस विवशता को समाप्त करना चाहती है। वह हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को जवाबदेह बनाने का एक तंत्र विकसित करना चाहती है। इसके लिए न्यायिक मानक और जवाबदेही कानून लाया जा रहा है ताकि आम जनता को भी अगर मी लार्ड के आचरण में दाग दिखता है तो वो उसकी शिकायत कर सके। उस शिकायत पर जज के खिलाफ जांच और कार्रवाई हो, लेकिन जजों को जवाबदेह बनाने का सरकार का मंसूबा पिछले तीन सालों से संसद की मंजूरी की बाट जोह रहा है। इस विधेयक की सबसे बड़ी खासियत है कि अगर आरोपी न्यायाधीश को प्रथमदृष्टया दोषी पाया जाता है तो उससे कामकाज वापस लिया जा सकता है। इतना ही नहीं अगर जांच के बाद न्यायाधीश को कदाचार का दोषी पाया जाता है लेकिन उसका अपराध उस श्रेणी का नहीं है कि उसे पद से हटाया जाए तो उसके खिलाफ चेतावनी या भविष्य में अच्छे आचरण का सुझाव जारी किया जा सकते हैैं। अभी ऐसा कोई कानून नहीं है जिसमें न्यायाधीश को पद से हटाने का प्रस्ताव लंबित रहने के दौरान उससे न्यायिक कामकाज वापस लेने का प्रावधान हो। इस कानून के जरिए न्यायाधीशों के लिए तय अच्छे आचरण के नैतिक मूल्यों को भी कानूनी जामा पहनाने की तैयारी है। अभी इसके पीछे कानूनी बाध्यता नहीं है। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका के एकाधिकार पर भी सवाल उठ रहे हैैं। सरकार इसमें कार्यपालिका की भी भागेदारी चाहती है। जजों की नियुक्ति की मौजूदा कोलीजियम व्यवस्था बदलने और न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग गठित करने का विधेयक संसद में लंबित है।


जजों की जवाबदेही

प्रस्तावित कानून की खास बातें

†न्यायाधीशों के लिए अपनी और आश्रितों की संपत्ति घोषित करना अनिवार्य होगा


†अभी लागू न्यायाधीशों के आचरण से जुड़े नैतिक मूल्य कानूनी परिधि में आ जाएंगे

†सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीश के खिलाफ कोई भी व्यक्ति शिकायत कर सकता है और उस शिकायत पर कार्रवाई होगी

†न्यायाधीशों के खिलाफ जांच का वर्तमान तरीका बदल जाएगा

†इस कानून के लागू होने के बाद जजेस (इंक्वायरी) एक्ट 1968 समाप्त हो जाएगा


17 नवंबर 2013  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘सबके आत्मचिंतन का है वक्त‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


17 नवंबर 2013  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘जब जब उठी अंगुली’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


judiciary in india

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh