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117 साल पुराने भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 के अनुसार सार्वजनिक उद्देश्य के तहत किसी भी जमीन को बगैर बाजार मूल्य के मुआवजा चुकाए सरकार को अधिग्रहण करने का अधिकार है। इसमें ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ की परिभाषा के तहत शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण, आवासीय या ग्र्रामीण परियोजनाओं का विकास शामिल है। इसके लिए एक अधिसूचना पर्याप्त होती है.
इस कानून में दो प्रमुख बातें स्पष्ट नहीं की गई है। एक तो अधिग्रहण की जाने वाली जमीन की वाजिब कीमत क्या होनी चाहिए? दूसरी बात क्या सार्वजनिक मकसद के तहत टाउनशिप या विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) को जमीन उपलब्ध कराना जायज है? क्या निजी कारखानों के लिए जमीन ली जा सकती है? कई मामलों में सुप्रीमकोर्ट से भी यह बातें साफ नहीं हुईं.
प्रस्तावित विधेयक में प्रावधान
भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 में संशोधन के लिए 2007 में एक विधेयक संसद में पेश किया था। हालांकि यह विधेयक लैप्स हो चुका है। मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून की खामियों को दुरुस्त करने के लिए फिर से इस तरह के संशोधन बिल पेश किए जाने की बात की जा रही है। 2007 के संशोधन बिल में मौजूदा कानून में कई परिवर्तनों का प्रस्ताव पेश किया गया था:
उद्देश्य : सेनाओं की रणनीतिक जरूरतों के लिए भूमि अधिग्रहण संभव, सावर्जनिक हित के किसी भी मकसद के लिए.
मुआवजा : यदि कृषि योग्य जमीन को किसी औद्योगिक प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहीत किया जाता है तो उसको औद्योगिक जमीन माना जाएगा और इस तरह की जमीन को निर्धारित दरों पर ही खरीदा जा सकेगा .
प्रक्रिया : कई बदलावों के प्रस्ताव में सामाजिक प्रभाव का आकलन (एसआइए) खास है। 400 से अधिक परिवारों के विस्थापन की स्थिति में अधिग्रहण के पहले एसआइए होगा.
उपयोग : अधिग्रहीत की गई जमीन का इस्तेमाल पांच वर्षों के भीतर करना होगा। अन्यथा जमीन सरकार के पास चली जाएगी। इसके अलावा यदि किसी अधिग्रहीत जमीन को किसी अन्य पार्टी को हस्तांतरित किया जाता है तो उसमें होने वाले कुल लाभ के 80 प्रतिशत हिस्से में से भूमि के वास्तविक मालिक और उसके कानूनी वारिसों को भी हिस्सा देना होगा.
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साभार : दैनिक जागरण 22 मई 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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